Saturday, 2 April 2022

भगवती श्री काली

भगवती श्री काली
परमात्मा की पराशक्ति भगवती निराकार होकर भी देवताओं का दु:ख दूर करने के लिये युग-युग में साकार रूप धारण करके अवतार लेती हैं। उनका शरीर ग्रहण उनकी इच्छा का वैभव कहा गया है। सनातन शक्ति जगदम्बा ही महामाया कही गयी हैं। वे ही सबके मन को खींच कर मोह में डाल देती हैं। उनकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मादि समस्त देवता भी परम तत्त्व को नहीं जान पाते, फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है? वे परमेश्वरी ही सत्त्व, रज और तस- इन तीनों गुणों का आश्रय लेकर समयानुसार सम्पूर्ण विश्व का सृजन, पालन औ संहार किया करती हैं। शिव पुराण के अनुसार उनके काली रूप में अवतार की कथा इस प्रकार है- प्रलयकाल में सम्पूर्ण जगत के जलमग्न होने पर भगवान विष्णु योगनिद्रा में शेषशय्या पर शयन कर रहे थे। उन्हीं दिनों भगवान विष्णु के कानों के मल से दो असुर प्रलयकाल के सूर्य की भाँति तेजस्वी थे। उनके जबड़े बहुत बड़े थे। उनके मुख दाढ़ों के कारण ऐसे विकराल दिखायी देते थे, मानो वे सम्पूर्ण विश्व को खा डालने के लिये उद्यम हों। उन दोनों ने भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न हुए कमल के ऊपर विराजमान ब्रह्मा जी को मारने के लिये तैयार हो गये। 
ब्रह्माजी ने देखा कि ये दोनों मेरे ऊपर आक्रमण करना चाहते हैं और भगवान विष्णु समुद्र के जल में शेषशय्या पर सो रहे हैं, तब उन्होंने अपनी रक्षा के लिये महामाया परमेश्वरी की स्तुति की और उनसे प्रार्थना किया- 'अम्बिके! तुम इन दोनों असुरों को मोहित करके मेरी रक्षा करो और अजन्मा भगवान नारायण को जगा दो।'
मधु और कैटभ के नाश के लिये ब्रह्मा जी के प्रार्थना करने पर सम्पूर्ण विद्याओं की अधिदेवी जगज्जननी महाविद्या काली फाल्गुन शुक्ला द्वादशी को त्रैलोक्य-मोहिनी शक्ति के रूप में पहले आकाश में प्रकट हुईं। तदनन्तर आकाशवाणी हुई 'कमलासन ब्रह्मा डरो मत। युद्ध में मधु-कैटभ का विनाश करके मैं तुम्हारे संकट दूर करूँगी।' फिर वे महामाया भगवान श्रीहरि के नेत्र, मुख, नासिका और बाहु आदि से निकल कर ब्रह्मा जी के सामने आ खड़ी हुईं। उसी समय भगवान विष्णु भी योगनिद्रा से जग गये। फिर देवाधिदेव भगवान् विष्णु ने अपने सामने मधु और कैटभ दोनों दैत्यों को देखा। उन दोनों महादैत्यों के साथ अतुल तेजस्वी भगवान विष्णु का पाँच हज़ार वर्षों तक घोर युद्ध हुआ। अन्त में महामाया के प्रभाव से मोहित होकर उन असुरों ने भगवान विष्णु से कहा कि 'हम तुम्हारे युद्ध से अत्यन्त प्रभावित हुए। तुम हमसे अपनी इच्छानुसार वर माँग लो।'
भगवान विष्णु ने कहा- 'यदि तुम लोग मुझ पर प्रसन्न हो तो मुझे यह वर दो कि तुम्हारी मृत्यु मेरे हाथों से हो।' उन असुरों ने देखा कि सारी पृथ्वी एकार्णव जल में डूबी है। यदि हम सूखी धरती पर अपने मृत्यु का वरदान इन्हें देते हैं, तब यह चाह कर भी हम को नहीं मार पायेंगे और हमें वरदान देने का श्रेय भी प्राप्त हो जायगा। अत: उन दोनों ने भगवान विष्णु से कहा कि 'तुम हमको ऐसी जगह मार सकते हो, जहाँ जल से भीगी हुई धरती न हो।' 'बहुत अच्छा' कहकर भगवान् विष्णु ने अपना परम तेजस्वी चक्र उठाया और अपनी जाँघ पर उनके मस्तकों को रखकर काट डाला। इस प्रकार भगवती महाकाली की कृपा से उन दैत्यों की बुद्धि भ्रमित हो जाने से उनका अन्त हुआ।
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ॐ दुं दुर्गायै नमःगुप्त-सप्तशती।

