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प्राचीन तंत्र साहित्य---
आगम ग्रंथ में साधारणतया
चार पाद होते है - ज्ञान,
योग, चर्या और क्रिया। इन पादों में इस समय कोई-कोई
पाद लुप्त हो गया है, ऐसा प्रतीत होता है और मूल आगम भी सर्वांश
में पूर्णतया उपलब्ध नहीं होता, परंतु जितना भी उपलब्ध होता है
वही अत्यंत विशाल है, इसमें संदेह नहीं।
प्राचीन आगमों का विभाग
इस प्रकार हो सकता है:
शैवागम ( संख्या में
दस ),
रूद्रागम ( संख्या
में अष्टादश )
ये अष्टाविंशति आगम
(१० + ८ = १८) 'सिद्धांत आगम' के रूप में विख्यात हैं। 'भैरव आगम' संख्या में चौंसठ सभी मूलत: शैवागम हैं। इन
ग्रंथों में शाक्त आगम आंशिक रूप में मिले हुए हैं। इनमें द्वैत भाव से लेकर परम अद्वैत
भाव तक की चर्चा है।
शैवागम
किरणागम, में लिखा है
कि, विश्वसृष्टि के अनंतर परमेश्वर ने सबसे पहले महाज्ञान का
संचार करने के लिये दस शिवों का प्रकट करके उनमें से प्रत्येक को उनके अविभक्त महाज्ञान
का एक एक अंश प्रदान किया। इस अविभक्त महाज्ञान को ही शैवागम कहा जाता है। वेद जैसे
वास्तव में एक है और अखंड महाज्ञान स्वरूप है, परंतु विभक्त होकर
तीन अथवा चार रूपों में प्रकट हुआ है, उसी प्रकार मूल शिवागम
भी वस्तुत: एक होने पर भी विभक्त होकर दस आगमों के रूप में प्रसिद्व हुआ है। इन समस्त
आगमधाराओं में प्रत्येक की परंपरा है।
दस शिवों में पहले
प्रणव शिव हैं। उन्होंने साक्षात् परमेंश्वर से जिस आगम को प्राप्त किया था उसका नाम
'कामिक' आगम है। प्रसिद्वि है कि उसकी श्लोकसंख्या एक
परार्ध थी। प्रणव शिव से त्रिकाल को और त्रिकाल से हर को क्रमश: यह आगम प्राप्त हुआ।
इस कामिक आगम का नामांतर है, कामज, त्रिलोक,
की जयरथकृत टीका में कही नाम मिलता है।
द्वितीय शिवागम का
नाम है - योग । इसकी श्लोक संख्या एक लक्ष है, ऐसी प्रसिद्वि है। इस आगम के पाँच अवांतर
भेद हैं। पहले सुधा नामक शिव ने इसे प्राप्त किया था। उनसे इसका संचार भस्म में;
फिर भस्म से प्रभु में हुआ।
तृतीय आगम चित्य है।
इसका भी परिमाण एक लक्ष श्लोक था। इसके छ: अवांतर भेद हैं। इसे प्राप्त करनेवाले शिव
का नाम है दीप्त। दीप्त से गोपति ने, फिर गोपति से अंबिका ने प्राप्त किया।
चौथा शिवागम कारण है।
इसका परिमाण एक कोटि श्लोक हे। इसमें सात भेद हैं। इसे प्राप्त करनेवाले क्रमश: कारण, कारण से शर्व,
शर्व से प्रजापति हैं।
पाँचवाँ आगम अजित है।
इसका परिमाण एक लक्ष श्लोक है। इसके चार अवांतर भेद हें। इसे प्राप्त करनेवालों के
नाम हैं सुशिव,
सुशिव से उमेश, उमेश से अच्युत।
षष्ठ आगम का नाम सुदीप्तक
(परिमाण में एक लक्ष एवं अवांतर भेद नौ ) हैं। इसे प्राप्त करनेवालों के नाम क्रमश:
ईश, ईश से त्रिमूर्ति, त्रिमूर्ति से हुताशन।
सप्तम आगम का नाम सूक्ष्म
(परिमाण में एक पद्म) है। इसके कोई अवांतर भेद नहीं हैं। इसे प्राप्त करनेवालों के
नाम क्रमश: सूक्ष्म,
भव और प्रभंजन हैं।
अष्टम आगम का नाम सहस्र
है। अवांतर भेद दस हैं। इसे प्राप्त करनेवालों में काल, भीम,
और खग हैं।
नवम आगम सुप्रभेद है।
इसे पहले धनेश ने प्राप्त किया, धनेश से विघनेश और विघनेश से शशि ने।
दशम आगम अंशुमान है
जिसके अबांतर भेद 12 हैं। इसे प्राप्त करनेवालों के नाम क्रमश: अंशु अब्र और रवि हैं।
दस अगमों की उपर्युक्त
