हे शैलजानाथ ! अब श्री देवता के चक्र को सुनिए । पूर्व से पश्चिम की ओर ६ रेखा खींचे । फिर उत्तर से दक्षिणान्त दश रेखा खींचे । पाँच गेह में पूरक अङ्क लिखे । सबके नीचे हारक अङ्क लिखे ॥४२ - ४३॥
उसके मध्य में देवताग्रह से संयुक्त अक्ष की रचना करे । मध्य गृह में सप्तर्षियुक्त पूरक अङ्क लिखे ॥४४॥
उसके दक्षिण द्वादश , उसके भी दक्ष ( रस ) ६ , उसके दक्ष १८ , उसके भी दक्ष भाग में १६ लिखे - ऐसा कहा गया है ॥४५॥
उसके बाद पूरक अङ्क लिखें , फिर द्क्ष भाग से इन्द्रादि अङ्क लिख्रें । इन्द्र के गृह में विधि विद्या का फल देने वाला शतक लिखे । विद्वान् साधक धर्मगृह में शून्य सात तथा दो लिखे । हे नाथ ! इसके बाद अनन्त मन्दिर में शून्य , आठ तथा ( वसु ) ८ संख्या लिखे ॥४६ - ४७॥
इसके बाद काली गृह में शून्य , ( वेद ) ४ तथा वामादि अङ्क लिखे धूमावती के मन्दिर में शून्य तथा ख में ( निशापति ) १ लिखे । इन्द्रादि दक्षभाग से लिखे , अङ्क चन्द्राधि देवता , शून्य अष्टचन्द्र से युक्त कर सर्वत्र देवता लिखे ॥४८ - ४९॥
फिर शून्य , अनल ३ , युग ४ तथा अयुग से युक्त कर दोनों अश्विनीकुमारों को लिखे । उसके बाद सहस्त्रार्क समन्वित पूर्वगृह लिखे । तारा के मन्दिरा में रहने वाला अङ्क शून्य वेद ४ है । उसी प्रकार बगलामुखी का गेह शून्य , अष्ट तथा चन्द्र १ से संयुक्त लिखे । इसके बाद उस चन्द्र गृह के नीचे वायु का मनोरम गृह है जो रन्ध० , वेद ४ संख्या से संयुक्त है तथा सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है ॥५० - ५२॥
राहु का गृह महापाप संयुक्त है वह शून्य , शून्य तथा मुनि ७ प्रिय है , उसके पश्चात् एक ही स्थान पर ख १ शून्य युगल अङ्क से युक्त ह्स्त लिखे । षोडशी मन्दिर शून्य , अष्ट तथा चन्द्र १ से समन्वित लिखे । मातङ्गी मन्दिर शून्य , रुद्र ११ तथा चन्द्र १ समन्वित लिखे ॥५३ - ५४॥
वायु के नीचे वरुण का गृह है जो सात तथा शशि २ प्रिय है तरुणीगृह को शून्य तथा अष्ट संख्या से समन्वित लिखना चाहिए । बुध गेह में रहने वाले अङ्क शून्य , चन्द्र तथा युग ४ संख्यायें हैं इसी प्रकार भुवनेशी मन्दिर का अङ्क शून्य , आठ तथा शशि १ संख्या वाला है ॥५५ - ५६॥
वरुण के नीचे कुबेर का गृह षट् तथा दो संख्या वाला है । आनन्दभैरवी का गृह दश संख्या वाला कहा गया है । धरणी गृह में शून्य युग्म तथा इन्दु १ संयुक्त लिखें । भैरवी का गृह शून्य युगल तथा चन्द्र संख्या वाया है ॥५७ - ५८॥
शशि गृह शून्य ऋषि ७ तथा चन्द्रमण्डल १ से संयुक्त है । कुबेर के नीचे श्री चक्र में रहने वाले अङ्क सर्वसमृद्धि प्रदान करने वाले हैं । ईश्वर सदाशिव के गृह में रहने वाले अङ्क सप्त , शून्य तथा युगात्मक ४ हैं । तिरस्करिणी का गृह एक हजार संख्या से समन्वित है ॥५९ - ६०॥