ॐ दुं दुर्गायै नमः
गुप्त-सप्तशती।
सात सौ मन्त्रों की ‘श्री दुर्गा सप्तशती, का पाठ करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी इसका पाठ है। यह ‘गुप्त-सप्तशती’ प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेछु साधकों के लिए अमोघ फल-प्रद है।
इसके पाठ का क्रम इस प्रकार है। प्रारम्भ में ‘कुञ्जिका-स्तोत्र’, उसके बाद ‘गुप्त-सप्तशती’, तदन्तर ‘स्तवन‘ का पाठ करे।
कुञ्जिका-स्तोत्र
।।पूर्व-पीठिका-ईश्वर उवाच।।
श्रृणु देवि, प्रवक्ष्यामि कुञ्जिका-मन्त्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेन चण्डीजापं शुभं भवेत्‌॥1॥
न वर्म नार्गला-स्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्‌।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासं च न चार्चनम्‌॥2॥
कुञ्जिका-पाठ-मात्रेण दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्‌।
अति गुह्यतमं देवि देवानामपि दुर्लभम्‌॥ 3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्व-योनि-वच्च पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्‌।
पाठ-मात्रेण संसिद्धिः कुञ्जिकामन्त्रमुत्तमम्‌॥ 4॥
अथ मंत्र
ॐ श्लैं दुँ क्लीं क्लौं जुं सः ज्वलयोज्ज्वल ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल प्रबल-प्रबल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा
॥ इति मंत्रः॥
इस ‘कुञ्जिका-मन्त्र’ का यहाँ दस बार जप करे। इसी प्रकार ‘स्तव-पाठ’ के अन्त में पुनः इस मन्त्र का दस बार जप कर ‘कुञ्जिका स्तोत्र’ का पाठ करे।
।।कुञ्जिका स्तोत्र मूल-पाठ।।
नमस्ते रुद्र-रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि।
नमस्ते कैटभारी च, नमस्ते महिषासनि॥
नमस्ते शुम्भहंत्रेति, निशुम्भासुर-घातिनि।
जाग्रतं हि महा-देवि जप-सिद्धिं कुरुष्व मे॥
ऐं-कारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रति-पालिका॥
क्लीं-कारी कामरूपिण्यै बीजरूपा नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्ड-घाती च यैं-कारी वर-दायिनी॥
विच्चे नोऽभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि॥
धां धीं धूं धूर्जटेर्पत्नी वां वीं वागेश्वरी तथा।
क्रां क्रीं श्रीं मे शुभं कुरु, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा।।
ॐ ॐ ॐ-कार-रुपायै, ज्रां-ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि, शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥
ह्रूं ह्रूं ह्रूं-काररूपिण्यै ज्रं ज्रं ज्रम्भाल-नादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवानि ते नमो नमः॥7॥
।।मन्त्र।।
अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव, आविर्भव, हं सं लं क्षं मयि जाग्रय-जाग्रय, त्रोटय-त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा॥
म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुञ्जिकायै नमो नमः।।
सां सीं सप्तशती-सिद्धिं, कुरुष्व जप-मात्रतः॥
इदं तु कुञ्जिका-स्तोत्रं मंत्र-जाल-ग्रहां प्रिये।
अभक्ते च न दातव्यं, गोपयेत् सर्वदा श्रृणु।।
कुंजिका-विहितं देवि यस्तु सप्तशतीं पठेत्‌।
न तस्य जायते सिद्धिं, अरण्ये रुदनं यथा॥
। इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्‌ । 
गुप्त-सप्तशती
ॐ ब्रीं-ब्रीं-ब्रीं वेणु-हस्ते, स्तुत-सुर-बटुकैर्हां गणेशस्य माता।
स्वानन्दे नन्द-रुपे, अनहत-निरते, मुक्तिदे मुक्ति-मार्गे।।
हंसः सोहं विशाले, वलय-गति-हसे, सिद्ध-देवी समस्ता।
हीं-हीं-हीं सिद्ध-लोके, कच-रुचि-विपुले, वीर-भद्रे नमस्ते।।१
ॐ हींकारोच्चारयन्ती, मम हरति भयं, चण्ड-मुण्डौ प्रचण्डे।
खां-खां-खां खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रकिते, उग्र-रुपे स्वरुपे।।
हुँ-हुँ हुँकांर-नादे, गगन-भुवि-तले, व्यापिनी व्योम-रुपे।
हं-हं हंकार-नादे, सुर-गण-नमिते, चण्ड-रुपे नमस्ते।।२
ऐं लोके कीर्तयन्ती, मम हरतु भयं, राक्षसान् हन्यमाने।
घ्रां-घ्रां-घ्रां घोर-रुपे, घघ-घघ-घटिते, घर्घरे घोर-रावे।।
निर्मांसे काक-जंघे, घसित-नख-नखा, धूम्र-नेत्रे त्रि-नेत्रे।
हस्ताब्जे शूल-मुण्डे, कुल-कुल ककुले, सिद्ध-हस्ते नमस्ते।।३
ॐ क्रीं-क्रीं-क्रीं ऐं कुमारी, कुह-कुह-मखिले, कोकिलेनानुरागे।
मुद्रा-संज्ञ-त्रि-रेखा, कुरु-कुरु सततं, श्री महा-मारि गुह्ये।।
तेजांगे सिद्धि-नाथे, मन-पवन-चले, नैव आज्ञा-निधाने।
ऐंकारे रात्रि-मध्ये, स्वपित-पशु-जने, तत्र कान्ते नमस्ते।।४
ॐ व्रां-व्रीं-व्रूं व्रैं कवित्वे, दहन-पुर-गते रुक्मि-रुपेण चक्रे।
त्रिः-शक्तया, युक्त-वर्णादिक, कर-नमिते, दादिवं पूर्व-वर्णे।।
ह्रीं-स्थाने काम-राजे, ज्वल-ज्वल ज्वलिते, कोशिनि कोश-पत्रे।
स्वच्छन्दे कष्ट-नाशे, सुर-वर-वपुषे, गुह्य-मुण्डे नमस्ते।।५
ॐ घ्रां-घ्रीं-घ्रूं घोर-तुण्डे, घघ-घघ घघघे घर्घरान्याङि्घ्र-घोषे।
ह्रीं क्रीं द्रूं द्रोञ्च-चक्रे, रर-रर-रमिते, सर्व-ज्ञाने प्रधाने।।
द्रीं तीर्थेषु च ज्येष्ठे, जुग-जुग जजुगे म्लीं पदे काल-मुण्डे।
सर्वांगे रक्त-धारा-मथन-कर-वरे, वज्र-दण्डे नमस्ते।।६
ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम-नमिते, गगन गड-गडे गुह्य-योनि-स्वरुपे।
वज्रांगे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातंग-रुढे।।
स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले।
किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते।।७
ॐ हुँ हुँ हुंकार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे।
सु-सिद्धयर्थे सु-सिद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, सर्व-भक्षे प्रचण्डे।।
जूं सः सौं शान्ति-कर्मेऽमृत-मृत-हरे, निःसमेसं समुद्रे।
देवि, त्वं साधकानां, भव-भव वरदे, भद्र-काली नमस्ते।।८
ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं, त्वमसि बहुचरा, त्वं वराह-स्वरुपा।
त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी, त्वमसि च जननी, त्वं कुमारी महेन्द्री।।
ऐं ह्रीं क्लींकार-भूते, वितल-तल-तले, भू-तले स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे, हरि-हर-भुवने, सिद्ध-चण्डी नमस्ते।।९
हं लं क्षं शौण्डि-रुपे, शमित भव-भये, सर्व-विघ्नान्त-विघ्ने।
गां गीं गूं गैं षडंगे, गगन-गति-गते, सिद्धिदे सिद्ध-साध्ये।।
वं क्रं मुद्रा हिमांशोर्प्रहसति-वदने, त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे।
हां हूं गां गीं गणेशी, गज-मुख-जननी, त्वां महेशीं नमामि।।१०
स्तवन
या देवी खड्ग-हस्ता, सकल-जन-पदा, व्यापिनी विशऽव-दुर्गा।
श्यामांगी शुक्ल-पाशाब्दि जगण-गणिता, ब्रह्म-देहार्ध-वासा।।
ज्ञानानां साधयन्ती, तिमिर-विरहिता, ज्ञान-दिव्य-प्रबोधा।
सा देवी, दिव्य-मूर्तिर्प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।१
ॐ हां हीं हूं वर्म-युक्ते, शव-गमन-गतिर्भीषणे भीम-वक्त्रे।
क्रां क्रीं क्रूं क्रोध-मूर्तिर्विकृत-स्तन-मुखे, रौद्र-दंष्ट्रा-कराले।।
कं कं कंकाल-धारी भ्रमप्ति, जगदिदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती-
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।२
ॐ ह्रां ह्रीं हूं रुद्र-रुपे, त्रिभुवन-नमिते, पाश-हस्ते त्रि-नेत्रे।
रां रीं रुं रंगे किले किलित रवा, शूल-हस्ते प्रचण्डे।।
लां लीं लूं लम्ब-जिह्वे हसति, कह-कहा शुद्ध-घोराट्ट-हासैः।
कंकाली काल-रात्रिः प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।३
ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोर-रुपे घघ-घघ-घटिते घर्घराराव घोरे।
निमाँसे शुष्क-जंघे पिबति नर-वसा धूम्र-धूम्रायमाने।।
ॐ द्रां द्रीं द्रूं द्रावयन्ती, सकल-भुवि-तले, यक्ष-गन्धर्व-नागान्।
क्षां क्षीं क्षूं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।४
ॐ भ्रां भ्रीं भ्रूं भद्र-काली, हरि-हर-नमिते, रुद्र-मूर्ते विकर्णे।
चन्द्रादित्यौ च कर्णौ, शशि-मुकुट-शिरो वेष्ठितां केतु-मालाम्।।
स्त्रक्-सर्व-चोरगेन्द्रा शशि-करण-निभा तारकाः हार-कण्ठे।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।५
ॐ खं-खं-खं खड्ग-हस्ते, वर-कनक-निभे सूर्य-कान्ति-स्वतेजा।
विद्युज्ज्वालावलीनां, भव-निशित महा-कर्त्रिका दक्षिणेन।।
वामे हस्ते कपालं, वर-विमल-सुरा-पूरितं धारयन्ती।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।६
ॐ हुँ हुँ फट् काल-रात्रीं पुर-सुर-मथनीं धूम्र-मारी कुमारी।
ह्रां ह्रीं ह्रूं हन्ति दुष्टान् कलित किल-किला शब्द अट्टाट्टहासे।।
हा-हा भूत-प्रभूते, किल-किलित-मुखा, कीलयन्ती ग्रसन्ती।
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।७
ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं कपालीं परिजन-सहिता चण्डि चामुण्डा-नित्ये।
रं-रं रंकार-शब्दे शशि-कर-धवले काल-कूटे दुरन्ते।।
हुँ हुँ हुंकार-कारि सुर-गण-नमिते, काल-कारी विकारी।
त्र्यैलोक्यं वश्य-कारी, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।८
वन्दे दण्ड-प्रचण्डा डमरु-डिमि-डिमा, घण्ट टंकार-नादे।
नृत्यन्ती ताण्डवैषा थथ-थइ विभवैर्निर्मला मन्त्र-माला।।
रुक्षौ कुक्षौ वहन्ती, खर-खरिता रवा चार्चिनि प्रेत-माला।
उच्चैस्तैश्चाट्टहासै, हह हसित रवा, चर्म-मुण्डा प्रचण्डे।।९
ॐ त्वं ब्राह्मी त्वं च रौद्री स च शिखि-गमना त्वं च देवी कुमारी।
त्वं चक्री चक्र-हासा घुर-घुरित रवा, त्वं वराह-स्वरुपा।।
रौद्रे त्वं चर्म-मुण्डा सकल-भुवि-तले संस्थिते स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे हरि-हर-नमिते देवि चण्डी नमस्ते।।१०
रक्ष त्वं मुण्ड-धारी गिरि-गुह-विवरे निर्झरे पर्वते वा।
संग्रामे शत्रु-मध्ये विश विषम-विषे संकटे कुत्सिते वा।।
व्याघ्रे चौरे च सर्पेऽप्युदधि-भुवि-तले वह्नि-मध्ये च दुर्गे।
रक्षेत् सा दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।११
इत्येवं बीज-मन्त्रैः स्तवनमति-शिवं पातक-व्याधि-नाशनम्।
प्रत्यक्षं दिव्य-रुपं ग्रह-गण-मथनं मर्दनं शाकिनीनाम्।।
इत्येवं वेद-वेद्यं सकल-भय-हरं मन्त्र-शक्तिश्च नित्यम्।
मन्त्राणां स्तोत्रकं यः पठति स लभते प्रार्थितां मन्त्र-सिद्धिम्।।१२
चं-चं-चं चन्द्र-हासा चचम चम-चमा चातुरी चित्त-केशी।
यं-यं-यं योग-माया जननि जग-हिता योगिनी योग-रुपा।।
डं-डं-डं डाकिनीनां डमरुक-सहिता दोल हिण्डोल डिम्भा।
रं-रं-रं रक्त-वस्त्रा सरसिज-नयना पातु मां देवि दुर्गा।।१३
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मां काली तंत्र