सूची किरणागम के आधार पर है। श्रीकंठी संहिता में दी गई सूची में सुप्रभेद का नाम नहीं
है। उसके स्थान में कुकुट या मुकुटागम का उल्लेख है।
रूद्रागम
इन आगमों के नाम और
प्रत्येक आगम के पहले और दूसरे श्रोता के नाम दिए जा रहे हैं:
1. विजय (पहले
श्रोता अनादि रूद्र, दूसरे स्रोता परमेश्वर),
2. नि:श्वास
(पहले श्रोता दशार्ण, दूसरे श्रोता शैलजा),
3. पारमेश्वर
(पहले श्रोता रूप, दूसरे श्रोता उशना:),
4. प्रोद्गीत
(पहले श्रोता शूली , दूसरे श्रोता कच),
5. मुखबिंब
(पहले श्रोता प्रशांत, दूसरे श्रोता दघीचि),
6. सिद्ध (पहले
बिंदु, दूसरे श्रोता चंडेश्वर),
7. संतान (पहले
श्रोता शिवलिंग, दूसरे श्रोता हंसवाहन),
8. नारसिंह
(पहले श्रोता सौम्य, दूसरे नृसिंह),
9. चंद्रांशु
या चंद्रहास (पहले श्रोता अनंत दूसरे श्रोता वृहस्पति),
10. वीरभद्र
(पहले श्रोता सर्वात्मा, दूसरे श्रोता वीरभद्र महागण),
11. स्वायंभुव
(पहले श्रोता निधन, दूसरे पद्यजा),
12. विरक्त
(पहले तेज, दूसरे प्रजापति),
13. कौरव्य
(पहले ब्राह्मणेश, दूसरे नंदिकेश्चर),
14. मामुट या
मुकुट (पहले शिवाख्य या ईशान, दूसरे महादेव ध्वजाश्रय),
15. किरण (पहले
देवपिता, दूसरे रूद्रभैरव),
16. गलित (पहले
आलय, दूसरे हुताशन),
17. अग्नेय
(पहले श्रोता व्योम शिव, दूसरे श्रोता ?)
18. ?
श्रीकंठी संहिता में
रूद्रागमों की जो सूची है उसमें रौरव, विमल, विसर,
और सौरभेद ये चार नाम अधिक हैं। और उसमें विरक्त, कौरव्य, माकुट एवं आग्नेय ये चार नाम नहीं है। कोई-कोई
ऐसा अनुमान करते हैं कि ये कौरव्य ही रौरव हैं। बाकी तीन इनसे भिन्न हैं। अष्टादश अगम
का नाम कहीं नहीं मिलता। इसमें किरण, पारमेश्वर और रौरव का नाम
है।
नेपाल में आठवीं शताब्दी
का गुप्त लिपि में लिखा हुआ नि:श्वास तंत्र संहिता नामक ग्रंथ है। इसमें लौकिक धर्म, मूल सूत्र,
उत्तर सूत्र, नय सूत्र, गुह्य
सूत्र ये पाँच विभाग हैं। लौकिक सूत्र प्राय: उपेक्षित हो गया है। बाकी चारों के भीतर
उत्तरसूत्र कहा जाता है। इस उत्तर सूत्र में 18 प्राचीन शिव सूत्रों का नामोल्लेख है।
ये सब नाम वास्तव में उसी नाम से प्रसिद्ध शिवागम के ही नाम हैं, यथा
नि:ष्श्वास ज्ञान
स्वायंभुव मुखबिंब
मुकुट या माकुट प्रोद्गीत
वातुल ललित
वीरभद्र सिद्ध
विरस (वीरेश?) संतान
रौरव सर्वोद्गीत
चंद्रहास किरण पारमेश्वर
इसमें 10 शिवतंत्रों
के नाम है यथा - कार्मिक,
योगज, दिव्य (अथवा चिंत्य), कारण, अजित, दीप्त सूक्ष्म,
साहस्र अंशुमान और सुप्रभेद।
ब्रह्मयामल (लिपिकाल
1052 ई0) 39 अध्याय में ये नाम पाए जाते हैं - विजय, नि:श्वास, स्वायंभुव, बाबुल, वीरभद्र,
रौरव, मुकुट, वीरेश,
चंद्रज्ञान, प्रोद्गीत ललित, सिद्ध संतानक, सर्वोद्गीत, किरण
और परमेश्वर (द्रष्टव्य हरप्रसाद शास्त्री द्वारा संपादित नेपाल दरबार का कैटलाग खंड
2, पृ0 60) । कामिक आगम में भी 18 तंत्रो का नामोल्लेख है।
हरप्रसाद शास्त्री
ने अष्टादश आगम की प्रति नेपाल में देखी थी जिसका लिपिकाल 624 ई0 में था। बेंडल साहब
का कथन है कि केंब्रिज यूनवर्सिटी लायब्रेरी में 'परमेश्वरफ़ आगम' नामक एक 895 ई0 की हाथ की लिखी पोथी है। डॉ0 प्रबोधचंद्र बागची कहते हैं कि
पूर्ववर्णित 'नयोत्तर सूत्र' का रचनाकाल
