Wednesday 17 April 2019

पूजा के समय मंत्र बोलना जरूरी क्यों होता है? हिन्दू धर्म में पूजा करने को बहुत महत्व दिया जाता है। छोटे या बड़े किसी भी तरह के उत्सव या आयोजन के प्रारंभ से पहले पूजा या अनुष्ठान जरूर किया जाता है। पूजा या अनुष्ठान चाहे किसी भी देवता का हो बिना मंत्र जप के पूरा नहीं होता है। लेकिन बहुत कम लोग ये जानते हैं कि पूजन के समय मंत्र जप क्यों किया जाता है? दरअसल मंत्र एक ऐसा साधन है, जो मनुष्य की सोई हुई सुषुप्त शक्तियों को सक्रिय कर देता है। मंत्रों में अनेक प्रकार की शक्तियां निहित होती है, जिसके प्रभाव से देवी-देवताओं की शक्तियों का अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। रामचरित मानस में मंत्र जप को भक्ति का पांचवा प्रकार माना गया है। मंत्र जप से उत्पन्न शब्द शक्ति संकल्प बल तथा श्रद्धा बल से और अधिक शक्तिशाली होकर अंतरिक्ष में व्याप्त ईश्वरीय चेतना के संपर्क में आती है। जिसके फलस्वरूप मंत्र का चमत्कारिक प्रभाव साधक को सिद्धियों के रूप में मिलता है।शाप और वरदान इसी मंत्र शक्ति और शब्द शक्ति के मिश्रित परिणाम हैं। साधक का मंत्र उच्चारण जितना अधिक स्पष्ट होगा, मंत्र बल उतना ही प्रचंड होता जाएगा।वैज्ञानिकों का भी मानना है कि ध्वनि तरंगें ऊर्जा का ही एक रूप है। मंत्र में निहित बीजाक्षरों में उच्चारित ध्वनियों से शक्तिशाली विद्युत तरंगें उत्पन्न होती है जो चमत्कारी प्रभाव डालती हैं।

वीर बेताल साधना यह साधना रात्रि कालीन है स्थान एकांत होना चाहिए ! मंगलबार को यह साधना संपन की जा सकती है ! घर के अतिरिक्त इसे किसी प्राचीन एवं एकांत शिव मंदिर मे या तलब के किनारे निर्जन तट पर की जा सकती है ! पहनने के बस्त्र आसन और सामने विछाने के आसन सभी गहरे काले रंग के होने चाहिए ! साधना के बीच मे उठना माना है ! इसके लिए वीर बेताल यन्त्र और वीर बेताल माला का होना जरूरी है ! यन्त्र को साधक अपने सामने बिछे काले बस्त्र पर किसी ताम्र पात्र मे रख कर स्नान कराये और फिर पोछ कर पुनः उसी पात्र मे स्थापित कर दे ! सिन्दूर और चावल से पूजन करे और निम्न ध्यान उच्चारित करें !! फुं फुं फुल्लार शब्दो वसति फणिर्जायते यस्य कण्ठे डिम डिम डिन्नाति डिन्नम डमरू यस्य पाणों प्रकम्पम! तक तक तन्दाती तन्दात धीर्गति धीर्गति व्योमवार्मि सकल भय हरो भैरवो सः न पायात !! इसके बाद माला से १५ माला मंत्र जप करें यह ५ दिन की साधना है ! !! ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं वीर सिद्धिम दर्शय दर्शय फट !! साधना के बाद सामग्री नदी मे या शिव मंदिर मे विसर्जित कर दें साधना का काल और स्थान बदलना नहीं चाहिए

कुंजिका स्तोत्र’ और ‘बीसा यन्त्र’ ‘कुंजिका स्तोत्र’ और ‘बीसा यन्त्र’ का अनुभूत अनुष्ठान प्राण-प्रतिष्ठा करने के पर्व चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, दीपावली के तीन दिन (धन तेरस, चर्तुदशी, अमावस्या), रवि-पुष्य योग, रवि-मूल योग तथा महानवमी के दिन ‘रजत-यन्त्र’ की प्राण प्रतिष्ठा, पूजादि विधान करें। इनमे से जो समय आपको मिले, साधना प्रारम्भ करें। 41 दिन तक विधि-पूर्वक पूजादि करने से सिद्धि होती है। 42 वें दिन नहा-धोकर अष्टगन्ध (चन्दन, अगर, केशर, कुंकुम, गोरोचन, शिलारस, जटामांसी तथा कपूर) से स्वच्छ 41 यन्त्र बनाएँ। पहला यन्त्र अपने गले में धारण करें। बाकी आवश्यकतानुसार बाँट दें। प्राण-प्रतिष्ठा विधि सर्व-प्रथम किसी स्वर्णकार से 15 ग्राम का तीन इंच का चौकोर चाँदी का पत्र (यन्त्र) बनवाएँ। अनुष्ठान प्रारम्भ करने के दिन ब्राह्म-मुहूर्त्त में उठकर, स्नान करके सफेद धोती-कुरता पहनें। कुशा का आसन बिछाकर उसके ऊपर मृग-छाला बिछाएँ। यदि मृग छाला न मिले, तो कम्बल बिछाएँ, उसके ऊपर पूर्व को मुख कर बैठ जाएँ। अपने सामने लकड़ी का पाटा रखें। पाटे पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर एक थाली (स्टील की नहीं) रखें। थाली में पहले से बनवाए हुए चौकोर रजत-पत्र को रखें। रजत-पत्र पर अष्ट-गन्ध की स्याही से अनार या बिल्व-वृक्ष की टहनी की लेखनी के द्वारा ‘यन्त्र लिखें। पहले यन्त्र की रेखाएँ बनाएँ। रेखाएँ बनाकर बीच में ॐ लिखें। फिर मध्य में क्रमानुसार 7, 2, 3 व 8 लिखें। इसके बाद पहले खाने में 1, दूसरे में 9, तीसरे में 10, चैथे में 14, छठे में 6, सावें में 5, आठवें में 11 नवें में 4 लिखें। फिर यन्त्र के ऊपरी भाग पर ‘ॐ ऐं ॐ’ लिखें। तब यन्त्र की निचली तरफ ‘ॐ क्लीं ॐ’ लिखें। यन्त्र के उत्तर तरफ ‘ॐ श्रीं ॐ’ तथा दक्षिण की तरफ ‘ॐ क्लीं ॐ’ लिखें। प्राण-प्रतिष्ठा अब ‘यन्त्र’ की प्राण-प्रतिष्ठा करें। यथा- बाँयाँ हाथ हृदय पर रखें और दाएँ हाथ में पुष्प लेकर उससे ‘यन्त्र’ को छुएँ और निम्न प्राण-प्रतिष्ठा मन्त्र को पढ़े - “ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम प्राणाः इह प्राणाः, ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम सर्व इन्द्रियाणि इह सर्व इन्द्रयाणि, ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम वाङ्-मनश्चक्षु-श्रोत्र जिह्वा घ्राण प्राण इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।” ‘यन्त्र’ पूजन इसके बाद ‘रजत-यन्त्र’ के नीचे थाली पर एक पुष्प आसन के रूप में रखकर ‘यन्त्र’ को साक्षात् भगवती चण्डी स्वरूप मानकर पाद्यादि उपचारों से उनकी पूजा करें। प्रत्येक उपचार के साथ ‘समर्पयामि चन्डी यन्त्रे नमः’ वाक्य का उच्चारण करें। यथा- 1. पाद्यं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 2. अध्र्यं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 3. आचमनं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 4. गंगाजलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 5. दुग्धं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 6. घृतं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 7. तरू-पुष्पं (शहद) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 8. इक्षु-क्षारं (चीनी) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 9. पंचामृतं (दूध, दही, घी, शहद, गंगाजल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 10. गन्धम् (चन्दन) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 11. अक्षतान् समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 12 पुष्प-माला समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 13. मिष्ठान्न-द्रव्यं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 14. धूपं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 15. दीपं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 16. पूगी फलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 17 फलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 18. दक्षिणा समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 19. आरतीं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। तदन्तर यन्त्र पर पुष्प चढ़ाकर निम्न मन्त्र बोलें- पुष्पे देवा प्रसीदन्ति, पुष्पे देवाश्च संस्थिताः।। अब ‘सिद्ध कुंजिका स्तोत्र’ का पाठ कर यन्त्र को जागृत करें। यथा- ।।शिव उवाच।। श्रृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि, कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्। येन मन्त्र प्रभावेण, चण्डी जापः शुभो भवेत।। न कवचं नार्गला-स्तोत्रं, कीलकं न रहस्यकम्। न सूक्तं नापि ध्यानं च, न न्यासो न च वार्चनम्।। कुंजिका पाठ मात्रेण, दुर्गा पाठ फलं लभेत्। अति गुह्यतरं देवि ! देवानामपि दुलर्भम्।। मारणं मोहनं वष्यं स्तम्भनोव्च्चाटनादिकम्। पाठ मात्रेण संसिद्धयेत् कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्।। मन्त्र – ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।। नमस्ते रूद्र रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि। नमः कैटभ हारिण्यै, नमस्ते महिषार्दिनि।।1 नमस्ते शुम्भ हन्त्र्यै च, निशुम्भासुर घातिनि। जाग्रतं हि महादेवि जप ! सिद्धिं कुरूष्व मे।।2 ऐं-कारी सृष्टि-रूपायै, ह्रींकारी प्रतिपालिका। क्लींकारी काल-रूपिण्यै, बीजरूपे नमोऽस्तु ते।।