इसके पश्चात् किंकिणी का मन्दिर ८ आठ तथा चन्द्र संख्या समन्वित है , इसके पश्चात् छिन्नमस्ता का गृह शून्य , अष्ट तथा चन्द्रमण्डलात्मक १ है । इसके पश्चात् वागीश्वरी का गृह सप्तम तथा चन्द्रमण्डल १ युक्त है , यह गृह महाफल देने वाला है , जिसकी स्वयं धर्म रक्षा करते हैं ॥६१ - ६२॥
इसके बाद ईश्वर सदाशिव के गृह के नीचे बटुक का गृह है । इनका स्वयं का गृह शून्य , आठ तथा आद्य १ अङ्क समन्वित है जो धर्म , अर्थ , काम तथा मोक्ष देने वाला है । इसके पश्चात् डाकिनी का गृह है जो ख शून्य तथा मुनि ७ संख्या से संयुक्त है । यह गृह साधक के समस्त सौख्य को क्षण मात्र में विनष्ट करने वाला है - इसमे संशय नहीं ॥६३ - ६४॥
अपने गृह में अपना - अपना मन्त्र फल देने वाला है - ऐसा कहा गया है । इसके बाद भीमा देवी का गृह है जो ख शून्य , सप्त तथा चन्द्रमण्डल से संयुक्त है । अन्य गृह सभी स्थानों पर भय प्रदान करते हैं । इसलिए उन्हें वर्जित कर देना चाहिए । इसके बाद उत्तम , श्रेष्ठ , विद्वान् शेष दो गृह में ल और क्ष इन दो वर्णों को लिखे ॥६५ - ६६॥
धीर साधक इन्द्रगेह ( द्र० ४ . ४६ ) से प्रारम्भ कर वकार से लेकर क वर्ग पर्यन्त वर्ण लिखे । फिर श , ष , स , ह , क्ष - इस प्रकार क्षकारान्त वर्ण लिखे । फिर साधक गणना करे ॥६७॥
ऊर्ध्वदेश में पूरक अङ्क लिखे , नीचे हारकाङक लिखे । इसके बाद , हे महेश्वर ! यहाँ आपने नाम का अक्षर हो विद्वान उस कोष्ठ का अङ्क लेकर पूजा करे । फिर उसके ऊपर वाले गृह के अङ्क से भाग देवे । यदि देवता का अङ्क बडा हो तो वह अङ्क शुभ देने वाला होता है । अल्पाङ्क भी शुभ देने वाला कहा गया है जो साधक के लिए सुखावह है ॥६८ - ७०॥
एकाक्षर में महान् सुख की प्राप्ति होती है । उसमें भी वर्णों की गणना करनी चाहिए । हे विभो ! यदि धीराङ्क ( अधोङ्क ) तथा देवताङ्क शून्य आवे तो शुभ नहीं होता । वह सर्वदा अशुभ देने में समर्थ होता है । एक में धन की प्राप्ति , द्वितीय में राजवल्लभ , तृतीय में जप से सिद्धि , किन्तु चतुर्थ में निश्चित रुप से मरण कहा गया है । पञ्चम में व्यक्ति की कीर्ति , छठवें में उत्कट दुःख प्राप्त होता है ॥७१ - ७३॥
शैवों के लिए तथा शाक्ति के लिए इतने ही वर्णों के अङ्क के ग्रहण का विधान है । वैष्णवों के लिए पञ्चम अङ्क निषिद्ध है । जिन - जिन देवताओं की हिंसा चित्त में स्थित हो , उन - उन देवताओं के मन्त्र ग्रहण से साधक आठों ऐश्वर्यों से युक्त हो जाता है । जो लोग जिस देवता के अधीन होते हैं वे उन देवताओं के गृह के अङ्क को लेते हैं । इसलिए ऊपर के अङ्क से पूर्ण कर नीचे के अङ्क से उसका हरण ( भाग ) करे ॥७४ - ७६॥