छठीं से सातवीं ई0 हो सकता है। 'ब्रह्मयामल' के अनुसार नि:श्वास आदि तंत्र शिव के मध्य स्रोत से उद्भूत हुए थे और ऊर्ध्व
वक्ष से निकले हैं। ब्रह्मयामल के मतानुसार नयोत्तर संमोह अथवा शिरश्छेद वामस्रोत से
उद्भूत हैं। जयद्रथयामल में भी है कि शिरच्छेद से नयोत्तर और महासंमोहन - ये तीन तंत्र
शिव के बाम स्रोत से उद्भूत हैं।
द्वैत और द्वैताद्वैत
शैव आगम अति प्राचीन है,
इसमें संदेह नहीं। परंतु जिस सरूप में वे मिलते हैं और मध्य युग में
भी जिस प्रकार उनका वर्णन मिलता है, उससे ज्ञात होता है कि उसका
यह रूप अति प्राचीन नहीं है। काल भेद से विभिन्न ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण ऐसा
परिवर्तन हो गया है। फिर भी ऐसा माना जा सकता है कि मध्य युग में प्रचलित पंचरात्र
आगम का अति प्राचीन रूप जैसा महाभारत शांति पर्व में दिखाई देता है उसी प्रकार शैवागम
के विषय मे भी संभावित है। महाभारत के मोक्ष पर्व के अनुसार स्वयं श्रीकृष्ण ने द्वैत
और द्वैताद्वैत शैवागम का अध्ययन उपमन्यु से किया था।
'कामिक आगम'
में है कि सदाशिव के पंचमुखों में से पांचरात्र स्रोतों का संबंध है।
इसीलिये कुल स्रोत 25 हैं। पाँच मुखों के पाँच स्रोतों के नाम
हैं-
1. लौकिक,
2. वैदिक 3. आध्यात्मिक, 4. अतिमार्ग, 5. मंत्र।
पाँच मुख इस प्रकार
हैं-
1 सद्योजात,
2 बामदेव, 3 अघोर 4 तत्पुरूष,
5 ईशान।
'सोम सिद्धांत'
के अनुसार लौकिक तंत्र पाँच प्रकार के हैं और वैदिक भी पाँच प्रकार के
हैं।
इन सब तंत्रों में
परस्पर उत्कर्ष या अपकर्ष का विचार पाया जाता है। तदनुसार ऊर्ध्वादि पांच दिशाओं के
भेद के कारण तंत्रों के विषय में तारतम्य होता है। इसका तात्पर्य यह है कि ऊध्र्व दिशा
से निकले हुए तंत्र सर्वश्रेष्ठ हैं। उसके बाद पूर्व, फिर उत्तर,
पश्चिम, फिर दक्षिण। इस क्रम के अनुसार सिद्धांतविद्
पंडित लोग कहा करते हैं कि सिद्धांतज्ञान मुक्तिप्रद होने के कारण सर्वश्रेष्ठ है।
उसके अनंतर क्रमानुसार सर्पविष नाशक गरूड़ज्ञान, सर्ववशीकरण प्रतिपादक
कामज्ञान, भूतों का निवारक फ़ भूततंत्रफ़ और शत्रुदमन के लिये
उपयोगी फ़ भैरव तंत्र फ़ का स्थान जानना चाहिए।
इस प्रसंग में और भी
एक बात जानना आवश्यक है कि वैदिक दृष्टि से जैसे स्थूलत: ज्ञान के दो प्रकार दिखाई
देते हैं- प्रथम 'बोध रूप' और द्वितीय 'शब्द रूप'
। उसी प्रकार तंत्र साहित्य में भी ज्ञान के दो रूप पाए जाते हैं। यह
कहना अनावश्यक है कि बोधात्मक ज्ञान शब्दात्मक ज्ञान से श्रेष्ठ है, इस बोध रूप ज्ञान के विभिन्न प्रकार हैं क्योंकि प्रतिपाद्य विषय के भेद के
अनुसार ज्ञान का भेदाभेद होता है। जो ज्ञान शिव का प्रतिपादक है उससे पशु और माया का
प्रतिपादक ज्ञान निकृष्ट है। इसी लिये शुद्ध मार्ग, अशुद्ध मार्ग,
मिश्र मार्ग आदि भेदों से ज्ञान भेदों की कल्पना की गई है। शब्दात्मक
ज्ञान को फ़ शास्त्र फ़ कहते हैं। इसमें भी परापर भेद हैं। सिद्धांतियों के मतानुसार
वेदादिक ज्ञान से सिद्धांत ज्ञान विशुद्ध है, इसलिये श्रेष्ठ
है परंतु सिद्धांत ज्ञान में भी परापर भेद हैं। इसी प्रकार दीक्षारूप ज्ञान के भी कई
अवांतर भेद पाए जाते हैं- नैष्ठिक, भौतिक, निर्बीज, सबीज, लौकिक इत्यादि।
इससे प्रतीत होता है कि मूल में ज्ञान एक होने पर भी प्रतिपाद्य विषय के कारण परापर
भेद रूपों में प्रकट होता है।
'स्वायंभुव आगम'
