About The Best Astrologer In Muzaffarnagar, India -Consultations by Astrologer Consultations by Astrologer - Pandit Ashu Bahuguna Skills : Vedic Astrology , Horoscope Analysis , Astrology Remedies , Prashna kundli IndiaMarriage Language: Hindi Experience : Exp: 35 Years Expertise: Astrology , Business AstrologyCareer Astrology ,Court/Legal Issues , Property Astrology, Health Astrology, Finance Astrology, Settlement , Education http://shriramjyotishsadan.in Mob +919760924411
गुरुवार, 18 सितंबर 2025
About The Best Astrologer In Muzaffarnagar
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Skills : Vedic Astrology , Horoscope Analysis , Astrology Remedies , Prashna kundli IndiaMarriage Language: Hindi
Experience : Exp: 35 Years
Expertise: Astrology , Business AstrologyCareer Astrology ,Court/Legal Issues , Property Astrology, Health Astrology, Finance Astrology,
Settlement , Education
Astrologer Shandeley Ji Offering Following Astrology Services in Muzaffarnagar
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Mob- 9760924411
Consultations by Astrologer
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Consultations by Astrologer - Pandit Ashu Bahuguna
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बुधवार, 17 सितंबर 2025
India's best astrologer,
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पंडित आशु बहुगुणा को किसी विस्तृत परिचय की आवश्यकता नहीं है। वे वैदिक ज्योतिष की सभी शाखाओं के लिए सबसे अधिक खोजे जाने वाले ज्योतिषियों में से एक हैं।" पंडित आशु बहुगुणा को वैदिक ज्योतिष और वे पाश्चात्य ज्योतिष में कार्य कर रहे है। वे एक वैदिक ज्योतिषी है। जिन्हें 35 वर्षों से अधिक का व्यावहारिक अनुभव है। और उन्होंने दुनिया भर के 40,000 से अधिक लोगों की कुंडलियाँ देखी हैं। दुनिया भर के लोगों द्वारा स्वीकृत उनकी कार्यप्रणाली को प्रमाणित करते है।
वह वर्चुअल और प्रत्यक्ष परामर्श के लिए आपके आस-पास हमेशा एक भरोसेमंद और अच्छे ज्योतिषी है। इसलिए नोएडा/दिल्ली/भारत में सर्वश्रेष्ठ ज्योतिषी की तलाश करने की कोई आवश्यकता नहीं है। एक अच्छा ज्योतिषी भौगोलिक सीमाओं के बावजूद अच्छा बना रहेगा।
वह हमेशा नवमांश कुंडली (डी-9 चार्ट) से सभी विश्लेषण करने में विश्वास करते है। न कि केवल लग्न (9डी-1) चार्ट के आधार पर। एक उदित राशि दो घंटे तक अपरिवर्तित रहती है। लेकिन नवमांश डी-9 इन दो घंटों के दौरान कई बार बदल सकता है। हर बार जब नवमांश चार्ट बदलता है। तो प्रत्येक घर में सितारों की स्थिति बदल जाएगी। इसलिए, सटीक ज्योतिषीय भविष्यवाणियों के लिए नवमांश कुंडलिनी पर विचार करना आवश्यक है। किसी को यह पता होना चाहिए कि जन्म समय की सटीकता किसी भी ज्योतिष पढ़ने का सार है। यदि व्यक्ति के पास सटीक जन्म समय नहीं है। तो समाधान हैं।
लोगों ने सर्वश्रेष्ठ ज्योतिषीय भविष्यवाणियों और समाधानों के लिए उन पर विश्वास किया है।
हम आपकी विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप निम्नलिखित प्रकार के परामर्श प्रदान करते हैं।
India's best astrologer, Muzaffarnagar .up based astrologer Pandit Ashu Bahuguna Ji provides appointment based online consultation worldwide. He provides astrology consultation in Mumbai, Pune, Nagpur, Patna, Jaipur, Bhubaneshwar, Odisha, Guwahati, Raipur, Indore, Bhopal and all major cities of India.He has expertise in matters related to marriage, relationship, career, children, legal matters and medical Pandit Ashu Bahuguna Astrology. Pay the consultation fee to talk to the astrologer for accurate predictions and life-changing guidance. And make an appointment. He has changed the lives of many people around the world.
We offer the following types of consultations, each tailored to your specific needs.
Consultations by Astrologer Pandit Ashu Bahuguna
(Online Astrological Services)
मंगलवार, 16 सितंबर 2025
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मंगलवार, 2 सितंबर 2025
चौंतीसा यंत्र या 34
चौंतीसा यंत्र या 34 यंत्र एक जादुई वर्ग (मैजिक स्क्वायर) है जिसमें संख्याओं का योग किसी भी दिशा (आड़ी, खड़ी या विकर्ण) में करने पर 34 आता है, और इसे नकारात्मक ऊर्जा, नज़र दोष, और बाधाओं को दूर करने के साथ-साथ शांति और समृद्धि लाने के लिए उपयोग किया जाता है। इसे घर, मंदिर या ऑफिस में रखा जा सकता है, या कवच के रूप में पहना जा सकता है। यह एक ज्योतिषीय और वास्तु-आधारित यंत्र है।
रविवार, 13 अप्रैल 2025
नवदुर्गोपनिषत् उक्तं चाथर्वणरहस्ये ।
शनिवार, 1 फ़रवरी 2025
अगस्त्य ऋषि कृत सरस्वती स्तोत्रम्
अगस्त्य ऋषि कृत सरस्वती स्तोत्रम्
देवी सरस्वती को समर्पित एक पवित्र मंत्र है, जिन्हें ज्ञान, बुद्धि और शिक्षा के रूप में पूजा जाता है। माना जाता है कि इस स्तोत्रम् की रचना महान ऋषि अगस्त्य ने की थी, जिन्हें सबसे प्रतिष्ठित संतों में से एक माना जाता है। अगस्त्य सरस्वती स्तोत्रम् का जाप भक्तों द्वारा देवी सरस्वती का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ज्ञान, बुद्धि और उनके शैक्षणिक और व्यावसायिक कार्यों में सफलता प्राप्त करने के लिए किया जाता है।