मां काली तंत्र
*दस महाविद्याओं में काली प्रथम हैं। कालिका पुराण के अनुसार एक बार देवताओं ने हिमालय पर जाकर महामाया का स्तवन किया। पुराणकार के अनुसार यह स्थान मतंगमुनि का आश्रम था। स्तुति से प्रसन्न होकर भगवती ने मतंग-वनिता बनकर देवताओं को दर्शन दिया और पुछा कि 'तुमलोग किस की स्तुति कर रहे हो।' तत्काल उनके श्रीविग्रह से काले पहाड के समान वर्ण वाली दिव्य नारी का प्राकट्य हुआ। उस महा तेजस्विनी ने स्वयं ही देवताओं की ओर से उत्तर दिया कि 'ये लोग मेरा ही स्तवन कर रहे हैं।' वे गाढ काजल के समान कृष्णा थी, इसलिए उनका नाम 'काली' पडा। महाकाली प्रलय काल से सम्बद्ध होने से अतएव कृष्णवर्णा है। वे शव पर आरुढ इसीलिए हैं कि शक्तिविहीन विश्व मृत ही हैं। शत्रुसंहारक शक्ति भयावह होती हैं, इसीलिए काली की मूर्ति भयावह हैं। शत्रु-संहार के बाद विजयी योद्धा का अट्टहास भीषणता के लिए होता हैं, इसलिए महाकाली हँसती रहती हैं।*
*माता काली शत्रु-संहारक है, वह कभी भक्तो को निराश नही करती।*
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मां नील तारा