में कहा गया है-
तदेकमप्यनेकम्त्वं
शिव वक्ताम्बु जोम्हवंल।
परापरेणा भेदेन गच्त्यर्थ
प्रतिश्रयात् ।
'कामिक आगम'
में भी हैं कि परापर भेद से ज्ञान केअधिकारी भेद होते हैं । इसमें प्रतिपाय
विषय के अनुसार मतिज्ञान परज्ञान और पशुज्ञान अथवा अपर ज्ञान हैं । शिव प्रकाशन ज्ञान
श्रेष्ठ हैं । पशुपाशादि अर्थ प्रकाशन अपर ज्ञान हैं। इसी प्रकार विविध कल्पनाएँ हैं
परंतु शिव और रूद्र दोनों सिद्धांत ज्ञाप हैं।
पाशुपत संप्रदाय के
आचार्य अष्टादश रूद्रागमों का प्रामाणाश्य मानते थे, परंतु दश शिव ज्ञान का प्रामाणाय
नहीं मानते थे । इसका कारणा यह है कि रूद्रागम में द्वैत दष्टि और अद्वत दष्टि का मिश्रण
पाया जाता हैं। परंतु शिवागम में अद्वैत दृष्टि मानी जाती इसलिये आचार्य अभिनय गुप्त
ने कहा है कि पाशुपत दर्शन सर्वथा हेय नहीं हैं। किसी किसी ग्रंथ में स्पष्ट रूप से
दिखया गया है कि शिव के किन मुखों से किन आगमों का निर्गम हुआ हैं। उससे यह प्रतित
होता हैं कि कामिक, योगज, चित्य,
कारणा और अजित ये पाँच शिवागम शिव के सधोजात मुख से निर्गत हुए थे। दीत्प,
सूक्ष्म, सहरूत्र, अंशुमत
या अंशमान संप्रभेद ये पाँच शिवागम शिव के बामदेव नामक मुख से निर्गत हुए हैं। विजय,
नि:श्वास, स्वाभुव, आग्नेय
और वीर ये पाँच रूद्रागम शिव के अघोर मुख से निर्गत हुए थे। रौरव, मुकुट, विमल ज्ञान, चंद्रकांत और
बिब, ये पाँच रूद्रागम शिव के ईशान मुख से निसृत हुए थे। प्रोद्गीत,
ललित, सिद्ध, संतान,
वातुल, किरणा, सर्वोच्च और
परमेश्वर ये आठ रूद्रागम शिव के तत्पुरूष मुख से निर्गत हुए थे। इस प्रकार अष्टाविंशति
आगम के 198 विभागों में आगमों की चर्चा दिखाई देती हैं।
भैरवागम
श्रीकंठी संहिता में
64 भैरवागमों का निर्देश मिलता है। ये सब आगम अद्धैत सिद्धांत के प्रतिपादक हैं। इनके
नाम इस प्रकार है:
1. भैरवाष्टक
(स्वच्छंद भैरव, चंड भैरव, क्रोध भैरव,
उन्मत्त भैरव, असितांग भैरव, महोछ्वास भैरव, कपालीश भैरव। अष्टम भैरव का नाम नहीं
मिलता)।
2. यामलाष्टक
(इसमें आठ यामलों का नाम है यथा - ब्रह्म यामल, विष्णु यामल,
स्वच्छंद यामल, रुरुयामल, अथर्वन् यामल, रुद्र यामल और वेताल यामल। अष्टम यामल
अज्ञात है)।
3. मत्ताष्टक
(रक्त, लंपट, लक्ष्मी, चालिका, पिंगला, उत्फुल्लक,
बिंबाद्यमत, ये सात मत हैं। अष्टम का पता नहीं)।
4. मंगलाष्टक
(इसमें आठ मंगल नामक ग्रंथ निविष्ट हैं, यथ-पीचु भैरवी,
तंत्र भैरवी, ब्राह्मी कला, विजया, चंद्रा, मंगला तथा सर्वमंगला)
5. शक्राष्टक
(इसमें मंत्रचक्र, वर्णचक्र, शक्ति चक्र,
कलाचक्र, बिंदुचक्र, नादचक्र,
गुह्मचक्र और पूर्णचक्र ये आठ चक्र हैं।)
6. बहुरूपाष्टक
(इसमें भी आठ ग्रंथ हैं: अंधक, रुरुभेद, अज, वर्णभेद, यम, विडंग, मातृरोदन, जालिम)
7. वाणीशष्टक
(भैरवी, चित्रिका, हिंसा, कदंबिका, ह्रल्लेखा, चंद्रलेखा,
विद्युल्लेखा, विद्वत्मत ये आठ हैं)
8. शिखाष्टक
(भैरवी शिखा; विनाशिखा, विनामनि,
संमोह, डामर, आथवक,
कबंध, शिरच्छेद)
802 ई0 में चार तंत्रग्रंथ भारत से कंबोज गए थे। उनमें विनाशिखा, शिरच्छेद और संमोह ये तीन ग्रथ पूर्वेक्त सूची में विद्यमान हैं। विनाशिखा
शुद्ध नयग्रंथ है। डॉ0 प्रबोधचंद्र बागची ने विनाशिक के नाम से
इसे निर्दिष्ट किया है। यह विनाशिखा का ही अपभ्रंश प्रतीत होता है। चतुर्थ पुस्तक का