ऋणधनिचक्र --- हे सदाशिव ! अब ऋणी तथा धनी का चक्र तत्त्वतः वर्णन करती हूँ । उस कोष्ठ के दर्शन मात्रा से पूर्व जन्म के ऋणी तथा धनी का ज्ञान हो जाता है । अनेक प्रकार के अङ्कों में मन्त्र देवता का ज्ञान कर साधक सिद्धियों का ईश्वर बन जाता है । अपनी सेवा के योग्य महाविद्या के मन्त्रों को ग्रहण कर साधक मुक्ति प्राप्त कर लेता है । कोष्ठ से शुद्ध मन्त्रों का जो द्विजोत्तम ग्रहण करते हैं उनके समस्त दुःख दूर हो जाते हैं , यह हमारी बलवत्तर आज्ञा है ॥७७ - ७९॥
हे रुद्र ! हे भैरव ! कोष्ठ से शुद्ध किया गया मन्त्र ही फल देने वाला है । सद् गुरु के प्रिय दर्शन से प्राप्त हुये महामन्त्र का भी त्याग नहीं करना चाहिए । उस विषय में कोष्ठ का विचार न कर अपने विचार को ही मानना चाहिए । यदि महाविद्याओं के महामन्त्र में विचार पूर्वक ( परीक्षित ) मन्त्र ग्रहण करने से करोड़ों गुना पुण्य का लाभ भी होता है तो भी सदगुरु का मन्त्र लेना चाहिए ॥८० - ८१॥
( सदगुरु से प्राप्त मन्त्र का ) यदि विचार न भी किया जाय तो कामसुन्दरी ललिता महाविद्या जैसा उसका फल कहा गया है । उतना फल तो वहा देती ही हैं । ( इस चक्र में ) मात्र ११ कोष्ठक हैं , जिसे स्वयं महादेव ने परिपूर्ण किया है ॥८२॥
तत्त्ववेत्ता उन कोष्ठों में अकार से सारम्भ कर हकार पर्यन्त वर्ण लिखे । प्रथम पाँच कोष्ठों में हस्व दीर्घ क्रम से साधक विचारपूर्वक दो दो वर्णों को लिखे । फिर सुधी साधक शेष कोष्ठों में क्रमपूर्वक एक एक वर्ण लिखे ॥८३ - ८४॥
अ से लेकर म पर्यन्त दो वर्णों के अवधि में क्रमशः अङ्कानुसार वर्ण लिखे । बुद्धिमान् प्रथम मन्दिर में छठवाँ वर्ण लिखे । द्वितीय में भी छठें चिन्ह को लिखे तृतीय गृह में तथा चतुर्थ गृह में गगनाङ्क ( ह ) लिखना चाहिए । पञ्चम में तीन चक्र लिखे । षष्ठ गृह में चतुर्थ वर्ण , सप्तम में भी चतुर्थ वर्ण , अष्टम में गगनाड्क ( ह ) तथा नवम में दशम वर्ण लिखे ॥८५ - ८७॥
शेष मन्दिर में तीसरा वर्ण लिखे । हे नाथ ! ये साध्य मन्त्र के वर्ण हैं जिन्हें मैने आप से निश्चित रूप से कहा है ॥८८॥
अब संपूर्ण प्रयोजनों के निरूपण करने वाले साधक के अक्षरों को कहती हूँ । प्रथम गृह में द्वितीय और द्वितीय में तृतीय वर्ण लिखे । तृतीय गृह में पाँचवाँ , चौथे तथा पाँचवे गृह में गगन ( ह ) लिखे । षष्ठ में युगल वर्ण , सप्तम में चन्द्रमण्डल लिखे । अष्टम गृह में गगन ( ह ) वर्ण , नवम में चतुर्थ वर्ण , दशपे गृह में चौथा वर्ण , एकादश में चन्द्र वर्ण लिखे ॥८९ - ९१॥
वर्ण मण्डल के मध्य में रहने वाले इतने ही साधक के वर्ण हैं । हे महादेव ! स्वर व्यञ्जन को अलग अलग कर साध्यवर्णों को एकत्रित करे , यह प्रक्रिया समस्ता वर्णों के लिए जोड़कर आठ संख्या से भाग दे । जिस मन्त्र में साधक वर्णों से कम शेष बचे , उस शुभ मन्त्र को भी कदापि न ग्रहण करे । इसी प्रकार साधक के वर्णों के स्वरों तथा व्यञ्जनों को अलग - अलग कर लेवे ॥९२ - ९४॥