अगस्त्य ऋषि कृत सरस्वती स्तोत्रम् 








या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृताया वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा पूजितासा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥1॥
दोर्भिर्युक्ता चतुर्भिः स्फटिकमणिनिभैरक्षमालान्दधानाहस्तेनैकेन पद्मं सितमपि च शुकं पुस्तकं चापरेण।भासा कुन्देन्दुशङ्खस्फटिकमणिनिभा भासमानाऽसमानासा मे वाग्देवतेयं निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना॥2॥
सुरासुरसेवितपादपङ्कजाकरे विराजत्कमनीयपुस्तका।विरिञ्चिपत्नी कमलासनस्थितासरस्वती नृत्यतु वाचि मे सदा॥3॥
सरस्वती सरसिजकेसरप्रभातपस्विनी सितकमलासनप्रिया।घनस्तनी कमलविलोललोचनामनस्विनी भवतु वरप्रसादिनी॥4॥
सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि।विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा॥5॥
सरस्वति नमस्तुभ्यं सर्वदेवि नमो नमः।शान्तरूपे शशिधरे सर्वयोगे नमो नमः॥6॥
नित्यानन्दे निराधारे निष्कलायै नमो नमः।विद्याधरे विशालाक्षि शुद्धज्ञाने नमो नमः॥7॥
शुद्धस्फटिकरूपायै सूक्ष्मरूपे नमो नमः।शब्दब्रह्मि चतुर्हस्ते सर्वसिद्ध्यै नमो नमः॥8॥
मुक्तालङ्कृतसर्वाङ्ग्यै मूलाधारे नमो नमः।मूलमन्त्रस्वरूपायै मूलशक्त्यै नमो नमः॥9॥
मनो मणिमहायोगे वागीश्वरि नमो नमः।वाग्भ्यै वरदहस्तायै वरदायै नमो नमः॥10॥
वेदायै वेदरूपायै वेदान्तायै नमो नमः।गुणदोषविवर्जिन्यै गुणदीप्त्यै नमो नमः॥11॥
सर्वज्ञाने सदानन्दे सर्वरूपे नमो नमः।सम्पन्नायै कुमार्यै च सर्वज्ञे नमो नमः॥12॥
योगानार्य उमादेव्यै योगानन्दे नमो नमः।दिव्यज्ञान त्रिनेत्रायै दिव्यमूर्त्यै नमो नमः॥13॥
अर्धचन्द्रजटाधारि चन्द्रबिम्बे नमो नमः।चन्द्रादित्यजटाधारि चन्द्रबिम्बे नमो नमः॥14॥
अणुरूपे महारूपे विश्वरूपे नमो नमः।अणिमाद्यष्टसिद्ध्यायै आनन्दायै नमो नमः॥15॥
ज्ञानविज्ञानरूपायै ज्ञानमूर्ते नमो नमः।नानाशास्त्रस्वरूपायै नानारूपे नमो नमः॥16॥
पद्मदा पद्मवंशा च पद्मरूपे नमो नमः।परमेष्ठ्यै परामूर्त्यै नमस्ते पापनाशिनि॥17॥
महादेव्यै महाकाल्यै महालक्ष्म्यै नमो नमः।ब्रह्मविष्णुशिवायै च ब्रह्मनार्यै नमो नमः॥18॥
कमलाकरपुष्पा च कामरूपे नमो नमः।कपालि कर्मदीप्तायै कर्मदायै नमो नमः॥19॥
सायं प्रातः पठेन्नित्यं षण्मासात् सिद्धिरुच्यते।चोरव्याघ्रभयं नास्ति पठतां शृण्वतामपि॥20॥
इत्थं सरस्वतीस्तोत्रम् अगस्त्यमुनिवाचकम्।सर्वसिद्धिकरं नॄणां सर्वपापप्रणाशणम्॥21॥
॥ इति श्री अगस्त्यमुनिप्रोक्तं सरस्वतीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
॥ सरस्वतीरहस्योपनिषत् ॥
॥ सरस्वतीरहस्योपनिषत् ॥
(हिन्दी भावार्थ सहित)
प्रतियोगिविनिर्मुक्तब्रह्मविद्यैकगोचरम् ।अखण्डनिर्विकल्पं तद्रामचन्द्रपदं भजे ॥''भावार्थ -जो प्रतिस्पर्धा से मुक्त, निरपेक्ष का एकमात्र दृश्यमान ज्ञान है। मैं उन भगवान रामचन्द्र के उन अखण्ड एवं अमोघ चरण कमलों की पूजा करता हूँ।

ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठित-माविरावीर्म एधि ॥ वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मेप्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि ऋतं वदिष्यामिसत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु अवतु मामवतु वक्तार-मवतु वक्तारम् ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

भावार्थ ---ओम, से ईश्वर मेरी वाणी मेरे मन में स्थापित हो जाए, ।मेरा मन मेरी वाणी में स्थापित हो,स्वयं प्रकट आत्मा का ज्ञान मुझमें विकसित हो,वेदों के ज्ञान का अनुभव करने के लिए मेरा मन और वाणी सहारा बनें,जो मैंने (वेदों से) सुना है वह मात्र दिखावा न हो...लेकिन दिन-रात अध्ययन से जो मिलता है, उसे याद रखना चाहिए।मैं दिव्य सत्य के बारे में बोलता हूं,मैं परम सत्य के बारे में बोलता हूं,वह मेरी रक्षा करें,वह उपदेशक की रक्षा करे,वह मेरी रक्षा करें,वह गुरु की रक्षा करे, वह गुरु की रक्षा करे,ॐ शांति! शांति! शांति!
ॐ !मेरे अन्दर शान्ति हो।मेरे वातावरण में शान्ति हो।मेरे ऊपर काम कर रही शक्तियों में शान्ति हो ॥