नाम न्यायोत्तर है। (द्रष्टव्य: स्टडीज इन तंत्राज खंड, 1, पृ0
2, प्रबोधचंद्र बागची)। डॉ0 बागची समझते हैं कि
नेपाल में 'नि:ष्वास तत्व-संहिता' की जो
हस्तलिखित पुस्तक है और जिसका विवरण नेपाल दरबार कैटलाग के प्रथम खंड में पृ0
137 में दिया गया है वह अष्टादश रुद्रागम के अंतर्गत नि:श्वास तंत्र
का ही नामांतर है। इसके चार भाग या सूत्र है। सब मिलाकर नयोत्तर तंत्र नाम से ये जाने
जाते हैं।
कुलमार्गिका चतु:षष्टीतंत्र:
भगवान् शंकराचार्य
ने आनंद लहरी स्तोत्र में लिखा है-
चतुष्टठ्या तंत्रै:
सकल मनुसंघायमुवनं,
स्थित्वास्तत्त् सिद्धि
प्रसवपरतंत्रं पशुपते:।
पुन:स्तवन्निर्वंधादखिलपुरुषाथैक
घटना,
स्वतंत्रं ते तंत्रं
क्षितितलमवातीतरदिदम्।। (श्लोक संख्या-31)।
इसमें कहा गया है कि
पशुपति ने समग्र विश्व को तत्तत् सिद्धिप्रदर्शक 64 तंत्र में किसी न किसी पुरुषार्थ
को प्राप्त करनेवाली उपासना का विवरण है।
अंत में उन्होंने जगदंबा
के अनुरोध से यावत् पुरुषार्थो को एक साथ प्राप्त करानेवाले एकमात्र महाशक्ति के शक्तिप्रतिपादक
तंत्र को प्रकाट किया था। ऐसा कहा गया है कि सौभाग्यवर्धिनी टीका में इस श्लोक का भावार्थनिरूपण
इस प्रकार किया गया है- देवी ने शंकर से कहा कि तुम ऐसे तंत्र की रचना करो जो एक होने
पर भी सब प्रकार के पुरुषार्थो का सिद्धिदायक हो। देवी का अनुरोध सुनकर शंकर ने 'कादिमताख्या'
स्वतंत्र तंत्र का प्रकाश किया। और तंत्र परस्पर सापेक्ष हैं परंतु यह
तंत्र अन्यनिरपेक्ष होने के कारण स्वतंत्र तंत्र के रूप में प्रसिद्ध है। तांत्रिक
समाज में इसी कारण इसी को 'अनादि तंत्र' माना जाता है। टीकाकार लक्ष्मीधर ने कहा है कि इस श्लोक की पहली पंक्ति में
'अनुसंधाय' पाठ मानकर विचार किया गया है।
परंतु यह उचित नहीं प्रतीत होता। उनके मतानुसार इसका शुद्ध पाठ 'अति संधाय' है। इस पद का तात्पर्य है- 'वंचना' (धोखा देते हुए)। ऐसा माने पर इस श्लोक का तात्पर्य
यह होगा कि महामाया ने शंबर प्रभृति 64 तंत्रों के द्वारा विश्वप्रपंच को धोखा दिया
है। इनमें प्रत्येक में किसी न किसी सिद्धि का विवरण है। इसीलिये शंकर से देवी का विशेष
अनुरोध यह था कि वे सब पुरुषार्थो के साधक एक तंत्र का निर्माण करें। यह मुख्य रूप
से 'भगवती तंत्र' है। 'चतु:षष्ठीतंत्र' का नाम 'चतु:शती'
में है। (आनंद आश्रम से प्रकाशित नित्याषोडशार्णव नामक ग्रंथ में इन
नामों की सविस्तार व्याख्या दी गई है। इसके लिये भास्कर राय की 'सेतुबंध टीका' देखनी चाहिए) इन तंत्रों के वक्ता शंकर
हैं और श्रोता पार्वती। ये सब जगत् का विनाश करनेवाले और वैदिक मार्ग से दूरस्थ तंत्र
हैं। यह लक्ष्मीधर की व्याख्या का तात्पर्य है। 'अरुणामोदिनी'
टीका लक्ष्मीधर की ही अनुगत है। इस मत में 65वें तंत्र के संबंध में
कहा गया है कि वह भगवान् का 'मंत्ररहस्य है' जो शिवशक्ति दोनों वर्ण के संमिश्रण से उपहतमुख है।
64 तंत्रों के
नाम
चतु:शती में 64 तंत्रों
के नाम और उनके ऊपर 'सौंदर्यलहरी टीका' में प्रदत्त लक्ष्मीधर की व्याख्या
इस प्रकार है-
क्र0सं0 1-2 महामाया
तंत्र और शंबर तंत्र: इसमें माया, प्रपंच, निर्माण का विवरण
है। इसके प्रभाव से द्रष्टा की इंद्रियाँ तदनुरूप विषय को ग्रहण न कर अन्याथा ग्रहण
