Tuesday, 16 November 2021

श्रीबटुक_भैरव दुखहरण दशनाम स्तोत्र

श्रीबटुक_भैरव दुखहरण दशनाम स्तोत्र 
ॐ भ्रं कपाली कुंडली भीमो भैरवो भीमविक्रम: l
व्यालोपवीती कवची शूली शूर शिवप्रिय: ll
एतानि दशनामानि प्रातरुत्थाय य: पठेत l
भैरवी यातना न स्याद भयं क्वापि न जायते भ्रं ॐ।।
प्रातःकाल उठकर इन दस नामों के पाठ से सभी भय समाप्त होते हैं। 
तांत्रोक्त_भैरव_कवच 
श्री भैरव जी की कृपा प्राप्ति हेतु संकल्प लेकर पंचोपचार पूजन करें, सात्त्विक भोग अर्पित करें, फिर 12, 21, 27, 41, 54, 108 पाठ करें। कवच पाठ से शत्रु बाधा, तंत्र बाधा, रोग बाधा, इतर आत्मा बाधा, आपदा नाश होता है। यश, मान, प्रतिष्ठा, कार्यसिद्धि प्राप्त होती है। 

श्रीभैरव जी की उपासना में कुत्ते को भरपेट मीठा भोग प्रसाद अवश्य खिलाना चाहिए।
उपासना हेतु कृष्ण अष्टमी, रविवार प्रशस्त हैं। 
अथ: भैरव कवच पाठ 
ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरु: 
पातु मां बटुको देवो भैरव: सर्वकर्मसु !! 
पूर्वस्याम असितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा 
आग्नेयां च रुरु: पातु दक्षिणे चण्डभैरव: !! 
नैऋत्यां क्रोधन: पातु उन्मत्त: पातु पश्चिमे 
वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात सुरेश्वर:  !! 
भीषणो भैरव: पातु उत्तरस्यां तु सर्वदा 
संहारभैरव: पायात ईशान्यां च महेश्वर: !! 
उर्ध्वं पातु विधाता च पाताले नंदको विभु: 
सद्योजातस्तु मां पायात सर्वतो देवसेवित: !! 
वामदेवो वनांते च वने घोरस्तथावतु ! 
जले तत्पुरुष: पातु स्थले ईशान एव च !! 
डाकिनी पुत्रक: पातु पुत्रान मे सर्वत: प्रभु: 
हाकिनी पुत्रक: पातु दारास्तु लाकिनी सुत: !! 
पातु शाकिनीका पुत्र: सैन्यं वै कालभैरव: 
मालिनी पुत्रक: पातु पशूनश्वान गजांस्तथा !! 
महाकालोsवतु क्षेत्रं श्रियं मे सर्वतो गिरा 
वाद्यं वाद्यप्रिय: पातु भैरवो नित्यसंपदा !!
!! इति तांत्रोक्त भैरव कवच स्तोत्रम !!
शुभप्रभात:-------
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Monday, 15 November 2021

भैरव जी के प्रादुर्भाव की कथा -

भैरव जी के प्रादुर्भाव की कथा -
एक बार भगवान शिव के क्रोधित होने पर काल भैरव की उत्पत्ति हुई। इसलिए भैरव भगवान शिव के स्वरूप हैं। मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को भगवान भैरव का प्रादुर्भाव हुआ। काल भैरव ने ब्रह्माजी के उस मस्तक को अपने नाखून से काट दिया जिससे उन्होंने महादेव शिव का आपमान व अनादर किया। तब ब्रह्म हत्या के पाप को को लेकर हुई आकाशवाणी के तहत ही भगवान काल भैरव काशी में स्थापित हो गए थे। मध्यप्रदेश के उज्जैन में भी कालभैरव के ऐतिहासिक मंदिर है, जो बहुत महत्व का है। पुरानी धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान कालभैरव को यह वरदान है कि भगवान शिव की पूजा से पहले उनकी पूजा होगी। इसलिए काशी अथवा उज्जैन दर्शन के समय कालभैरव के मंदिर जाना अनिवार्य है। तभी महाकाल की पूजा का लाभ आपको मिल पाता है। भगवान भैरव के तीन प्रमुख रूप हैं- बटुक भैरव, महाकाल भैरव और स्वर्णाकर्षण भैरव। इनमें से भक्तगण बटुक भैरव की ही सर्वाधिक पूजा करते हैं। तंत्रशास्त्र में अष्ट भैरव का उल्लेख भी मिलता है- असितांग भैरव, रूद्र भैरव, चंद्र भैरव, क्रोध भैरव, उन्मत भैरव, कपाल भैरव, भीषण भैरव और संहार भैरव। भगवान भैरव की साधना में ध्यान का अधिक महत्व है। इसी को ध्यान में रखकर सात्विक, राजसिक व तामसिक स्वरूपों का ध्यान किया जाता है।
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Sunday, 14 November 2021