हरिः ॐ |ऋषयो ह वै भगवन्तमाश्वलायनं संपूज्य पप्रच्छुःऋषियों ने आदर के साथ पूज्य अश्वलायन से पूछा
केनोपायेन तज्ज्ञानं तत्पदार्थावभासकम् ।यदुपासनया तत्त्वं जानासि भगवन्वद ॥ १ ॥

सभी को प्रकाशित करने वाला ज्ञान किस प्रकार प्राप्त किया जाता है । आप किस का ध्यान कर कर सत्य जानते हैं ।
सरस्वतीदशश्लोक्या सऋचा बीजमिश्रया ।स्तुत्वा जप्त्वा परां सिद्धिमलभं मुनिपुङ्गवाः ॥ २ ॥

सर्वश्रेष्ठ ज्ञानीयो! में सरस्वती जी की इन दस श्लोकों व बीज मन्त्र के द्वारा उपासना करके परम सिद्धीयां प्राप्त करता हूं ।
ऋषयः ऊचुः ।कथं सारस्वतप्राप्तिः केन ध्यानेन सुव्रत ।महासरस्वती येन तुष्टा भगवती वद ॥ ३ ॥

ऋषियों ने पूछा । किस ध्यान के द्वारा सरस्वति जी की प्राप्ति संभव है । महान एवं पावन सरस्वति जी को किस प्रकार प्रसन्न किया जा सकता है॥
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स होवाचाश्वलायनः ।अस्य श्रीसरस्वतीदशश्लोकीमहामन्त्रस्य ।अश्वलायन दस श्लोकों के इस मन्त्र के वारे में बोले ।

अहमाश्वलायन ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । श्रीवागीश्वरी देवता । यद्वागिति बीजम् । देवीं वाचमिति शक्तिः ।

मैं अश्वलायन ऋषि । अनुष्टुप् छन्द । श्रीवागीश्वरी देवता । यद्वग बीज । देवी वाचम शक्ति ।
ॐ प्रणो देवीति कीलकम् । विनियोगस्तत्प्रीत्यर्थे ।श्रद्धा मेधा प्रज्ञा धारणा वाग्देवता महासरस्वतीत्येतैरङ्गन्यासः ॥ॐ प्रणो देवि कीलक । मन्त्र का अनुप्रयोग देवि को प्रसन्न करना । श्रद्धा, बुद्धि, ज्ञान, स्मृति तथा धारणा के द्वारा वाणी की देवी महासरस्वती जी का आह्वान ॥

ध्यान नीहारहारघनसारसुधाकराभां कल्याणदां कनकचम्पकदामभूषाम् ।उत्तुङ्गपीनकुचकुम्भमनोहराङ्गीं वाणीं। नमामि मनसा वचसा विभूत्यै ॥ १ ॥

प्रचुरता के साथ वाणी के संयम को प्राप्त करने के लिए मैं सरस्वती जी अभिवादन करता हूं , जो बर्फ़, मोती, कपूर तथा चन्द्रमा के समान प्रकाशित हैं; जो शुभ फलों को प्रदान करने वाली हैं; जो सुनहरे चंपक पुष्प पुंज की माला पहने हैं; मन को हर लेने वाली हैं ॥
ॐ प्रणो देवीत्यस्य मन्त्रस्य भरद्वाज ऋषिः ।गायत्री छन्दः । श्रीसरस्वती देवता । प्रणवेन बीजशक्तिः कीलकम् ।इष्टार्थे विनियोगः । मन्त्रेण न्यासः ॥

ॐ प्रणो देवि । भरद्वाज ऋषि । गायत्री छन्द । श्रीसरस्वती देवता । ॐ बीजशक्ति कीलक । मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए इस मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।
या वेदान्तार्थतत्त्वैकस्वरूपा परमार्थतः ।नामरूपात्मना व्यक्ता सा मां पातु सरस्वति ॥
जिनका स्वभाव वेदान्त का सार है, जो परम अर्थ हैं, जो नाम और रूप में प्रकट हुई हैं – वो सरस्वति मेरी रक्षा करें ॥
ॐ प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वाजेनीवती ।धीनामवित्र्यवतु ॥ १ ॥

ॐ ! माँ सरस्वति, पुष्टिकारक पदार्थों को देने वाली, विचारों की रक्षक , वो हमारी हमेशा रक्षा करें ॥
आ नो दिव इति मन्त्रस्य अत्रिरृषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । सरस्वती देवता ।ह्रीमिति बीजशक्तिः कीलकम् । इष्टार्थे विनियोगः । मन्त्रेण न्यासः ॥
आ नो देवि । अत्रि ऋषि । त्रिष्टुप छन्द । श्रीसरस्वती देवता । ह्री बीजशक्ति कीलक ।मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए इस मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।
या साङ्गोपाङ्ग वेदेषु चतुर्श्वेकैव गीयते ।अद्वैता ब्रह्मणः शक्तिः सा मां पातु सरस्वती ॥१

जिन अकेली की चारों वेदों तथा वेदागों में स्तुति की गई है । एक मात्र ब्रह्मण शक्ति – वो सरस्वति मेरी रक्षा करें ॥
ह्रीं आ नो दिवो बृहतः पर्वतादा सरस्वती यजतागं तु यज्ञम् ।हवं देवी जुजुषाणा घृताची शग्मां नो वाचमुषती श्रुणोतु ॥ २ ॥