करती हैं। जैसा वस्तु - जगत् में घट है यह द्रष्टा के निकट प्रतिभात होता है- फ़ पटफ़
रूप में। यह किसी न किसी अंश में वर्तमान युग में प्रचलित हिपनॉटिज्म (क्तन्र्द्रददृद्यत्द्मथ्र्)
प्रभृति मोहिनी विद्या के अनुरूप है।
क्र0 सं0 3. - योगिनी
जाल शंबर : मायाप्रधान तंत्र को शंबर कहा जाता है। इसमें योगिनियों का जाल दिखाई देता
है। इसकी साधना करनेवाले के लिये श्मशान प्रभृति स्थानों में उपदिष्ट नियामें का अनुसरण
करना पड़ता है।
तत्वशंकर- यह फ़ महेंद्र
जाल विद्याफ़ है। इसके द्वारा एक तत्व को दूसरे तत्व के रूप में भासमान किया जा सकता
है; जैसे पृथ्वी त्तत्व में जल त व का या जल त व में पृथ्वी तत्व का।
5-12 सिद्ध भैरव,
बटुक भैरव, कंकाल भैरव, काल
भैरव, कालाग्नि भैरव, योगिनी भैरव,
महा भैरव तथा शक्ति भैरव (भैरवाष्टक)। इन ग्रंथों में निधि विद्या का
वर्णन है और ऐहक फलदायक कापालिक मत का विवरण है। ये सब तंत्र अवैदिक हैं।
13-20 बहुरूपाष्टक,
ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी,
वैष्णवी, वाराही, चामुडा,
श्विदूती, (?)। ये सभी शक्ति से उद्भूत मातृका
रूप हैं। इन आठ मातृकाओं के विषय में आठ तंत्र लिखे गए थे। लक्ष्मीधर के अनुसार ये
सब अवैदिक हैं। इनमें आनुषंगिक रूप से श्री विद्या का प्रसंग रहने से यह वैदिक साधकों
के लिये उपादेय नहीं है।
21-28 यामलाष्टक:
यामला शब्द का तात्पर्य है कायासिद्ध अंबा। आठ तंत्रों में यामलासिद्धि का वर्णन मिलता
है। यह भी अवैदिक तंत्र है।
16- चंद्रज्ञान:
इस तंत्र में 16 विद्याओं का प्रतिपादन किया गया है। फिर भी यह
कापालिक मत होने के कारण हेय है। चंद्रज्ञान नाम से वैदिक-विद्या-ग्रंथ भी है परंतु
वह चतु:षष्ठी तंत्र से बाहर है।
30-मालिनी विद्या:
इसमें समुद्रयान का विवरण है। यह भी अवैदिक है।
31-महासंमोहन:
जाग्रत मनुष्य को सुप्त यक अचेतन करने की विद्या। यह बाल जिह्यभेद आदि उपायों से सिद्ध
होता है, अत: हेय है।
32-36-वामयुप्ट
तंत्र : महादेव तंत्र, वातुल तंत्र, वातुलोतर
तंत्र, कामिक तंत्र, ये सब मिश्र तंत्र
हैं। इनमें किसी न किसी अंश में वैदिक बातें पाई जाती हैं परंतु अधिकांश में अवैदिक
हैं।
37-हृद्भेद तंत्र:
और गुह्यतंत्र: इसमें गुप्त रूप से प्रकृति तंत्र का भेद वर्णित हुआ है। इस विद्या
के अनुष्ठान में नाना प्रकार से हिंसादि का प्रसंग है अत: यह अवैदिक है।
40 -कलावाद:
इसमें चंद्रकलाओं के प्रतिपादक विषय हैं (वात्स्यायन कृत फ़ कामसूत्रफ़ आदि ग्रंथ इसी
के अंतर्गत हैं।) काम, पुरूषार्थ होने पर भीकला ग्रहण और मोक्ष
दस स्थान का ग्रहण और चंद्रकला सौरभ प्रभृति का उपयोग पुरूषार्थ रूप में काम्य नहीं
है। इसे छोड़कर निषिद्ध आचारों का उपदेश इस ग्रंथ में है। इसका निषिद्धांश कापालिक
न होने पर भी हेय है।
41-कलासार: इसमें
करर्णे के उत्कर्षसाधन का उपाय वर्णित है। इस तंत्र में वामाचार का प्राधान्य है।
142-कुंडिका
मत: इसमें गुटिकासिद्धि का वर्णन है। इसमें भी वामाचार का प्राधान्य है।
43-मतोतर मत:
इसमें रससिद्धि (पारा आदि, आलकेमी, ॠथ्ड़ण्ड्ढथ्र्न्र्)
का विवेचन है।
144-विनयाख्यर्तत्र:
तिनया एक विशेष योगिनी का नाम है। इस ग्रंथ में इस यागिनी को सिद्ध करने का उपाय बतलाया
गया है। किसी किसी के मत से विनया योगिनी नहीं हैं; संभोगयक्षिणी
का ही नाम विंनया है।