श्रीयंत्र दिव्य पूजा-उपासना

 श्रीयंत्र दिव्य पूजा-उपासना 
 रहस्यमय श्रीविद्या के यंत्र स्वरूप को ‘श्रीयंत्र’ या ‘श्रीचक्र’ कहते हैं। यह एक मात्र ऐसा यंत्र है, जो समस्त ब्रह्मांड का प्रतीक है। 'श्री' शब्द का अर्थ लक्ष्मी, सरस्वती, शोभा, संपदा, विभूति से किया जाता है। यह यंत्र ‘श्री विद्या’ से संबंध रखता है। साधक को लक्ष्मी़, संपदा, विद्या आदि की ‘श्री’ देने वाली विद्या को ही ‘श्रीविद्या’ कहा जाता है। श्रीयंत्र को यंत्रराज भी कहा जाता है, इसे यंत्रों में सर्वोत्तम माना गया है। कलियुग में कामधेनु के समान ही है जो साधक को पूर्ण मान-सम्मान और प्रतिष्ठा प्रदान करता है। श्री यंत्र को कल्पवृक्ष भी कहा गया है, जिसके सान्निध्य में सारी कामनाएं पूर्ण होती हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि श्रीयंत्र की अद्भुत शक्ति के कारण इसके दर्शन मात्र से ही लाभ मिलना प्रारम्भ हो जाता है।

     जन्मकुंडली में मौजूद केमद्रुम, दरिद्र, शकट, ऋण, निर्भाग्य, काक आदि विभिन्न कुयोगों को दूर करने में श्रीयंत्र अत्यंत लाभकारी है। यह यंत्र मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष देने वाला है। इसकी कृपा से मनुष्य को अष्ट सिद्धि व नौ निधियों की प्राप्ति हो सकती है। श्री यंत्र के पूजन से सभी रोगों का शमन होता है और शरीर की कांति निर्मल होती है। इसकी पूजा से शक्ति स्तंभन होता है व पंचतत्वों पर विजय प्राप्त होती है।
श्रीयंत्र की कृपा से मनुष्य को धन, समृद्धि, यश, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति होती है। श्री यंत्र के पूजन से रुके हुए कार्य बनते हैं। श्री यंत्र की श्रद्धापूर्वक नियमित रूप से पूजा करने से दुःख दारिद्र्य का नाश होता है। श्री यंत्र की साधना उपासना से साधक की शारीरिक और मानसिक शक्ति पुष्ट होती है। इस यंत्र की पूजा से दस महाविद्याओं की कृपा भी प्राप्त होती है। श्री यंत्र की साधना से आर्थिक उन्नति होती है और व्यापार में सफलता मिलती है।

      श्रीयंत्र अपने आप में रहस्यपूर्ण है। यह सात त्रिकोणों से निर्मित है। मध्य बिन्दु-त्रिकोण के चतुर्दिक् अष्ट कोण हैं। उसके बाद दस कोण तथा सबसे ऊपर चतुर्दश कोण से यह श्रीयंत्र निर्मित होता है। यंत्र ज्ञान में इसके बारे में स्पष्ट किया गया है। 

चतुर्भिः शिवचक्रे शक्ति चके्र पंचाभिः।
नवचक्रे संसिद्धं श्रीचक्रं शिवयोर्वपुः॥

श्रीयंत्र के चतुर्दिक् तीन परिधियां खींची जाती हैं। ये अपने आप में तीन शक्तियों की प्रतीक हैं। इसके नीचे षोडश पद्मदल होते हैं तथा इन षोडश पद्मदल के भीतर अष्टदल का निर्माण होता है, जो कि अष्ट लक्ष्मी का परिचायक है। अष्टदल के भीतर चतुर्दश त्रिकोण निर्मित होते हैं, जो चतुर्दश शक्तियों के परिचायक हैं तथा इसके भीतर दस त्रिकोण स्पष्ट देखे जा सकते हैं, जो दस सम्पदा के प्रतीक हैं। दस त्रिकोण के भीतर अष्ट त्रिकोण निर्मित होते हैं, जो अष्ट देवियों के सूचक कहे गए हैं। इसके भीतर त्रिकोण होता है, जो लक्ष्मी का त्रिकोण माना जाता है। इस लक्ष्मी के त्रिकोण के भीतर एक बिन्दु निर्मित होता है, जो भगवती का सूचक है। साधक को इस बिन्दु पर स्वर्ण सिंहासनारूढ़ भगवती लक्ष्मी की कल्पना करनी चाहिए।