ह्रीं, स्वर्ग से,विशाल बाद्लों से, पवित्र सरस्वती हमारे यज्ञ में आऎं । हमारे आवाहन को कृपापूर्वक सुनें, जल की देवी स्वेच्छा से हमारी अर्चना सुनें ॥
पावका न इति मन्त्रस्य । मधुच्छन्द ऋषिः । गायत्री छन्दः । सरस्वती देवता ।श्रीमिति बीजशक्तिः कीलकम् । इष्टार्थे विनियोगः । मन्त्रेण न्यासः ॥
पावक मन्त्र । मधुच्छन्द ऋषि । गायत्री छन्द । सरस्वती देवता । श्री बीजशक्ति कीलक । मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए इस मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।
या वर्णपदवाक्यार्थस्वरूपेणैव वर्तते ।अनादिनिधनानन्ता सा मां पातु सरस्वती ॥
जो अकेले का अक्षर, शब्द, वाक्य तथा अर्थ में अस्तित्व है । जिनका न आरम्भ है और न हि अन्त – वो सरस्वति मेरी रक्षा करें ॥
श्रीं पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती ।यज्ञं वष्टु धिया वसुः ॥ ३ ॥

श्री, पवित्र करने वाली सरस्वती, पुष्टिकारक पदार्थों को देने वाली, ज्ञान का भंडार - वो हमारे यज्ञ को स्वीकार करें ॥
चोदयत्रीति मन्त्रस्य मधुच्छन्द ऋषिः । गायत्री छन्दः । सरस्वती देवता ।ब्लूमिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ॥
चोदयत्री मन्त्र । मधुच्छन्द ऋषि । गायत्री छन्द । सरस्वती देवता । ब्लू बीजशक्ति कीलक । मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।
अध्यात्ममधिदैवं च देवानां सम्यगीश्वरी ।प्रत्यगास्ते वदन्ती या सा मां पातु सरस्वती ॥
जो मेरे, देवताओं के , देवों की अधिपति उनके अन्दर-बाहर बसने वाली – वो सरस्वती मेरी रक्षा करें ॥
ब्लूं चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् । यज्ञं दधे सरस्वती ॥ ४ ॥

ब्लूं सत्य के प्रेणना स्वरूप, उत्तम बुद्धि को जगाने वाली, सरस्वती यज्ञ स्वीकार करें ॥
महो अर्ण इति मन्त्रस्य ।मधुच्छन्द ऋषिः । गायत्री छन्दः । सरस्वती देवता ।सौरिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।
महो अर्ण मन्त्र । मधुच्छन्द ऋषि । गायत्री छन्द । सरस्वती देवता । सौर बीजशक्ति कीलक । मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।
अन्तर्याम्यात्मना विश्वं त्रैलोक्यं या नियच्छति ।रुद्रादित्यादिरूपस्था यस्यामावेश्यतां पुनः । ध्यायन्ति सर्वरूपैका सा मां पातु सरस्वती ।
वो जो आंतरिक नियंत्रक की तरह तीनों विश्वों पर राज्य करती हैं । जो रुद्र, सूर्य तथा अन्य का रूप धरती हैं – वो सरस्वती मेरी रक्षा करें ॥
सौः महो अर्णः सरस्वती प्रचेतयति केतुना ।धियो विश्वा विराजति ॥ ५ ॥

सौ, सरस्वती भव्य रूप से प्रकाशित हैं - विशाल जल परत की तरह - जो ज्ञान दायक तथा विचारों की शक्ती हैं ।
चत्वारि वागिति मन्त्रस्य उचथ्यपुत्रो दीर्घतमा ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । सरस्वती देवता ।ऐमिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।
चत्वारि वाग मन्त्र । उचथ्यपुत्र ऋषि । त्रिष्टुप छन्द । सरस्वती देवता । ऐम बीजशक्ति कीलक । मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।
या प्रत्यग्दृष्टिभिर्जीवैर्व्यज्यमानानुभूयते ।व्यापिनि ज्ञप्तिरूपैका सा मां पातु सरस्वती ॥
जो प्रकट हो चुकी हैं, जो अन्तर्मुखी ज्ञानियों को दिखती हैं; जो एक ही व्यापक रूप से ज्ञान हैं – वो सरस्वती मेरी रक्षा करें ॥
ऐं चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः ।गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ॥ ६ ॥

ऐं, वाक शक्ति चार समूह तक सीमित है । ये बुद्धिमान ब्राह्मण जानते हैं । गुफाओं में स्थित तीन नहीं हिलते - चौथे के वारे में मनुष्य बताता है ।
यद्राग्वदन्तीति मन्त्रस्य भार्गव ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । सरस्वती देवता ।क्लीमिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।
यद्राग्वदन्त मन्त्र । भार्गव ऋषि । त्रिष्टुप छन्द । सरस्वती देवता । क्लीम बीजशक्ति कीलक । मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।
नामजात्यादिमिर्भेदैरष्टधा या विकल्पिता ।निर्विकल्पात्मना व्यक्ता सा मां पातु सरस्वती ॥
जिसकी आठ नाम रूप में कल्पना हुई है, सामान्य व तुल्य रूप में । वो समस्त रूप में प्रकट – वो सरस्वती मेरी रक्षा करें ॥
क्लीं यद्वाग्वदन्त्यविचेतनानि राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा ।चतस्र ऊर्जं दुदुहे पयांसि क्व स्विदस्याः परमं जगाम ॥ ७ ॥