मां नील तारा
*वास्तव में काली को ही नीलरुपा होने से 'तारा' भी कहाँ गया हैं। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी हैं कि वह सर्वदा मोक्ष देनेवाली-तारनेवाली है, इसलिए तारा हैं। अनायास ही वे वाक् प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिए 'नीलसरस्वती' भी हैं। भयंकर विपत्तियों में रक्षण कर कृपा प्रदान करती हैं, इसलिए वे उग्रतारिणी या उग्रतारा हैं।तारा और काली यद्यपि एक ही हैं तथापि बृहन्नील तन्त्रादि ग्रन्थों में उनके विशेष रुप की चर्चा हैं। हयग्रीव का वध करने के लिए देवी को नील-विग्रह प्राप्त हुआ। शवरुप शिव पर प्रत्यालीढ मुद्रा में भगवती आरुढ हैं और उनकी नीले रंग की आकृति है तथा नीलकमलों की भाँति तीन नेत्र तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग है। व्याघ्रचर्म से विभूषित उन देवी के कण्ठ में मुण्डमाला हैं। वे उग्रतारा हैं, पर भक्तों पर कृपा करने के लिए उनकी तत्परता अमोघ हैं। इस कारण वह महाकरुणामयी है। तारा तन्त्र में कहाँ गया हैं-*
*समुद्र मथने देवि कालकूट समुपस्थितम्।।*
*समुद्रमंथन के समय जब कालकूट विष निकला तो बिना किसी क्षोभ के उस हलाहल विष को पीनेवाले शिव ही अक्षोभ्य हैं और उनके साथ तारा विराजमान हैं। शिव-शक्ति संगम तन्त्र में अक्षोभ्य शब्द का अर्थ महादेव ही निर्दिष्ट हैं। अक्षोभ्य को द्रष्टा ऋषि शिव कहा गया है। अक्षोभ्य शिव ऋषि को मस्तक पर धारण करनेवाली तारा तारिणी अर्थात् तारण करनेवाली हैं। उनके मस्तक पर स्थित पिंगल वर्ण उग्र जटा का रहस्य भी अद्भूत हैं। यह फैली हुई उग्र पीली जटाएं सूर्य की किरणों की प्रतिरुपा हैं। यही एकजटा हैं। इस प्रकार अक्षोभ्य एवं पिंगल जटा धारिणी उग्रतारा एकजटा के रुप में पूजित हुई। वही उग्रतारा शव के ह्रदय पर चरण रख कर उस शव को शिव बना देने वाली नीलसरस्वती हो गई।*
*मातर्नीलसरस्वती प्रणमतां सौभाग्य सम्पत्प्रदे।*
*प्रत्यालीढपदस्थिते शिवह्रदि स्मेराननाम्भोरुहे।।*
*शब्दकल्पद्रुम के अनुसार तीन रुपों वाली तारा, एकजटा और नीलसरस्वती एक ही तारा के त्रिशक्ति स्वरुप है।*
*नीलया वाक्प्रदा चेति तेन नीलसरस्वती।*
*तारकत्वात् सदा तारा सुखमोक्षप्रदायिनी।।*
*उग्रापत्तारिणी यस्मादुग्रतारा प्रकीर्तिता।*
*पिंगोग्रैकजटायुक्ता सूर्यशक्तिस्वरुपिणी।।*
*सर्व प्रथम महर्षि वसिष्ठ ने तारा की उपासना की। इसलिए तारा को 'वसिष्ठाराधिता तारा' भी कहा जाता हैं। वसिष्ठ ने पहले वैदिक रीति से आराधना की, जो सफल ना हो सकी। उन्हें अदृश्य शक्ति से संकेत मिला कि वे तान्त्रिक पद्धति के द्वारा जिसे 'चीनाचार' कहा गया हैं, उपासना करें। ऐसा करने से ही वसिष्ठ को सिद्धि मिली।*
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श्री कमलात्मिका (लक्ष्मी) तंत्र