3 चामुण्डा चण्डघाती च, यैकारी वरदायिनी। विच्चे नोऽभयदा नित्यं, नमस्ते मन्त्ररूपिणि।।4 धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नीः, वां वीं वागेश्वरी तथा। क्रां क्रीं श्रीं में शुभं कुरू, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा।।5 ॐॐॐ कार-रूपायै, ज्रां ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी। क्रां क्रीं क्रूं कालिकादेवि ! शां शीं शूं में शुभं कुरू।।6 ह्रूं ह्रूं ह्रूंकार रूपिण्यै, ज्रं ज्रं ज्रम्भाल नादिनी। भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे ! भवानि ते नमो नमः।।7 अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव। आविर्भव हं सं लं क्षं मयि जाग्रय जाग्रय त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरू कुरू स्वाहा। पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा।।8 म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुंजिकायै नमो नमः। सां सीं सप्तशती सिद्धिं, कुरूश्व जप-मात्रतः।।9 ।।फल श्रुति।। इदं तु कुंजिका स्तोत्रं मन्त्र-जागर्ति हेतवे। अभक्ते नैव दातव्यं, गोपितं रक्ष पार्वति।। यस्तु कुंजिकया देवि ! हीनां सप्तशती पठेत्। न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा।। फिर यन्त्र की तीन बार प्रदक्षिणा करते हुए यह मन्त्र बोलें- यानि कानि च पापानि, जन्मान्तर-कृतानि च। तानि तानि प्रणश्यन्ति, प्रदक्षिणं पदे पदे।। प्रदक्षिणा करने के बाद यन्त्र को पुनः नमस्कार करते हुए यह मन्त्र पढ़े- एतस्यास्त्वं प्रसादन, सर्व मान्यो भविष्यसि। सर्व रूप मयी देवी, सर्वदेवीमयं जगत्।। अतोऽहं विश्वरूपां तां, नमामि परमेश्वरीम्।। अन्त में हाथ जोड़कर क्षमा-प्रार्थना करें। यथा- अपराध सहस्त्राणि, क्रियन्तेऽहर्निषं मया। दासोऽयमिति मां मत्वा, क्षमस्व परमेश्वरि।। आवाहनं न जानामि, न जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव न जानामि, क्षम्यतां परमेश्वरि।। मन्त्र-हीनं क्रिया-हीनं, भक्ति-हीनं सुरेश्वरि ! यत् पूजितम् मया देवि ! परिपूर्णं तदस्तु मे।। अपराध शतं कृत्वा, जगदम्बेति चोच्चरेत्। या गतिः समवाप्नोति, न तां ब्रह्मादयः सुराः।। सापराधोऽस्मि शरणं, प्राप्यस्त्वां जगदम्बिके ! इदानीमनुकम्प्योऽहं, यथेच्छसि तथा कुरू।। अज्ञानाद् विस्मृतेर्भ्रान्त्या, यन्न्यूनमधिकं कृतम्। तत् सर्वं क्षम्यतां देवि ! प्रसीद परमेश्वरि ! कामेश्वरि जगन्मातः, सच्चिदानन्द-विग्रहे ! गृहाणार्चामिमां प्रीत्या, प्रसीद परमेश्वरि ! गुह्याति-गुह्य-गोप्त्री त्वं, गुहाणास्मत् कृतं जपम्। सिद्धिर्भवतु मे देवि ! त्वत् प्रसादात् सुरेश्वरि।।

एक सरल प्रयोग यह प्रयोग किसी भी शत्रु दुयारा किए अभिचार जैसे अगर किसी शत्रु ने किसी पर तंत्र यंत्र मांत्रिक प्रयोग कर दिया है तो उस से निजात पाने के लिए यह एक अनुभूत प्रयोग है !तंत्र किसी भी व्यक्ति के जीवन को नष्ट भ्रष्ट कर देता है !और तरह तरह के अज्ञात वाधाए उस व्यक्ति के जीवन की दिशा ही बदल देते है !व्यक्ति इस से छुटकारा पाने के लिए कथित तांत्रिक लोगो के पास धके खाता है और आराम के नाम पे उसे ठगा जाता है !और वह अपना समय और पैसा दोनों गवा बैठता है !इस मंत्र को ग्रहण के दिन 108 वार जप कर सिद्ध कर ले माला कोई भी ले ले काले हकीक की बेहतर है और हो सके तो 5 माला कर ले नहीं तो 108 वार भी चल जाएगा !प्रयोग के वक़्त जब किसी के दुयारा किए प्रयोग को नष्ट करना हो तो एक शराब की प्याली और बतासे ले किसी चोराहे पे चले जाए जो निर्जन हो तो जायदा उचित है !बतासे और शराब की पियाली रख कर 21 वार मंत्र पढे और वहाँ से 7 कंकर उठा ले उन में से 4 कंकर चारो दिशायों में फेक दे और शेष तीन अपने पास ले आए जिस को वाधा हो एक एक कंकर पे 7 वार मंत्र पढ़ उसके शरीर से tuch करे मतलव छूया दे और इस प्रकार तीनों कंकर 7 -7 वार मंत्र पढ़ छूयाए और उन्हे दक्षिण दिशा की तरफ अपनी हद के बाहर फेक दे इस तरह उस पे किया गया प्रयोग का असर समापत हो जाएगा ! साबर मंत्र – ॐ उलटंत देव पलतंट काया उतर आवे बच्चा गुरु ने बुलाया बेग सत्यनाम आदेश गुरु का !!

