शनिवार, 11 सितंबर 2021

श्रीहनुमानजी के कई अर्थ हैं।

श्रीहनुमानजी के कई अर्थ हैं।
    ॥ॐस्वस्तिश्री॥  ॐश्रीहनूमते नम:ॐ   
(१) पराशर संहिता के अनुसार उनके मनुष्य  रूप में ९ अवतार हुये थे। 
(२) आध्यात्मिक अर्थ तैत्तिरीय उपनिषद् में  दिया है-दोनों हनु के बीच का भाग ज्ञान और  कर्म की ५-५ इन्द्रियों का मिलन विन्दु है। जो  इन १० इन्द्रियों का उभयात्मक मन द्वारा  समन्वय करता है, वह हनुमान् है। 
(३) ब्रह्म रूप में गायत्री मन्त्र के ३ पादों के  अनुसार ३ रूप हैं 
*स्रष्टा रूप में यथापूर्वं  अकल्पयत् = पहले  जैसी सृष्टि करने वाला  वृषाकपि है। मूल 
तत्त्व के समुद्र से से विन्दु  रूपों 
(द्रप्सः -ब्रह्माण्ड, तारा, ग्रह, -सभी विन्दु हैं) 
में वर्षा करता है वह वृषा है। पहले जैसा 
करता है अतः कपि है। अतः मनुष्य का  अनुकरण कार्ने वाले पशु को भी "कपि" 
कहते हैं। 
*तेज का स्रोत विष्णु है, उसका अनुभव शिव 
है और तेज के स्तर में अन्तर के कारण गति  "मारुति" है। 
*वर्गीकृत ज्ञान ब्रह्मा है या वेद आधारित है। चेतना विष्णु है, गुरु शिव है। उसकी शिक्षा 
के कारण जो उन्नति होती है वह मनोजवं "हनुमान्" है।
(४) हनु = ज्ञान-कर्म की सीमा। ब्रह्माण्ड की सीमा पर ४९वां मरुत् है। ब्रह्माण्ड केन्द्र से सीमा तक गति क्षेत्रों का वर्गीकरण मरुतों के रूप में है। अन्तिम मरुत् की सीमा हनुमान् है। इसी प्रकार सूर्य (विष्णु) के रथ या चक्र की सीमा हनुमान् है। ब्रह्माण्ड विष्णु के परम-पद के रूप में महाविष्णु है। दोनों हनुमान् द्वारा सीमा बद्ध हैं, अतः मनुष्य (कपि) रूप में भी हनुमान् के हृदय में प्रभु राम का वास है।
(५) दो प्रकार की सीमाओं को हरि कहते हैं- 
पिण्ड या मूर्त्ति की सीमा ऋक् है,उसकी 
महिमा साम है-ऋक्-सामे वै हरी 
(शतपथ ब्राह्मण ४/४/३/६)। पृथ्वी सतह पर हमारी सीमा क्षितिज है। उसमें दो प्रकार के 
हरि हैं-वास्तविक भूखण्ड जहां तक दृष्टि जाती है, "ऋक्" है। 
वह रेखा जहां राशिचक्र से मिलती है वह 
"साम" हरि है। 
इन दोनों का योजन शतपथ ब्राह्मण के काण्ड ४ अध्याय ४ के तीसरे ब्राह्मण में बताया है 
अतः इसको हारियोजन ग्रह कहते हैं। हारियोजन से होराइजन हुआ है।
(६) हारियोजन या पूर्व क्षितिज रेखा पर जब सूर्य आता है, उसे बाल सूर्य कहते हैं। मध्याह्न का युवक और सायं का वृद्ध है। इसी प्रकार गायत्री के रूप हैं। जब सूर्य का उदय दीखता 
है, उस समय वास्तव में उसका कुछ भाग क्षितिज रेखा के नीचे रहता है और वायु 
मण्डल में प्रकाश के वलन के कारण दीखने लगता है। 
सूर्य सिद्धान्त में सूर्य का व्यास ६५०० योजन कहा है, यह भ-योजन = २७ भू-योजन = 
प्रायः २१४ किमी. है। इसे सूर्य व्यास १३,९२,००० किमी. से तुलना कर देख सकते हैं। वलन के कारण जब पूरा सूर्य बिम्ब उदित दीखता है तो इसका २००० योजन भाग 
(प्रायः ४,२८,००० किमी.) हारियोजन द्वारा ग्रस्त रहता है। इसी को कहा है-बाल समय 
रवि भक्षि लियो ...)। इसके कारण ३ लोकों पृथ्वी का क्षितिज, सौरमण्डल की सीमा तथा ब्रह्माण्ड की सीमा पर अन्धकार रहता है। 
यहां युग सहस्र का अर्थ युग्म-सहस्र = २००० योजन है जिसकी इकाई २१४ कि.मी. है।
तैत्तिरीय उपनिषद् शीक्षा वल्ली, अनुवाक् ३- 
अथाध्यात्मम्। अधरा हनुः पूर्वरूपं, उत्तरा हनुरुत्तर रूपम्। वाक् सन्धिः, जिह्वा 
सन्धानम्। इत्यध्यात्मम्।
अथ हारियोजनं गृह्णाति । छन्दांसि वै हारियोजनश्चन्दांस्येवैतत्संतर्पयति तस्माद्धारियोजनं गृह्णाति (शतपथ ब्राह्मण, ४/४/३/२) एवा ते हारियोजना सुवृक्ति 
ऋक् १/६१/१६, अथर्व २०/३५/१६) 
तद् यत् कम्पायमानो रेतो वर्षति तस्माद् वृषाकपिः, तद् वृषाकपेः वृषाकपित्वम्। 
(गोपथ ब्राह्मण उत्तर ६/१२)आदित्यो वै वृषाकपिः। ( गोपथ ब्राह्मण उत्तर ६/१०)
स्तोको वै द्रप्सः। (गोपथ ब्राह्मण उत्तर २/१२)  
'चिरजीवि' अजेय "श्रीरामदूत हनुमानजी" !

कोई टिप्पणी नहीं:

astroashupandit

              Consultations by Astrologer - Pandit Ashu Bahuguna Skills : Vedic Astrology , Horoscope Analysis , Astrology Remedies  , Prash...