क्लीं, जो जड़ वस्तुओं की भाषा हैं; देवों की अधिपति; शांति से विचरने वाली । दूध को शक्ति की धारा देने वाली; कौन है जो उनकी सर्वोच्च रूप से वच सका है ?
देवीं वाचमिति मन्त्रस्य भार्गव ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । सरस्वती देवता ।सौरिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।
देवीं वाचम मन्त्र । भार्गव ऋषि । त्रिष्टुप छन्द । सरस्वती देवता । सौरत बीजशक्ति कीलक । मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।
व्यक्ताव्यक्तगिरः सर्वे वेदाद्या व्याहरन्ति याम् ।सर्वकामदुघा धेनुः सा मां पातु सरस्वती ॥
जिसके बारे में वेद तथा सभी अन्य पृथक व अपृथक वर्णन चर्चा करते हैं । - वह गाय जो सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करती है , वो सरस्वती मेरी रक्षा करें ॥
सौः देवीं वाचमजनयन्त देवास्ता विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुपसुष्टुतैतु ॥८ ॥

सौ देवी, ब्रह्म वाणी स्वरूपा! वे सभी प्राणियों की भाषा; सभी शक्तियों तथा स्वादिष्ट पेय पदार्थ को देने वाली वह गाय - हमें स्तुति करने की शक्ति प्रदान करें ॥
उत त्व इति मन्त्रस्य बृहस्पतिरृशिः । त्रिष्टुप्छन्दः । सरस्वती देवता ।समिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।
उत त्व मन्त्र । बृहस्पति ऋषि । त्रिष्टुप छन्द । सरस्वती देवता । सम बीजशक्ति कीलक । मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।
यां विदित्वाखिलं बन्धं निर्मथ्याखिलवर्त्मना ।योगी याति परं स्थानं सा मां पातु सरस्वती ॥
जिसको जानने से सभी बन्धन से मुक्ति मिल जाती है,जिसको जानने बाला,उस परम आवास (मोक्ष)के सभी पथों से परिचित हो जाता है । - वो सरस्वती मेरी रक्षा करें ॥
सं उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम् ।उतो त्वस्मै तन्वं १ विसस्रे जायेव पत्य उशती सुवासाः ॥ ९ ॥

स, यद्यपि देखने से, वाणी देखी नहीं जाती, जो सुन के भी सुनी नहीं जाती; केवल जिसके सामने वे स्वयं को प्रकट करती हैं, जैसे अच्छे से वस्त्रों से ढकी पत्नी अपने पुरुष के सामने ॥
अम्बितम इति मन्त्रस्य गृत्समद ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । सरस्वती देवता ।ऐमिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।
अम्बितम मन्त्र । गृत्समद ऋषि । अनुष्टुप छन्द । सरस्वती देवता । ऐम बीजशक्ति कीलक । मन्त्र के द्वारा अभिषेक ।।
नामरूपात्मकं सर्वं यस्यामावेश्य तं पुनः ।ध्यायन्ति ब्रह्मरूपैका सा मां पातु सरस्वती ॥
जो उनके नाम तथा रूपों की स्तुति करते हैं, जिनका ध्यान करते हैं । जिसका ब्राह्मण स्वरूप है - वो सरस्वती मेरी रक्षा करें ॥
ऐंं अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वती ।अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि ॥ १० ॥

ऐंं सबसे प्रिय माता! सर्वश्रेष्ठ नदी! महानतम देवी ! सरस्वती! हमारे पास आपकी प्रशंसा करने की शक्ति नहीं है - माता! हमको शक्ति दो ॥
चतुर्मुखमुखाम्भोजवनहंसवधूर्मम ।मानसे रमतां नित्यं सर्वशुक्ला सरस्वती ॥ १ ॥

हंस के ऊपर विराजित चार मुखों बाली देवी । वो सरस्वती मेरे मन में नित्य वास करें ।
नमस्ते शारदे देवि काश्मीरपुरवासिनी ।त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे ॥ २ ॥

शारदा देवि को नमस्कार, जो कश्मीर की रहने वाली हैं । उनकी मैं हमेशा प्राथना करता हूं - मुझको योग्य ज्ञान अर्पण करें ।
अक्षसूत्राङ्कुशधरा पाशपुस्तकधारिणी ।मुक्ताहारसमायुक्ता वाचि तिष्ठतु मे सदा ॥ ३ ॥

जिनके हाथ में माला, अंकुश, फंदा तथा पुस्तक हैं । जिन्होने मोती की माला पहनी है, मेरी वाणी में सदा वास करें ।।
कम्बुकण्ठी सुताम्रोष्ठी सर्वाभरणभूषिता ।महासरस्वती देवी जिह्वाग्रे संनिविश्यताम् ॥ ४ ॥

शंख के समान गरदन वाली; गहरे लाल अधरों वाली; सभी प्रकार के आभरणों वाली; महासरस्वती देवी! मेरी जीह्वा पर वास करें ।
या श्रद्धा धारणा मेधा वाग्देवी विधिवल्लभा ।भक्तजिह्वाग्रसद्ना शमादिगुणदायिनी ॥ ५ ॥

श्रद्धा, धारणा, ज्ञान आप हैं, वाणी की देवी, ब्रह्मा की पत्नी; भक्तों की जीह्वा पर वास करने वाली, सभी गुणों जैसे बुद्धि का संयम, को देने वाली।
नमामि यामिनीनाथलेखालङ्कृतकुन्तलाम् ।भवानीं भवसन्तापनिर्वापणसुधानदीम् ॥ ६ ॥

भवानी, हम आपको नमन करते हैं! जिसकी लेटें नवचन्द्र को अंलकृत करती हैं । आप अमृत की वो धारा है जो संसार की ह्र तपन का नाश करती है ।।
यः कवित्वं निरातङ्कं भक्तिमुक्ती च वाञ्छति ।सोऽभ्यैर्च्यैनां दशश्लोक्या नित्यं स्तौति सरस्वतीम् ॥ ७ ॥

जो दोषरहित कवित्व का उपहार पाना चाहते हैं, जो भक्ति तथा मुक्ति की अभिलाषी हैं। इन द्स श्लोकों से नित्य सरस्वती की स्तुति करें ।
तस्यैवं स्तुवतो नित्यं समभ्यर्च्य सरस्वतीम् ।भक्तिश्रद्धाभियुक्तस्य षण्मासात्प्रत्ययो भवेत् ॥ ८ ॥

