या देवी खड्गहस्ता सकलजनपदव्यापिनी विश्वदुर्गा,
श्यामांगी शुक्लपाश द्वीजगणगुणिता ब्रह्म देहार्थवासा।
ज्ञानानां साधयित्री यतिगिरीगमनज्ञान दिव्य प्रबोधा
सा देवी दिव्यमुर्ती: प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।१।।
ह्रां ह्रीं ह्रुं चर्ममुण्डे शवगमनहते भीषणे भमवक्त्रे
क्रां क्रीं क्रुं क्रोधमुर्तीर्विकृत-कुचमुखे रौद्र द्रंष्ट्रांकराले।।
कं कं कंकाल धारीभ्रमसी जगदीदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती
हुंकार चोच्चरन्ती प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।२।।
ह्रां ह्रीं ह्रुं रुद्ररुपे त्रिभुवनमिते पाशहस्ते त्रिनेत्रे
रां रिं रुं रंगरंगे किलिकिलीतरवे शुलहस्ते प्रचण्डे।
लां लीं लुं लम्बजिव्हे हसती कहकहा - शुद्धघोराट्टहासे
कंकाली काल रात्री: प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।३।।
घ्रां घ्रीं घ्रुं घोररुपे घघघघघटिते धुर्धुरारावघोरे
निर्मांसी शुष्कजंघे पिबतु नरवसाधुम्र धुम्रायमाने।
ॐ द्रां द्रीं द्रुं द्रावयन्ती सकलभुवी तथा यक्ष गन्धर्वनागान्
क्षां क्षीं क्षुं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।४।।
भ्रां भ्रीं भ्रुं चण्डगर्वे हरिहरनमिते रुद्र मुर्तीश्च कीर्ती
श्चन्द्रादित्यौ च कर्णौ जडमुकुडशिरोवेष्टीता केतुमाला
स्त्रक् सर्वौ चोरगेन्द्रौ शशिकीरणनिभा तारकाहार कण्ठा
सा देवी दिव्य मुर्ती:प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।५।।
खं खं खं खड्ग हस्ते वरकनकनिभे सुर्यकान्ते स्वतेजो
विधुज्ज्वालाबलिनां नवनिशितमहाकृत्तिका दक्षिणे च।
वामे हस्ते कपालं वरविमलसुरापुरितं धारयन्ती
सा देवी दिव्यमुर्ती:प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।६।।
हुं हुं फट् काल रात्री रु रु सुरमथनी धुम्रमारी कुमारी
ह्रां ह्रीं ह्रुं हत्तीशोरौक्षपितु किलकिला शब्द अट्टा ट्टहासे।
हा हा भूत प्रसुते किलकिलतमुखा कलियन्ती ग्रसन्ती
हुंकार चोच्चरन्ती प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।७।।
भ्रींगी काली कपालीपरिजन सहिते चण्डीचामुण्डनित्वा
रों रों रों कार नित्ये शशिकरधवले काल कुटे दुरन्ते।
हुं हुं हुं कारकारी सुरगणनमिते कालकारी विकारी
वश्ये त्रैलोक्यकारी प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।८।।
वन्दे दण्ड प्रचण्डा डमरु रुणिमणिष्टोपटंकार घण्टै
र्न्रित्यन्ती याट्टपातैरुट पट विभवै र्निर्मला मंत्रमाला।
सुक्षौ कुक्षौ वहन्ती खरखरितसखा चार्चिनि प्रेत माला
मुच्चैस्तैश्चाट्टहासे धुरुं रितखा चर्म मुण्डा चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।९।।
त्वं ब्राह्मी त्वं च रौद्री शवशिखीगमना त्वं च देवी कुमारी
त्वं चक्री चक्रहस्ता घुरघुरितरवा त्वं वराह स्वरुपा।
रौद्रे त्वं चर्ममुण्डा सकलभुवी परे संस्थिते स्वर्गमार्गे
पाताले शैलभ्रींगे हरिहरनमिते देवी चण्डे नमस्ते।।१०।।
रक्ष त्वं मुण्उधारि गिरिवरविवरे निर्झरे पर्वते वा
संग्रामे शत्रुमध्ये विशविशभविके संकटे कुत्सिते वा
व्याघ्रे चौरे च सर्पेप्युदधिभुवि तथा वहीमध्ये च दुर्गे
रक्षेत् सा दिव्यमुर्ती: प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डा प्रचण्डा।।११।।
इत्येवं बिजमन्त्रै: स्तवनमति शिवं पातकं व्याधीनाशं,
प्रतयक्षं दिव्य रुपं ग्रहणमथनं मर्दनं शाकीनिनाम्
इत्येवं वेगवेगं सकलभयहरं मन्त्रशक्तिश्च नित्यं
मन्त्राणां स्तोत्रकंय: पठती स लभते प्रार्थितां मन्त्र सिद्धीम्।।१२।।