145-त्रोतल तंत्र:इसमें
घुटिका (पान पत्र, अंजन) और पादुकासिद्धि का विवरण है।
46-त्रोतलोतर
तंत्र: इसमें 64,000 यक्षिणियों के दर्शन का उपाय वर्णित है।
47-पंचामृत:
पृथ्वी प्रभृति पंचभूतों का मरणभाव पिंड, अड़ में कैसे संभव हो
सकता है, इसका विषय इसमें है। यह भी कापालिक ग्रंथ है।
48-52 रूपभेद,
भूतडामर, कुलसार, कुलोड्डिश,
कुलचूडामणि, इन पाँच तंत्रों में मंत्रादि प्रयोग
से शत्रु को मारने का उपाय वर्णित है। यह भी अवैदिक ग्रंथ है।
53-57 सर्वज्ञानोतर,
महाकाली मत, अअरूणोश, मदनीश,
विकुंठेश्वर, ये पाँच तंत्र फ़ दिगंबरफ़ संप्रदाय
के ग्रंथ हैं। यह संप्रदाय कापालिक संप्रदाय का भेद है।
58-64 पूर्व,
पश्चिम, उतर, दक्षिण,
निरूतर, विमल, विमलोतर और
देवीमत ये फ़ छपणक संप्रदायफ़ के ग्रंथ हैं।
पूर्वाक्त सक्षिप्त
विवरण से पता चलता है कि ये 64 तंत्र ही जागतिक सिद्धि अथवा फललाभ के लिये हैं। पारमार्थिक
कल्याण का किसी प्रकार संधान इनमें नहीं मिल सकता। लक्ष्मीधर के मतानुसार ये सभी अवैदिक
हैं। इस प्रसंग में लक्ष्मीधर ने कहा है कि परमकल्यणिक परमेश्वर ने इस प्रकार के तंत्रों
की अबतारणा की,
यह एक प्रश्न है। इसका समाधान करने के लिये उन्होंने कहा है कि पशुपति
ने ब्राह्मणा आदि चार वर्ण और ममूर्धाभिषिक्त प्रभृति अनुलोम, प्रतिलोम सब मनुष्यों के लिये तंत्रशास्त्र की रचना की थी। इसमें भी सबका अधिकार
सब तंत्रों में नहीं है। ब्राह्मण आदि तीन वर्णों का अधिकार दिया गया है।
अधिकारभेद से ही वयवस्थाभेद
है। पहले जो चंद्रकला विद्या की बात कही गई है वह 'चंद्रकला विज्ञान' से भिन्न है। 'चंद्रकला विद्या' के अंतर्गत चंद्रकला, जयोत्सनावती, कुलार्णव, कुलश्री, भुवनेश्वरी,
बार्हस्पत्य दुर्वासामत, और (?) इन सब तंत्रों का समावेश हुआ है जिनमें तीन वर्णों का अधिकार है, परंतु त्रिवर्ण विषय में अनुष्ठान का विधान दक्षिण मार्ग से ही है। शूद्रों
का भी अधिकार है परंतु उनके अनुष्ठानका विधान वाम मार्ग में है। इस विद्या में मुल
मार्ग, समय मार्ग का समन्वय देख पड़ता है।
शुभागम पँचक- ये पाँच
आगम समय मार्ग के अंतर्गत हैं। इनमें नाम हैं - वसिष्ठ संहिता, सनक संहिता,
सनंदन संहिता, शुकसंहिता सनतकुमार संहिता। ये सब
वैदिक मार्गाश्वयी है। वसिष्ठादि पाँच मुनि इस मार्ग के प्रदर्शक हैं। इसका प्रवर्तन
'समयाचार' के आधार पर हुआ था। लक्ष्मीधर
का कथन है कि शंकराचार्य स्वयं समयाचार का अनुरण करते थे। शुभागम पंचक शुद्ध समय मार्ग
का प्रतिपादन करते हैं। दसमें षोडश नित्याओं का प्रतिपादन मूल विद्या के अंतर्गत स्वीकार
करते हुए किया गया है। इसलिये इसे 'अंग विद्या' के रूप में ग्रहण किया जाता है। परंतु चतु:षष्ठी विद्या के अंतर्भुक्त चंद्रज्ञान
विद्या में षोडश लित्याओं का प्राधान्य माना गया है। इसलिये इसे 'कौलमार्ग' कहा जाता है। पहले जो स्वतंत्र तंत्र की बात
कही गई है - जिसका उल्लेख 'सौंदर्यलहरी' में मिलता है- उसके विषय में भास्कर राय के 'सेतुबंध'
में कहा गया है कि वह 'वामकेशतंत्र' हो सकता है। नित्याषेडशार्णव इस तंत्र के ही अंतर्भुक्त है। सौंदर्यलहरी के
टीकाकार गौरीकॉत ने कहा है कि 64 तंत्र के अतिरिक्त एक मित्र है वह 'ज्ञानार्णाव' हो सकता है परंतु दूसरे संप्रदाय के मतानुसार