जो इस प्रकार हमेशा सरस्वती की स्तुति करता है । एवं जिसमें समर्पण व विश्वास है, छः महीनों में सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।
ततः प्रवर्तते वाणी स्वेच्छया ललिताक्षरा ।गद्यपद्यात्मकैः शब्दैरप्रमेयैर्विवक्षितैः ॥ ९ ॥

वो स्वाभाविक रूप से विद्वान होता है ।तथा सत्य रूप में गद्य व पद्य को उत्प्न्न करता है।
अश्रुतो बुध्यते ग्रन्थः प्रायः सारस्वतः कविः ।इत्येवं निश्चयं विप्राः सा होवाच सरस्वती ॥ १० ॥

सारस्वत कवि द्वारा यह अनसुना व्याख्यान । सत्व सरस्वती की व्याख्या करता है।
आत्मविद्या मया लब्धा ब्रह्मणैव सनातनी ।ब्रह्मत्वं मे सदा नित्यं सच्चिदानन्दरूपतः ॥ ११ ॥ [इस श्लोक के बाद का हिन्दी अनुवाद झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के सौजन्य से हुआ है।]

माता सरस्वती इस प्रकार बोली : ' ब्रह्मा को भी मेरे ही द्वारा शाश्वत आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई थी; बिना किसी रुकावट या बाधा के प्राप्त होने वाला अनन्त सत्य-ज्ञान-आनन्द का चिरस्थायी ब्रह्मत्व मेरी महिमा है।'
प्रकृतित्वं ततः सृष्टं सत्त्वादिगुणसाम्यतः ।सत्यमाभाति चिच्छाया दर्पणे प्रतिबिम्बवत् ॥ १२ ॥

इधर सत-रज-तम तीनों गुणों में पूर्ण-साम्यावस्था बनाये रखने वाली प्रकृति भी मैं ही हूँ, जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्ब झलक उठता है, उसी प्रकार मेरे ही भीतर चित् आकार ले लेता है ।
तेन चित्प्रतिबिम्बेन त्रिविधा भाति सा पुनः ।प्रकृत्यवच्छिन्नतया पुरुषत्वं पुनश्च ते ॥ १३ ॥

उस चित् दर्पण में प्रतिबिंबित होकर एक बार पुनः मैं त्रिगुणात्मिका प्रकृति बन जाती हूँ;और प्रकृति कह कर पहचानी जाने वाली मैं ही वास्तव में पुरुष हूँ !! - (या वह 'तदेकं ब्रह्म' हूँ जो बिना वायु के भी साँस लेने में समर्थ है !)
शुद्धसत्त्वप्रधानायां मायायां बिम्बितो ह्यजः ।सत्त्वप्रधाना प्रकृतिर्मायेति प्रतिपाद्यते ॥ १४ ॥

तब वह ईश्वरीय शक्ति माया जो गर्भस्थ रहती है, जिसमें 'सत्त्व' शासन करता है, परिलक्षित होने लगती है; माया या प्रकृति वह है, जिसमें सत्त्व प्रधान रहता है।
सा माया स्ववशोपाधिः सर्वज्ञस्येश्वरस्य हि ।वश्यमायत्वमेकत्वं सर्वज्ञत्वं च तस्य तु ॥ १५ ॥

यह माया एक गुणवाचक शब्द है- जो सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पूर्ण अधीनस्थ रहती है; क्योंकि माया के ऊपर उनका प्रभुत्व एवं अन्तर्यामित्व एकमात्र ब्रह्म एवं शक्ति की अभेदता में सत्य है।
सात्त्विकत्वात्समष्टित्वात्साक्षित्वाज्जगतामपि ।जगत्कर्तुमकर्तुं वा चान्यथा कर्तुमीशते ॥ १६ ॥

सत्व से गठित समस्त जीव सामूहिक रूप से वस्तुतः इस जगत-प्रपंच का एक तमाशबीन या दर्शक मात्र है; ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण देव ) ही ईश्वर हैं, जो इस विश्व-ब्रह्माण्ड के 'कर्तुम-अकर्तुम या अन्यथा कर्तुम' की शक्ति रखते हैं, 'सर्वज्ञता ' या सब कुछ जान लेने वाला 'अन्तर्यामित्व' उनका स्वभाव है।
यः स ईश्वर इत्युक्तः सर्वज्ञत्वादिभिर्गुणैः ।शक्तिद्वयं हि मायया विक्षेपावृत्तिरूपकम् ॥ १७ ॥

माया में दो प्रकार की शक्तियाँ हैं, विक्षेप शक्ति और आवरण शक्ति; पहले वाली शक्ति के कारण ही समस्त सूक्ष्म एवं स्थूल जगत व्यक्त होता है !
विक्षेपशक्तिर्लिङ्गादिब्रह्माण्डान्तं जगत्सृजेत् ।अन्तर्दृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयोः ॥ १८ ॥

माया की दूसरी शक्ति (आवरण शक्ति) द्रष्टा और दृश्य के बीच आवरण डाल कर भीतर में (अन्तः प्रकृति में) बहुत बड़ा अंतर (gulf) उत्पन्न कर देती है; और बाहर (बाह्य प्रकृति) में सृष्टि (मनुष्य) और स्रष्टा (ब्रह्म) (या कारण और कार्य) बीच बहुत गहरी खाई को उत्पन्न करती है। यह माया ही अंतहीन ब्रह्माण्डीय प्रवाह का कारण बनती है।
आवृणोत्यपरा शक्तिः सा संसारस्य कारणम् ।साक्षिणः पुरतो भातं लिङ्गदेहेन संयुतम् ॥ १९ ॥