श्री कमलात्मिका (लक्ष्मी) तंत्र
(१), एकाक्षर मन्त्र-श्रीं
विनियोग-: अस्य श्री कमला मंत्रस्य भृगुऋषिः।। निवृच्छंद।। श्रीलक्ष्मीर्देवता।। मम् धनाप्तये जपे विनियोगः।।
ऋष्यादि न्यास
भृगुऋषये नमः शिरसि।।१।।
निवृच्छंदसे नमो मुखे।।२।।
श्री लक्ष्मी देवतायै नमो हृदि।।३।।
विनियोग नमः सर्वांगे।।४।।
करन्यास-
ॐ श्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः।।१।।
ॐ श्रीं तर्जनीभ्यां नमः।।२।।
ॐ श्रूं मध्यमाभ्यां नमः।।३।।
ॐ श्रैं अनामिकाभ्यां नमः।।४।।
ॐ श्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।।५।।
ॐ कलतलकर पृष्ठाभ्यां नमः।।६।।
ह्रदयादि षडंग न्यास
ॐ श्रां ह्रदयाय नमः।।१।।
ॐ श्रीं शिरसे स्वाहा।।२।।
ॐ श्रूं शिखायै वषट्।।३।।
ॐ श्रैं कवचाय हुं।।४।।
ॐ श्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्।।५।।
ॐ श्रः अस्त्राय फट् ।।६।।
ध्यान मन्त्र-
(श्री महालक्ष्मी का कोई भी ध्यान मंत्र कर सकते हैं।)
कान्तया कांचन सान्निभां हिमगिरि प्रख्यैश्चतुर्भिर्गजे हस्तोत्क्षिप्त हिरण्मया मृत घटै रासिच्यमानां श्रियम्। बिभ्राणां वरमब्जयुग्ममभयं हस्तैः किरीटोजज्वलां।
क्षौमाबद्ध नितंब बिंब लसिता वंदेऽरविन्द स्थिताम्।।
इस तरह ध्यान कर पीठ स्थापन पूजन करें। यंत्र-स्थापन पूजन और यंत्राधिष्ठित देवताओं का आवरण पूजन करें। धूप-दिप-निराजन-नैवेद्य अर्पण करके, देवी का शुद्ध चित्त से ध्यान करते हुए मन्त्र जप आरंभ करें। यह एकाक्षर 'श्रीं' मन्त्र का पुरश्चरण बारह लाख (१२) मन्त्र का हैं।
चतुर्क्षर लक्ष्मीबीज मन्त्र ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं।।
बारह लाख मन्त्र का पुरश्चरण हैं।
दशाक्षर कमला मन्त्र
ॐ नमः कमलवासिन्यौ स्वाहा।।
इस मन्त्र का दस लाख जप करें।
श्री महालक्ष्मी मन्त्र
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्ये स्वाहा।।
इस मन्त्र का एक लाख जप करें।
द्वादशाक्षर महालक्ष्मी मन्त्र
ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौः जगत्यप्रसूत्यै नमः।।
इस मन्त्र का पुरश्चरण १२ लाख मन्त्र का हैं।
श्री लक्ष्मी मन्त्र
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं लक्ष्मीरागच्छागच्छ मम मंदिरे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा।।
इस मन्त्र का नित्य १०८ जप करें। १०८ दिन तक अविरत जप करने से धन-वैभव की प्राप्ति होती हैं।
श्री सिद्धलक्ष्मी मन्त्र
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं सिद्ध लक्ष्म्यै नमः।।
इस मन्त्र का पुरश्चरण एक लाख मन्त्र हैं।
श्री ज्येष्ठा लक्ष्मी मन्त्र
ऐं ह्रीं श्रीं ज्येष्ठालक्ष्मि स्वयंभुवे ह्रीं ज्येष्ठायै नमः।।
इस मन्त्र का १ लाख जप करें।
वसुधा लक्ष्मी मन्त्र
ॐ ग्लौं श्रीं अन्नं मह्यन्नंमे देह्यन्नाधि पतये ममान्नं प्रदापय स्वाहा श्रीं ग्लौं ॐ।।
एक लाख मन्त्र का पुरश्चरण हैं।
श्री लक्ष्मी मन्त्र (अन्य)
ॐ श्रीं ह्रीं ऐं महालक्ष्म्यै कमलधारिण्यै सिंह वाहिन्यै स्वाहा।।
पुरश्चरण एक लाख मन्त्र।
नित्य जप श्री लक्ष्मी मन्त्र 
ॐ श्रीं नमः।।
ॐ ह्रीं श्रीं नमः।।
नित्य श्रीसुक्त पाठ भी माता महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए अमोघ हैं।
9760924411