सवतंत्र विशेषण से प्रतीत होता है कि वह 'तंत्रराज' नामक विशिष्ट तंत्र का द्योतक है।
नवचतु:षष्ठी तंत्र
तोडलतंत्र में 64 तंत्रों
के नाम दिए गए हैं। इस नामसूची को आधुलिक मानना समीचीन है। सर्वानंद ने अपने 'सर्वोल्लास
तंत्र' में 'तोडल तंत्र' के ये नाम दिए हैं। इस सूची की आलोचना से जान पड़ता है कि यह चतु:शती की सूची
से विलक्षण है ही, 'श्रीकंठी' सूची से भी
विलक्षण है।
सर्वोल्लासोद्धृत ताडलतंत्र
में जो सूची मिलती है वह इस प्रकार है- काली, मुंडमाला, तारा,
तनर्वाण, शिवसार, वीर निदश्र्न,
लतार्चन, ताउल, नील,
राधा, विद्यासार, भैरव,
भैरवी, सिद्धेश्वर, मातृभेद,
समया, गुप्तसाधक, माया,
महामाया, अक्षया, कुमारी,
कुलार्णव, कालिकाकुलसर्वस्व, कालिकाकला, वाराही, योगिनी,
योगिनीहृदय, सनतकूमार, त्रिपुरासार,
योगिनीनिजय, मालिनी, कुक्कुट,
श्रीगणेश, भूत, उड्डीश,
कामधेनु, उतर, वीरभद्र,
वामकेश्वर, कुलचूडाभणि, भावचूड़ामणि,
ज्ञानार्णव, वरदा, तंत्रचिंतामणि,
विरूणीविलास, हंसतुत्र, चिदंबरतंत्र,
श्वेतवारिध, नित्या, उतरा,
नारायणी, ज्ञानदीप, गौतमीय,
तनरूतर, गर्जन, कुब्जिका,
तत्रमुंक्तावली, बृहदश्रीक्रम, स्वतंत्रयोनि, मायाख्या।
दाशरथी तंत्र के द्वितीय
अध्याय में 64 तंत्रों का नामोल्लेख पाया जाता है। यह सूची पहली से कुछ भिन्न है। इंडिया
अॅफिस लाइब्रेरी,
लंदन में दाशरथी तंत्र की हस्तलिखित पुस्तक (मैनुस्क्रिप्ट) है जिसका
लिपिकाल 1676 शकाब्द अर्थात् 1754 ई0 है। हरिवंश में लिखा है कि श्रीकृष्ण ने 64 अद्वैततंत्रों
का दुर्वासा के निकट अध्ययन किया था। (दे0 अभिनव गुप्त : के0सी0 पांडेय द्वारा प्रकाशित,
पृ0 55)। ऐसी प्रसिद्धि है कि दुर्वासा ही कलियुग में अद्वैत तंत्र नामक
ग्रंथ तंत्रसाहित्य के विषय में काफी सूचनाएँ देता है। इसके 41 वें अध्याय में कहा
गया है कि यामल आठ प्रकार के हैं- इन आठों का मूल ब्रह्म यामल है। और यामलों में रूद्र
यामल, यम यामल, स्कंद यामल, वायु यामल, और इंद्र यामल क नाम मिलता है (जयद्रथ यामल
के 30 वें अध्याय में; दे0- विद्यापिठ की तंत्रसूची)
इनके नाम निश्वास तंत्र
में नहीं हैं,
ब्रह्मयामल में हैं। यामलाष्टक के अनुसार मंगलाष्टक, चक्राष्टक, शिखाष्टक प्रभृति तंत्रों का नाम जयद्रथयामल
मे दिखाई पड़ता है। उसमें सद्भाव मंगला, का नाम भी है। मंगलाष्टक
में भैरव, चंद्रगर्भ, सुमंगला, सर्वमंगला, विजया, उग्रमंगला,
और सद्भाव मंगला के नाम हैं। चक्राष्टक में षट्चक्र का वर्णन,
वर्णनाड़ी, गुह्यक, कालचक्र,
सौरचक्र, प्रभृति के नाम हैं। शिखाष्टक में शौंज्यि,
महाशुषमा, भैरवी, शाब्री,
प्रपंचकी, मातृभेदी, रूद्रकाली
प्रभृति का नाम आता है।
'जयद्रथ यामल'
के 36 वें अध्याय में विद्यापीठ के तंत्रों के
नाम दिए गए हैं- सर्ववीर, (समायोग) सिद्धयोगीश्वरी मत,
पंचामृत, विषाद, योगिनी जाल
शंबर, विद्याभेद, शिरच्छेद, महासंमोहन, महारौद्र, रूद्रयामल,
विष्णुयामल, रूद्रभेद, हरियामल,
स्कंद गौतमी, इत्यादि।
जयद्रथ
यामल की एक पुस्तक नैपाल दरबार के ग्रंथगार में रखी हुई है। उक्त ग्रंथागार में 'पिंगलामत' की 1175 ई0 की लिखी हुई एक पुस्तक है। इसे
ब्रह्मयामल का परिशिष्ट मानते हैं। इसमें जयद्रथ यामल के विषय में लिखा है।................................
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