इस प्रकार से श्रीयंत्र २८८२ शक्तियों अथवा देवियों का सूचक है और श्री यंत्र की पूजा इन सारी शक्तियों की समग्र पूजा है।

श्रीयंत्र का रूप ज्योमितीय होता है। इसकी संरचना में बिंदु, त्रिकोण या त्रिभुज, वृत्त, अष्टकमल का प्रयोग होता है। तंत्र के अनुसार श्री यंत्र का निर्माण दो प्रकार से किया जाता है- एक अंदर के बिंदु से शुरू कर बाहर की ओर जो सृष्टि-क्रिया निर्माण कहलाता है और दूसरा बाहर के वृत्त से शुरू कर अंदर की ओर जो संहार-क्रिया निर्माण कहलाता है।

श्री यंत्र में ९ त्रिकोण या त्रिभुज होते हैं जो निराकार शिव की ९ मूल प्रकृतियों के द्योतक हैं। 
मुख्यतः दो प्रकार के श्रीयंत्र बनाए जाते हैं – 
सृष्टि क्रम और संहार क्रम। 
सृष्टि क्रम के अनुसार बने श्रीयंत्र में ४ ऊध्वर्मुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शिव त्रिकोण कहते हैं। ये ५ ज्ञानेंद्रियों के प्रतीक हैं। ५ अधोमुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शक्ति त्रिकोण कहा जाता है। ये प्राण, मज्जा, शुक्र व जीवन के द्योतक हैं। 

संहार क्रम के अनुसार बने श्रीयंत्र में ४ ऊर्ध्वमुखी त्रिकोण शिव त्रिकोण होते हैं और ५ अधोमुखी त्रिकोण शक्ति त्रिकोण होते हैं।

श्री यंत्र में ४ त्रिभुजों का निर्माण इस प्रकार से किया जाता है कि उनसे मिलकर ४३ छोटे त्रिभुज बन जाते हैं जो ४३ देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। मध्य के सबसे छोटे त्रिभुज के बीच एक बिंदु होता है जो समाधि का सूचक है अर्थात यह शिव व शक्ति का संयुक्त रूप है। इसके चारों ओर जो ४३ त्रिकोण बनते हैं वे योग मार्ग के अनुसार यम १०, नियम १०, आसन ८, प्रत्याहार ५, धारणा ५, प्राणायाम ३, ध्यान २ के स्वरूप हैं।
हम कुछ और विस्तार से समझाने का प्रयास करते हैं।
इन त्रिभुजों के बाहर की तरफ ८ कमल दल का समूह होता है जिसके चारों ओर १६ दल वाला कमल समूह होता है। इन सबके बाहर भूपुर है। मनुष्य शरीर की भांति ही श्री यंत्र की संरचना में भी ९ चक्र होते हैं जिनका क्रम अंदर से बाहर की ओर इस प्रकार है- केंद्रस्थ बिंदु फिर त्रिकोण जो सर्वसिद्धिप्रद कहलाता है। फिर ८ त्रिकोण सर्वरक्षाकारी हैं। उसके बाहर के १० त्रिकोण सर्व रोगनाशक हैं। फिर १० त्रिकोण सर्वार्थ सिद्धि के प्रतीक हैं। उसके बाहर १४ त्रिकोण सौभाग्यदायक हैं। फिर ८ कमलदल का समूह दुःख, क्षोभ आदि के निवारण का प्रतीक है। उसके बाहर १६ कमलदल का समूह इच्छापूर्ति कारक है। अंत में सबसे बाहर वाला भाग त्रैलोक्य मोहन के नाम से जाना जाता है। इन ९ चक्रों की अधिष्ठात्री ९ देवियों के नाम इस प्रकार हैं – १. त्रिपुरा २. त्रिपुरेशी ३. त्रिपुरसुंदरी ४. त्रिपुरवासिनी, ५. त्रिपुरात्रि, ६. त्रिपुरामालिनी, ७. त्रिपुरसिद्धा, ८. त्रिपुरांबा और ९. महात्रिपुरसुंदरी।