स्वर्णप्रभा यक्षिणी, स्वर्णप्रभा नाम जहाँ सुमरों तहाँ हाज़िर होवे , स्वर्णप्रभा भवानी कारज सिद्ध करे, जो मेरी बुलाई हाज़िर ना होवे तो, महादेव जी - माँ गौरी की आन, महाराजा राजाधिराज कुबेर की आन, जो मेरा कारज सिद्ध ना करे तो, लोना चमारी की कुंडी भंगी के नरक कुण्ड में पडे, रूद्र के नेत्रों से अग्नि की ज्वाला कहरे, लटा टूट भूमि पर परे, शब्द साँचा पिण्ड कांचा, फुरो मंत्र गुरु गोरखनाथ वाचा, सत्यनाम आदेश गुरु को.

सिद्धि के लक्षण मंत्र सिद्धि होने से साधक में जो लक्षण प्रकट होते हैं उनके विषय में शास्त्रकारोंने कहा है- “हृदये ग्रन्थि भेदश्च सर्व्वाय व वर्द्धनम्। आनन्दा श्रुणि पुलको देहावेशः कुलेश्वरी॥ गद्गदोक्तश्च सहसा जायते नात्रसंशयः॥” (तंत्र सार) अर्थात्- “जप के समय हृदय ग्रन्थि भेद, समस्तअवयवों की वृद्धि, देहावेश और गदगद कण्ठ भाषण आदि भक्ति के चिन्ह प्रकट होते हैं, इसमें सन्देह नहीं। और भी अनेक प्रकार के चिन्ह प्रकट होते हैं।”मंत्र के सिद्ध होने का सबसे मुख्य लक्षण तोयही है कि साधक के मनोरथ की पूर्ति हो जाय। साधक की जिस समय जो अभिलाषा हो वह तुरंत पूर्ण होती दिखलाई दे तो समझ लेना चाहिये किमंत्र सिद्धि हुई है। मंत्र के सिद्ध होने से मृत्यु भय का निराकरण, देवता दर्शन, देवता के साथ वार्तालाप, मंत्र की भयंकर शब्द सुनाई पड़ना आदि लक्षण भी दिखलाई पड़ते हैं।“सकृदुच्चरितेऽप्येवं मंत्रे चैतन्य संयुते। दृष्यन्ते प्रत्यया यत्र पारपर्य्य तदुच्यते॥(तंत्रसार)“ अर्थात्- “चैतन्य को संयुक्त करके मंत्र का एक बार उच्चारण करने से ही ऊपर बतलाये भावोंका विकास हो जाता है।”जिस साधक को मंत्र की सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो जाती है वह देवता का दर्शन कर सकता है, मृत्यु का निवारण कर सकता है, परकाया प्रवेश कर सकता है, चाहे जिस स्थान में प्रवेश कर सकता है, आकाश मार्ग में उड़ सकता है, खेचरी देवियों के साथ मिलकर उनकी बातचीत सुन सकता है। ऐसा साधक पृथ्वी के अनेक स्तरों को भेद कर भूमि के नीचे के पदार्थों को देख सकता है। ऐसे महापुरुष की कीर्ति चारों दिशाओं में व्याप्त हो जाती है, उसे वाहन, भूषण आदि समस्त सामग्री प्राप्त होने लगती हैं और वह बहुत समय तक जीवित रह सकता है। वह राजा और अधिकारी वर्ग को प्रभावित कर सकता है और सब तरह के चमत्कारी कार्य करके सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है। ऐसे सत्पुरुष की दृष्टि पड़ते ही अनेक प्रकार की व्याधियाँ और विषों का निवारण हो जाता है। वह सर्व शास्त्रों में पारंगत होकर चार प्रकार का पाण्डित्य प्राप्त करता है। वह विषय भोग के प्रति वैराग्य धारण करके केवल मुक्ति की ही कामना करता है। उसमें सर्व प्रकार की परित्याग की भावना और सबको वश में करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। वह अष्टाँग योग का अभ्यास कर सकता है, विषय भोग की इच्छा से दूर रहता है, सर्व प्राणियों के प्रति दया रखता है और सर्वज्ञता की शक्ति को प्राप्त करता है। सब प्रकार का साँसारिक वैभव, पारिवारिक सुख और लोक में यश उसे मंत्र-सिद्धि की प्रथम अवस्था में ही प्राप्त हो जाते हैं।