फिर पृथक् पृथक् संस्थित उन वर्णों को द्वितीयादि अंक से भाग दे । यदि मन्त्र में साधक की अपेक्षा अधिक अङ्क आवे तो सुधी साधक उस मन्त्र का जप करे । सम होने पर भी मन्त्र का जप किया जा सकता है । किन्तु ऋण की अधिकता होने पर कदापि उस मन्त्र का जप न करे ॥९५ - ९६॥
यदि शेष शून्य़ बचे तो भी उस मन्त्र का जप कदापि न करे । क्योंकि शून्य मृत्यु का सूचक है । द्वितीयादि अङ्क समुदाय वैष्णवों के लिए सुखदायी कहे गये हैं । यतः द्वितीयादि अङ्क जाल वैष्णवों के लिए सुखदायी हैं , अतः द्वितीयादि अङ्कजाल भी उसी प्रकार का कहा गया है ॥९७ - ९८॥
हे नाथ ! इन्द्रादि अङ्क सूर्य - मन्त्र तथा शाक्ति - मन्त्र में शुभप्रद हैं उसी प्रकार दिक् १० संख्या वाले अङ्क साधक के लिए शुभप्रद हैं । हे सदाशिव ! और सब तो पूर्ववत् है केवल उन अङ्कों को प्रयत्नपूर्वक सुनिए । विभिन्न अङ्कों से युक्त ऊपर से नीचे तक क्रमशः साध्य के अङ्कों को तथा साधक के अङ्कों को एक में मिला देवे और उसे ९ से पूर्ण करे । फिर जितनी गृह की संख्या हो उसे ८ से गुणा करे । फिर स्पष्टरुपा से जो शेष बचे उससे फल विचार करे ॥९९ - १०१॥
एकादश गृह में रहने वाले उन अङ्कों को यहाँ कहती हूँ - ये अंक इन्द्र तारा २७ . स्वर्ग , रवि १२ , तिथि २७ , षड् ६ , वेद ४ , दहन ३ , अष्टवसु ८ तथा नवाङ्क ९ में स्थित वर्ण का गुणा साध्य वर्ण से करे । नाम के आदि अक्षर से लेकर जितने मन्त्र के अक्षर हों उन संख्याओं को तीन भागों में बाँट देवे । फिर सात का भाग देवे । यदि अधिक शेष हो तो ऋण , यदि कम शेष हो तो धन कहा जाता है ॥ १०२ - १०५॥
( १ ) अथवा एक दूसरा भी प्रकार है जिससे परीक्षा कर मन्त्र का आश्रय ग्रहण करे नाम के आदि अक्षर से आरम्भ कर जितना भी साधक का वर्ण हो उसकी गणना करे । फिर जितनी संख्या हो , उसमें सात का गुणा करे । फिर वाम ( उलट कर ) संख्या से भाग देवे । किन्तु यह गणना श्री विद्या से इतर महाविद्याओं वाले मन्त्र में करने का विधान है ॥१०६ - १०७॥
( २ ) अथवा परीक्षा का एक और भी प्रकार है । साधक के सभी अक्षरों के स्वर और व्यञ्जनों को अलग अलग कर उसकी गणना करे । फिर साधक स्वयं उसका दुगुना करे । इस प्रकार साध्य के स्वर एवं व्यञ्जन अक्षरों को अलग अलग जोड़कर आठ का भाग देवे , फिर उसके संहार - विग्रह ( = फल ) को सुनिए ॥१०८ - १०९॥
इसमें पूर्वाचार के क्रम से ही सम्यक् शुभाशुभ फल जानना चाहिए इसके केवल विचार मात्र से ही सर्वार्थ साधिका सिद्धि प्राप्त होती है । साधक ने पूर्व जन्म में जिस देवता की आराधना की हैं उसी देवता को वह प्राप्त करता है ॥११० - १११॥