श्रीयंत्र का निर्माण और उसकी प्राण प्रतिष्ठा ही श्रीयंत्र के प्रभावशाली होने का सबसे बड़ा स्रोत है। वैसे तो आजकल सभी जगह श्रीयंत्र उपलब्ध है परन्तु उनकी विश्वसनियता नहीं है। श्रीयंत्र निर्माण अपने आप में जटिल प्रक्रिया है, और जब तक सही रूप में यंत्र उत्कीर्ण नहीं होता, तब तक उससे सफलता भी संभव नहीं। मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठित श्रीयंत्र के स्थापन से साधक शीघ्र लाभ प्राप्ति की स्थिति को प्राप्त करता है। श्रीयंत्र चाहे ताम्र पत्र पर उत्कीर्ण हो, चाहे पारद निर्मित श्रीयंत्र हो उसके प्राण प्रतिष्ठित होने पर ही उसका लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

श्रीयंत्र निर्माण की जटिल प्रक्रिया से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि आप जब भी घर में श्रीयंत्र स्थापित करें तो प्राण प्रतिष्ठित श्रीयंत्र ही पूर्ण विधि-विधान के साथ स्थापित करें।

साधना में सफलता हेतु गुरु पूजन आवश्यक है। अपने सामने स्थापित बाजोट पर गुरु चित्र/विग्रह/यंत्र/पादुका स्थापित कर लें और हाथ जोड़कर 

गुरु का ध्यान करें :-
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् पर ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

इसके पश्चात् चावलों की ढेरी बनाकर उस पर एक सुपारी गणपति स्वरूप स्थापित कर लें। गणपति का पंचोपचार पूजन कुंकुम, अक्षत, चावल, पुष्प, इत्यादि से करें।
बाजोट पर एक ताम्रपात्र में पुष्पों का आसन देकर श्रीयंत्र (ताम्र/पारद या जिस स्वरूप में हो) स्थापित कर लें।इसके बाद एकाग्रता पूर्वक श्री यंत्र का ध्यान करें –

दिव्या परां सुधवलारुण चक्रयातां
मूलादिबिन्दु परिपूर्ण कलात्मकायाम।
स्थित्यात्मिका शरधनुः सुणिपासहस्ता
श्री चक्रतां परिणतां सततां नमामि॥

श्री यंत्र ध्यान के पश्चात् श्रीयंत्र प्रार्थना करनी चाहिए। यदि नित्य इस प्रार्थना का १०८ बार उच्चारण किया जाए, तो अपने आप में अत्यन्त लाभप्रद देखा गया है –

धनं धान्यं धरां हर्म्यं कीर्तिर्मायुर्यशः श्रियम्।
तुरगान् दन्तिनः पुत्रान् महालक्ष्मीं प्रयच्छ मे॥

ध्यान-प्रार्थना के पश्चात् श्रीयंत्र पर पुष्प अर्पित करते हुए निम्नलिखित मंत्रों का उच्चारण करें –

ॐ मण्डूकाय नमः। ॐ कालाग्निरुद्राय नमः। ॐ मूलप्रकृत्यै नमः। ॐ आधारशक्तयै नमः। ॐ कूर्माय नमः। ॐ शेषाय नमः। ॐ वाराहाय नमः। ॐ पृथिव्यै नमः। ॐ सुधाम्बुधये नमः। ॐ रत्नद्वीपाय नमः। ॐ भैरवे नमः। ॐ नन्दनवनाय नमः। ॐ कल्पवृक्षाय नमः। ॐ विचित्रानन्दभूम्यै नमः। ॐ रत्नमन्दिराय नमः। ॐ रत्नवेदिकायै नमः। ॐ धर्मवारणाय नमः। ॐ रत्न सिंहासनाय नमः।

कमलगट्टे की माला से लक्ष्मी बीज मंत्र की एक माला मंत्र जप करें।

 "ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नमः॥  "

सबसे प्रभावपूर्ण एवं सर्वाधिक लाभप्रद लक्ष्मी बीज मंत्र है। यह बीज मंत्र सभी साधकों के लिए अनुकूल सिद्ध होता है। माँ लक्ष्मी से सम्बन्धित ग्रंथों के अनुसार यदि मंत्रसिद्ध श्रीयंत्र के सामने ‘ कमलगट्टे की माला ’ से नित्य लक्ष्मी बीज मंत्र का एक माला मंत्र जप किया जाए, तो आश्चर्यजनक प्रभाव देखने को मिलता है।
मंत्र जप के पश्चात् साधक लक्ष्मी आरती सम्पन्न कर, अपनी मनोकामना प्रकट करें।