नवरात्रि में प्रतिदिन दुर्गा के सिद्ध बीज मंत्रों का जप करने का विधान ।

नवरात्रि में प्रतिदिन दुर्गा के सिद्ध बीज मंत्रों का जप करने का विधान ।
ब्राह्म मुहूर्त में 4 बजे से लेकर प्रातः 7 बजे तक इन मंत्रों की जप साधना करने पर ये मंत्र पूर्ण सिद्ध हो जाते हैं। इन मंत्रों को प्रतिदिन 1100 बार रुद्राक्ष या लाल चंदन की माला से ही जप करना चाहिए । नौ दिनों कुल 9 हजार मंत्रों के जप का विधान है।
प्रतिदिन दसवां अंश या जो भी संभव हो,मंत्रों की आहुति का यज्ञ करने चाहिए । यज्ञ करने से जप का फल शीघ्र मिलने लगता हैं। और कुछ ही समय में माता रानी भक्त की सभी मनोकामनाएं पूरी भी कर देती हैं ।

1. शैलपुत्री : ह्रीं शिवायै नम:। 
स्तवन मंत्र-
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥
ध्यान-मूलाधार चक्र। 
    शैलपुत्री देवी पार्वती का ही स्वरूप हैं। जो सहज भाव से पूजन करने से शीघ्र प्रसन्न हो जाती हैं। और भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करती हैं। कलश स्थापना के समय पीले वस्त्र पहनें और माँ को (आरोग्यता हेतु गाय के शुद्ध घी का भोग), सफ़ेद मिष्ठान व सफ़ेद पुष्प चढ़ाकर माँ की आरती करें।

2. ब्रह्मचारिणी :  ह्रीं श्री अम्बिकायै नम:। 
 स्तवन मंत्र-
दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
ध्यान चक्र-स्वाधिष्ठान।
    देवी को पंचामृत से स्नान कराएं, फिर अक्षत, कुमकुम, सिन्दुर, अर्पित करें। सफेद और सुगंधित फूल, इसके अलावा कमल या गुड़हल का फूल भी देवी मां को चढ़ाएं। (पूर्ण आयु प्राप्ति हेतु मिश्री), सफ़ेद मिठाई से मां का भोग लगाएं आरती करें एवं हाथों में एक फूल लेकर उनका ध्यान करें और प्रार्थना करते हुए मंत्र बोलें।

3. चन्द्रघण्टा :  ऐं श्रीं शक्तयै नम:। 
स्तवन मंत्र-
पिंडजप्रवरारूढा, चंडकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं, चंद्रघंटेति विश्रुता।।
ध्यान चक्र-मणिपुर।
   शुद्ध जल और पंचामृत से स्नान करायें। अलग-अलग तरह के फूल,अक्षत, कुमकुम, सिन्दूर,अर्पित करें।(धन वैभव आनंद दुखनाश हेतु केसर-दूध से बनी मिठाइयों या खीर का भोग) लगाएं। मां को सफेद कमल,लाल गुडहल और गुलाब की माला अर्पण करें और प्रार्थना करते हुए मंत्र जप करें।

4. कूष्मांडा : ऐं ह्री देव्यै नम:। 
स्तवन मंत्र-
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे॥
ध्यान चक्र-अनाहत।
    नवरात्र में चौथे दिन कलश की पूजा कर माता कूष्मांडा को प्रणाम करें। देवी को पूरी श्रद्धा से फल,फूल, धूप, गंध, भोग चढ़ाएं। पूजन के पश्चात (मनोबल व सद्बुद्धि,उचित निर्णय लेने की क्षमता को विकसित करने हेतु मां कुष्मांडा के दिव्य रूप को मालपुए का भोग) लगाकर किसी भी दुर्गा मंदिर में ब्राह्मणों को इसका प्रसाद देना चाहिए। पूजा के बाद अपने से बड़ों को प्रणाम कर प्रसाद वितरित करें और खुद भी प्रसाद ग्रहण करें।