अविद्या माया सूक्ष्म शरीर को आत्मा के साथ संयुक्त करने के लिए, साक्षी के प्रकाश में प्रकट हो जाती है; और वहाँ आत्मा और मन सहवर्ती होकर अद्भुत जीव रूप में प्रतीयमान होने लगते हैं।
चितिच्छाया समावेशाज्जीवः स्याद्व्यावहारिकः ।अस्य जीवत्वमारोपात्साक्षिण्यप्यवभासते ॥ २० ॥जो शक्ति आवरण डाल देती है, उसी के साथ साक्षी के प्रकाश को अपने ऊपर आरोपित करने से जीव का जीवपना (Jivahood) प्रकाशित होने लगता है; फिर पार्थक्य (द्रष्टा-दृश्य विवेक) के प्रकाशित होते ही वह जीवपना भी मिट जाता है।

आवृतौ तु विनष्टायां भेदे भातेऽपयाति तत् ।तथा सर्गब्रह्मणोश्च भेदमावृत्य तिष्ठति ॥ २१ ॥

ठीक उसी प्रकार, जब ब्रह्म उस शक्ति के साथ, जो ब्रह्माण्ड से इसकी भिन्नता के ऊपर परदा डाल देती है, से तादात्म्य कर लेता है तो वही ब्रह्म नाना रूपों (mutations) में तब्दील होकर भासित होने लगता है।
या शक्तिस्त्वद्वशाद्ब्रह्म विकृतत्वेन भासते ।अत्राप्यावृतिनाशेन विभाति ब्रह्मसर्गयोः ॥ २२ ॥ यहाँ भी, जब माया की वह सत्ता जो परदा डालने वाली है एक बार गिर जाती है, तो वह भिन्नता जो ब्रह्म और ब्रह्माण्ड के बीच अंतर को धारण करती है, वह विभेद भी दिखाई नहीं देता। भिन्नता सृष्ट जगत में होती है, ब्रह्म में विभेद कभी नहीं होता।

भेदस्तयोर्विकारः स्यात्सर्गे न ब्रह्मणि क्वचित् ।अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् ॥ २३ ॥

क्योंकि सृष्ट जगत में असमानता या भिन्नता तो रहेगा ही, पर ब्रह्म में बिल्कुल विभेद नहीं है। परम सत्ता या ब्रह्म के अस्ति = सत् (being), भाति = चित् (Shining), प्रिय = आनन्द (loving), नाम (name) और रूप ( form) ये पाँच अंश हैं। इनमें से प्रथम तीन अंश ब्रह्म का रूप है, शेष दो जगत् का रूप है।
(संसार की हर वस्तु के पाँच अंश होते है- अस्तित्व, चेतना, प्रियता, रूप और नाम. इन में से पहले तीन परमात्मा की ओर संकेत करते है, और आख़री दो जगत् की ओर. अस्तित्व, चेतना, प्रियता (जिन्हें सत्, चित्, आनंद भी कहा जाता है)
आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ।अपेक्ष्य नामरूपे द्वे सच्चिदानन्दतत्परः ॥ २४ ॥

दृष्टि गोचर जगत में जिस किसी वस्तु या व्यक्ति को देखो उसमें से ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण) के अंतिम दो पहलु (नाम और रूप) को द्रष्टा-दृश्य विवेक प्रयोग के द्वारा अलग कर लो, और उनके पहले वाले तीन पहलु ' अस्ति = सत् (being)', 'भाति = चित् (Shining)', 'प्रिय = आनन्द (loving)' को अपने ह्रदय में अथवा बाहर देखने के लिये, निरंतर तत्पर होकर एकाग्रता (concentration) का अभ्यास करो!
समाधिं सर्वदा कुर्याधृदये वाथ वा बहिः ।सविकल्पो निर्विकल्पः समाधिर्द्विविधो हृदि ॥ २५ ॥

अपने ह्रदय में ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण) के नाम-रूप वाले आकृति (Aspects) के साथ (सविकल्प) अथवा उसे अलग हटाकर (निर्विकल्प) जिस एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है, वह दो प्रकार का होता है -
दृश्यशब्दानुभेदेन स विकल्पः पुनर्द्विधा ।कामाद्याश्चित्तगा दृश्यास्तत्साक्षित्वेन चेतनम् ॥ २६ ॥

वेदान्त इस जगत् को नाम रूपात्मक मानता है। 'वस्तु' (दृश्य या रूप) के अनुरूप 'शब्द' (नाम) ; यह जगत् शब्द और अर्थ रूप है। शब्द और अर्थ को नाम और रूप भी कहा गया है। इच्छा और उसकी धारा या सिलसिला मन के कार्य हैं; इसलिये द्रष्टा मन जब चाहे अपने दृस्य मन को किसी अवतार के नाम-रूप पर एकाग्र रखने का या ध्यान का अभ्यास कर सकता है।
ध्यायेद्दृश्यानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः ।असङ्गः सच्चिदानन्दः स्वप्रभो द्वैतवर्जितः ॥ २७ ॥

इस एकाग्रता (प्रत्याहार-धारणा) का अभ्यास करते करते जब ध्यान गहरा होने पर समाधी होती है, उस अवस्था में चेतना (Consciousness) उस नमरूपात्मक ब्रह्म वस्तु के साथ एकात्मता बोध का अनुभव करने के बाद यह स्वीकार कर लेती है कि " मैं निर्विकार, निष्कलंक हूँ, मैं स्वयं-प्रकाश, उस शब्द (इष्ट के नाम) के अनुरूप द्वैत से रहित सच्चिदानन्द स्वरुप हूँ !"
अस्मीतिशब्दविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः ।स्वानुभूतिरसावेशाद्दृश्यशब्दाद्यपेक्षितुः ॥ २८ ॥