श्रीविद्या उपासनामे भगवती के चार स्वरूप का यजन होताहै है । श्री बालात्रिपुर सुंदरी = धर्म , श्री महात्रिपुर सुंदरी = अर्थ , श्री राज राजेश्वरी = काम , श्री ललितात्रिपुर सुंदरी = मोक्ष दायिनी है । इस तरह धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष ये चतुर्विद कामना सिद्धि केलिए श्रीविद्या उपासना श्रेष्ठ मार्ग है । श्री यंत्र पूरे ब्रह्मांड का चोकक्स स्थान और उनके देवी देवताओंके स्थान का पतिक है । एक ही यंत्रमे २८८२ देवी देवताओं की एक साथ पूजा होती है । इसलिए श्रीयंत्र की पूजा के बाद कोई पूजा बाकी नही रहे जाती । शिव और शिवा का उनके सभी २८८२ आवरण देवताओ सहित विधिवत पूजन मतलब श्री यंत्र पूजन । 
ॐ श्री मात्रेय नमः

भैरव जी के प्रादुर्भाव की कथा -

भैरव जी के प्रादुर्भाव की कथा -
एक बार भगवान शिव के क्रोधित होने पर काल भैरव की उत्पत्ति हुई। इसलिए भैरव भगवान शिव के स्वरूप हैं। मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को भगवान भैरव का प्रादुर्भाव हुआ। काल भैरव ने ब्रह्माजी के उस मस्तक को अपने नाखून से काट दिया जिससे उन्होंने महादेव शिव का आपमान व अनादर किया। तब ब्रह्म हत्या के पाप को को लेकर हुई आकाशवाणी के तहत ही भगवान काल भैरव काशी में स्थापित हो गए थे। मध्यप्रदेश के उज्जैन में भी कालभैरव के ऐतिहासिक मंदिर है, जो बहुत महत्व का है। पुरानी धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान कालभैरव को यह वरदान है कि भगवान शिव की पूजा से पहले उनकी पूजा होगी। इसलिए काशी अथवा उज्जैन दर्शन के समय कालभैरव के मंदिर जाना अनिवार्य है। तभी महाकाल की पूजा का लाभ आपको मिल पाता है। भगवान भैरव के तीन प्रमुख रूप हैं- बटुक भैरव, महाकाल भैरव और स्वर्णाकर्षण भैरव। इनमें से भक्तगण बटुक भैरव की ही सर्वाधिक पूजा करते हैं। तंत्रशास्त्र में अष्ट भैरव का उल्लेख भी मिलता है- असितांग भैरव, रूद्र भैरव, चंद्र भैरव, क्रोध भैरव, उन्मत भैरव, कपाल भैरव, भीषण भैरव और संहार भैरव। भगवान भैरव की साधना में ध्यान का अधिक महत्व है। इसी को ध्यान में रखकर सात्विक, राजसिक व तामसिक स्वरूपों का ध्यान किया जाता है। 

भैरव देव

शिवपुराण में वर्णित प्रसंग के अनुसार भैरव देव की उत्पत्ति भगवान शिव के अंश से हुई । भगवान् भैरव की उत्पत्ति कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को मध्यान के समय हुई । जिस दिन भैरव देव की उत्पत्ति हुई  उस तिथि को कालभैरव के रूप में जाना जाता है। हिन्दू धर्म में भैरव-उपासना की दो प्रमुख शाखाएं हैं। जिसके अन्तर्गत बटुकभैरव तथा काल भैरव देव की साधना की जाती है। बटुक भैरव देव अपने सौम्य रूप में रहते हैं। और भक्तों को अभय वर देते हैं। काल भैरव देव अत्यन्त ही उग्र रुप में रहते है। तथा आपराधिक प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करते हैं।
ओर साथ ही शिव की सेना में सेनापति के रूप में नियुक्त है। माना यह भी जाता है। तन्त्र साधनाओ में बिना भैरव अनुमति कोई भी उनकी पूजा नही कर सकता ।
वह अपना शिष्य भक्त स्वम् चुनते है।
इनके स्मरण मात्र से सभी नकरात्मक शक्ति अपना मार्ग छोड़ देती है। और साधक के जीवन मे नई ऊर्जा का संचार होता है।

Wednesday, 3 November 2021

दिपावली पूजन विधि:

Diwali Shubh Muhurat 2021: 4 नवंबर 2021,
गुरुवार के दिन साल का बड़ा त्योहार दिवाली मनाया जाएगा. पांच दिवसीय दिवाली पर्व की शुरुआत धनतेरस के दिन से होती है और त्योहार का समापन भाई दूज के दिन होता है।
श्रीलक्ष्मी गणेश कुबेर इत्यादि देव पूजन विधि:-
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दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  दुर्गा सप्तशती दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद क...