5. स्कंदमाता : ह्रीं क्लीं स्वमिन्यै नम:। 
स्तवन मंत्र-
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥
ध्यान चक्र-विशुद्ध
     श्रृंगार केस्तवन मंत्र-
चंद्र हासोज्जवलकरा शार्दूलवर वाहना|
कात्यायनी शुभंदद्या देवी दानवघातिनि|| लिए खूबसूरत रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। स्कंदमाता और भगवान कार्तिकेय की पूजा विनम्रता के साथ करनी चाहिए। पूजा में कुमकुम,अक्षत,पुष्प,फल आदि से पूजा करें। चंदन लगाएं ,माता के सामने घी का दीपक जलाएं।आज के दिन (आरोग्यता एवं सद्बुद्धि हेतु भगवती दुर्गा को केले का भोग) लगाना चाहिए और यह प्रसाद ब्राह्मण को दे देना चाहिए।

6. कात्यायनी : क्लीं श्री त्रिनेत्रायै नम:।
स्तवन मंत्र-
चंद्र हासोज्जवलकरा शार्दूलवर वाहना|
कात्यायनी शुभंदद्या देवी दानवघातिनि||
ध्यान चक्र-आज्ञा।
पूजा की विधि शुरू करने पर हाथों में सुगन्धित पुष्प लेकर देवी को प्रणाम कर देवी के मंत्र का ध्यान करना चाहिए ।माँ को श्रृंगार की सभी वस्तुएं अर्पित करें। (आकर्षण एवं सौंदर्य हेतु मां कात्यायनी को शहद  बहुत प्रिय है। इसलिए इस दिन मां को भोग में शहद अर्पित करें।)देवी की पूजा के साथ भगवान शिव की भी पूजा करनी चाहिए ।

7. कालरात्रि : क्लीं ऐं श्री कालिकायै नम:। 
स्तवन मंत्र-
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्त शरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोह लताकण्टकभूषणा।
वर्धन मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥
ध्यान चक्र-ललाट।
   कलश पूजन करने के उपरांत माता के समक्ष  दीपक जलाकर रोली, अक्षत,फल,पुष्प आदि से पूजन करना चाहिए। देवी को लाल पुष्प बहुत प्रिय है। इसलिए पूजन में गुड़हल अथवा गुलाब का पुष्प अर्पित करने से माता अति प्रसन्न होती हैं। मां काली के ध्यान  मंत्र का उच्चारण करें,(संकट से रक्षा हेतु माता को  गुड़ का भोग) लगाएं तथा ब्राह्मण को गुड़ दान करना चाहिए।

8. महागौरी : श्री क्लीं ह्रीं वरदायै नम:। 
स्तवन मंत्र-
श्वेते वृषे समरूढा श्वेताम्बराधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।
ध्यान चक्र- सिर में चोटी के स्थान  पर है, 
     अष्टमी तिथि के दिन प्रात:काल स्नान-ध्यान के पश्चात् कलश पूजन के पश्चात् मां की विधि-विधान से पूजा करें। इस दिन मां को सफेद पुष्प अर्पित करें, मां की वंदना मंत्र का उच्चारण करें। आज के दिन (संतान के बाधा निवारण तता उनके सुख हेतु माँ को नारियल का भोग), हलुआ,पूरी,सब्जी,काले चने एवं नारियल का भोग लगाएं। माता रानी को चुनरी अर्पित करें।अगर आपके घर अष्टमी पूजी जाती है। तो आप पूजा के बाद कन्याओं को भोजन भी करा सकते हैं ये शुभ फल देने वाला माना गया है।

9. सिद्धिदात्री :  ह्रीं क्लीं ऐं सिद्धये नम:। 
स्तवन मंत्र-
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि,
सेव्यमाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।
ध्यान चक्र-पिण्ड (शरीर) से बाहर सूक्ष्म शरीर में ।

     सर्वप्रथम कलश की पूजा करके व उसमें स्थापित सभी देवी-देवताओं का ध्यान करना चाहिए। रोली,मोली,कुमकुम,पुष्प चुनरी आदि से माँ की भक्ति भाव से पूजा करें। (मृत्युभय एवं दुर्घटना से रक्षा हेतु तिल से बनी मिठाई का भोग), हलुआ,पूरी, खीर, चने, नारियल से माता को भोग लगाएं। इसके पश्चात माता के मंत्रो का जाप करना चाहिए। इस दिन नौ कन्याओं को घर में भोजन करना चाहिए। कन्याओं की आयु दो वर्ष से ऊपर और 10 वर्ष तक होनी चाहिए और इनकी संख्या कम से कम 9 तो होनी ही चाहिए। नव-दुर्गाओं में सिद्धिदात्री अंतिम है। तथा इनकी पूजा से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। इस तरह से की गई पूजा से माता अपने भक्तों पर तुरंत प्रसन्न होती है। भक्तों को संसार में धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
विशेष नोट- मां के भोग हेतु जो भी भाग निकाला गया हो वह भाग दक्षिणा सहित मंदिर के पुजारी या किसी ब्राह्मण को अवश्य दीजिए।