इस प्रकार सविकल्प एकाग्रता जन्य समाधि में ' मैं वह हूँ ' के अनुभव के बाद जब कोई साधक, उससे भी गहरी आत्मानुभूति, वायु रहित स्थान में प्रज्ज्वलित निष्कम्प ज्योत के आनन्द को पाने के लिये ब्रह्म के नाम रूप का परित्याग कर देता है।
निर्विकल्पः समाधिः स्यान्निवातस्थितदीपवत् ।हृदीव बाह्यदेशेऽपि यस्मिन्कस्मिंश्च वस्तुनि ॥ २९ ॥

एकाग्रता चाहे ह्रदय में हो या बाहर हो, शुद्ध ब्रह्म और उसके नाम-रूप में विवेक जाग्रत होते ही वह निर्वात दीप-शिखा की भाँति निर्विकल्प समाधि को प्राप्त हो जाता है।
समाधिराद्यसन्मात्रान्नामरूपपृथक्कृतिः ।स्तब्धीभावो रसास्वादात्तृतीयः पूर्ववन्मतः ॥ ३० ॥

जब परमानन्द का स्वाद मूक-आस्वादन की तरह अनुभूत होने लगता है, तब समय को बिना विराम लिये अच्छी तरह से इन छह प्रकार की एकाग्रता में व्यतीत किया जा सकता है।
एतैः समाधिभिः षड्भिर्नयेत्कालं निरन्तरम् ।देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम् ॥ ३१ ॥

जब शरीर के प्रति अहंभाव (conceit या मिथ्याभिमान) पूरी तरह से समाप्त हो जाता है, और परमात्मा की अनुभूति हो जाती है, तब मन जहाँ जहाँ भी भ्रमण करता है, उसे वहीं वहीं पर अमरत्व की अनुभूति होती है। हृदय की वक्रता सीधी हो जाती है
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयः ।क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ३२ ॥जब आत्मा (अहं नहीं) को उस परमात्मा का दर्शन प्राप्त हो जाता है, तब सभी संशयों नाश हो जाता है, और सभी प्रक़र के कर्मों का क्षय हो जाता है।

मयि जीवत्वमीशत्वं कल्पितं वस्तुतो नहि ।इति यस्तु विजानाति स मुक्तो नात्र संशयः ॥ ३३ ॥

' जीव स्वरुपतः शिव है ' मनुष्य अपने यथार्थ स्वरुप में ईश्वर ही है, उसके उपर जो ससीम जीवभाव, नश्वर, पापी आदि भाव तो अध्यारोपित हैं- वे वास्तविक नहीं हैं; जो व्यक्ति इसे सचमुच (अपने अनुभूति से जान लेता है) वह व्यक्ति मुक्त हो जाता है; इसमें थोड़ा भी संशय नहीं है। यही ज्ञान का रहस्य है।
ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् ।आविरावीर्म एधि । वेदस्य म आणीस्थः । शृतं मे मा प्रहासीः ।अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि । ऋतं वदिष्यामि ।सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु ।अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!॥ इति सरस्वतीरहस्योपनिषत्समाप्ता ॥

[ ॐ = हे सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मन् ! मेरी वाणी मनमें स्थित हो जाये; अर्थात मेरे मन-मुख दोनों जायें । ऐसा न हो कि मैं वाणी से एक बात बोलूँ, और मन दूसरा ही चिंतन करता रहे, या मन में कोई दूसरा ही भाव रहे, और वाणी द्वारा दूसरा प्रकट करूँ। मेरे संकल्प और वचन दोनों विशुद्ध होकर एक हो जायें। हे ज्योति-स्वरूप परमेश्वर ! आप मेरे लिये प्रकट हो जाइये। -अपनी दैवीमाया का पर्दा मेरे सामने से हटा लीजिये। इस प्रकार परमात्मा से प्रार्थना करने के बाद उपासक अपने मन और वाणी को आदेश देता है- ' हे मन और वाणी ! तुम दोनों मेरे लिये वेदविषयक ज्ञान की प्राप्ति कराने वाले बन जाओ-ताकि तुम्हारी सहायता से मैं वेदविषयक ज्ञान प्राप्त कर सकूँ। मेरा गुरुमुख से सुना हुआ और अनुभव में आया हुआ ज्ञान मेरा त्याग न करे अर्थात वह मुझे सर्वदा स्मरण रहे, मैं उसे कभी न भूलूँ। मेरी इच्छा है कि अध्यन द्वारा मैं दिन और रात एक के दूँ। अर्थात रात-दिन निरन्तर ब्रह्मविद्या का पठन और चिन्तन ही करता रहूँ। मेरी शेष बची आयु का एक क्षण भी व्यर्थ में व्यतीत न होने पाये। मैं अपनी वाणी से सदा ऐसे ही शब्दों का उच्चारण करूँगा; जो सर्वथा उत्तम हो, जिनमें किसी प्रकार का दोष न हो; तथा जो कुछ बोलूँगा, सर्वथा सत्य बोलूँगा --जैसा देखा, सुना और समझा हुआ भाव है, वही भाव वाणीद्वारा प्रकट करूँगा। उसमें किसी प्रकार का छल नहीं करूँगा।'अब पुनः परमात्मा से प्रार्थना करना है -' वे परब्रह्म परमात्मा हम दोनों की रक्षा करें, अर्थात वे मेरी रक्षा करें और मुझे ब्रह्मविद्या सिखाने वाले आचार्य की भी रक्षा करें। जिससे मेरे अध्यन में किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित न हो । आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक -तीनों प्रकार के विघ्नों की सर्वथा निवृत्ति के लिये तीन बार 'शान्तिः' पद का उच्चारण किया गया है। भगवान शान्तिस्वरूप हैं, इसलिये उनके स्मरण से शान्ति निश्चित है ।
(गीता प्रेस में प्रकाशित अनुवाद सहित)
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