 शरीर में कुल कितने कमल हैं और पूर्ण परमात्मा शरीर में कहाँ निवास करता है।
      शरीर में कुल कितने कमल हैं। और पूर्ण परमात्मा शरीर में कहाँ निवास करता है।
शरीर में 108 कमलदल याने कि चक्र माने गए है।

उनमें से 7 प्रमुख है। ऐसे तो 112 चक्र है परन्तु बाकी 4 शरीर के बहार है।

और पूर्ण परमात्मा ऐसे तो पूरे शरीर में है क्युकी वो हर कण में है। तो शरीर के भी हर कण में होंगे। बाकी शास्त्रों की माने तो अज्ञा चक्र से उसके अनुभूति शुरु होती है। और आप सहत्र दल चक्र पर उन्हें पूर्ण रूप से समझने लगते है। तो आप कह सकते है। कि पूर्ण परमात्मा का ज्ञान सहस्त्र दल से होता है। तो वहीं उनका निवास होना चाइए।

और यदि आप शरीर के बहार कहीं पूर्ण परमात्मा को ढूंढ़ रहे है। तो आपको साकार ब्रह्म की अवधारणा को देखना होगा, तो उसके हिसाब से हर त्रिदेव का अपना अपना लोक है। और वह तीनों परमात्मा कहे जा सकते है। वैसे ज्यादातर मनुष्य सदा शिव को परमात्मा मानते है तो वो शिवलोक में रहते है।

 पहले दिन पहनें पीले रंग के वस्त्र
नवरात्रि के पहले दिन माता शैलपुत्री की पूजा की जाती है. माना जाता है। कि माता शैलपुत्री को पीला रंग बहुत प्रिय है। इसलिए इस दिन पीले रंग के कपड़े  पहनकर मां की पूजा करने से मां शैलपुत्री प्रसन्न होती हैं।
हरे रंग के वस्त्र धारण करें । दूसरे दिन
नवरात्रि के दूसरे दिन माता ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना होती है। धार्मिक मान्यता है। कि माता ब्रह्मचारिणी को हरा रंग बेहद पसंद है। इसलिए उनकी चुनरी और श्रंगार भी हरे रंग से किया जाता है। भक्तों को उनकी पूजा हरे रंग के कपड़े पहनकर करनी चाहिए।
मां चंद्रघंटा को प्रिय है। भूरा रंग
नवरात्र के तीसरे दिन मां दुर्गा के चंद्रघंटा स्वरूप की पूजा की जाती है। उन्हें भूरा रंग बहुत भाता है। इसलिए उनका वस्त्र विन्यास भी भूरे रंग के कपड़ों से किया जाता है। भक्तों को नवरात्र के तीसरे दिन भूरे रंग के कपड़े  पहनकर मां की पूजा करनी चाहिए।
चौथे दिन पहनें नारंगी रंग के वस्त्र
चौथे दिन मां कुष्मांडा की आराधना की जाती है। मान्यता है। कि उन्हें नारंगी रंग बहुत प्रिय है। उनकी पूजा के दौरान सारा श्रंगार भी नारंगी रंग के कपड़ों से किया जाता है। इसलिए भक्तों को उनकी पूजा नारंगी रंग के कपड़े पहनकर करनी चाहिए इससे माता प्रसन्न होती हैं।

मां स्कंदमाता को सफेद रंग प्रिय
नवरात्रि के पांचवें दिन मां स्कंदमाता की आराधना की जाती है। माना जाता है। कि मां स्कंदमाता को सफेद रंग से बेहद लगाव है। इसलिए उनकी पूजा करते हुए भक्तों को सफेद रंग के कपड़े जरूर पहनने चाहिएं. भक्तों को इस श्रद्धा का फल जरूर मिलता है।
छठे दिन धारण करें लाल रंग के कपड़े
नवरात्रि के छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा का माना जाता है। मान्यता है कि मां कात्यायनी को लाल रंग काफी प्रिय है। इसे देखते हुए उनका श्रंगार भी लाल रंग के कपडों से किया जाता है। भक्तों को भी मां को प्रसन्न करने के लिए छठे दिन लाल रंग के कपड़े पहनने चाहिए।
मां कालरात्रि को पसंद हैं। नीला रंग
सातवें दिन मां कालरात्रि की पूजा की जाती है। उन्हें नीला रंग बहुत प्रिय है। उनकी प्रतिमा के वस्त्रों और पूजा के दूसरे सामानों का रंग भी नीला ही रखा जाता है। भक्तों को उनकी आराधना करते हुए नीले रंग के कपड़े  धारण करने चाहिए।
आठवें दिन पहनें गुलाबी रंग के वस्त्र
नवरात्रि के आठवें दिन मां महागौरी की पूजा की जाती है। उन्हें गुलाबी रंग से बेहद लगाव माना जाता है। इसलिए उन्हें प्रसन्न करने के लिए नवरात्र के आठवें दिन गुलाबी रंग के कपड़े पहनने चाहिए।
आखिरी दिन पहनें जामुनी रंग के कपड़े  
नवरात्रि के नौवें और आखिरी दिन मां सिद्धिदात्री की पूजा-अर्चना की जाती है। माना जाता है। कि जामुनी रंग मां सिद्धिदात्री को बहुत भाता है। इसलिए उनकी पूजा करते समय जामुनी रंग के कपड़े  पहनने चाहिए।
9760924411

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...