तात्पर्य यह है कि योग सिद्धि और मंत्र सिद्धि में कोई भेद नहीं हैं, दोनों प्रकार के साधनों का उद्देश्य एक ही है, केवल साधन मार्ग में अन्तर रहता है। वास्तव में जो साधक जिस किसी विधि से मंत्र की पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर लेता है तो उसके प्रभाव से वह स्वयं शिव तुल्य हो जाता है। कहा हैं- “सिद्ध मन्त्रस्तु यः साक्षात् स शिवो नात्र संशय।” मंत्र साधक को शास्त्र में बतलाई किसी भी पद्धति का अवलम्बन करके मंत्र सिद्धि प्राप्त करनी चाहिये और जीवन्मुक्त होकर शिव सायुज्य अथवा निर्माण मुक्ति प्राप्त करना अपना लक्ष्य रखना चाहिये। युगावतार भगवान रामकृष्ण परमहंस ने ऐसी स्थिति प्राप्त कर ली थी, उन्होंने अपने अनुभव या अन्य साधकों को बतलाया था- “कलियुग में मंत्र जप अथवा अपने किसी इष्ट देव का जप करने से सब प्रकार की इच्छायें पूर्ण होती हैं। एकाग्र चित्त, मन और प्राण को एक करके जप करना चाहिये, इष्ट देव के नाम रूपी मंत्र का जप करते-करते समुद्र में डूब जाओ, बस तुम भव सागर से पार हो जाओगे।

भैरव वशीकरण मन्त्र भैरव वशीकरण मन्त्र १॰ “ॐनमो रुद्राय, कपिलाय, भैरवाय, त्रिलोक-नाथाय, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।” विधिः- सर्व-प्रथम किसी रविवार को गुग्गुल, धूप, दीपक सहित उपर्युक्त मन्त्र का पन्द्रह हजार जप कर उसे सिद्ध करे। फिर आवश्यकतानुसार इस मन्त्र का १०८ बार जप कर एक लौंग को अभिमन्त्रित लौंग को, जिसे वशीभूत करना हो, उसे खिलाए। २॰ “ॐ नमो काला गोरा भैरुं वीर, पर-नारी सूँ देही सीर। गुड़ परिदीयी गोरख जाणी, गुद्दी पकड़ दे भैंरु आणी, गुड़, रक्त का धरि ग्रास, कदे न छोड़े मेरा पाश। जीवत सवै देवरो, मूआ सेवै मसाण। पकड़ पलना ल्यावे। काला भैंरु न लावै, तो अक्षर देवी कालिका की आण। फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा।” विधिः- २१,००० जप। आवश्यकता पड़ने पर २१ बार गुड़ को अभिमन्त्रित कर साध्य को खिलाए। ३॰ “ॐ भ्रां भ्रां भूँ भैरवाय स्वाहा। ॐ भं भं भं अमुक-मोहनाय स्वाहा।” विधिः- उक्त मन्त्र को सात बार पढ़कर पीपल के पत्ते को अभिमन्त्रित करे। फिर मन्त्र को उस पत्ते पर लिखकर, जिसका वशीकरण करना हो, उसके घर में फेंक देवे। या घर के पिछवाड़े गाड़ दे। यही क्रिया ‘छितवन’ या ‘फुरहठ’ के पत्ते द्वारा भी हो सकती है।

श्रीबगलाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् ।। श्रीनारद उवाच ।। भगवन्, देव-देवेश ! सृष्टि-स्थिति-लयात्मकम् । शतमष्टोत्तरं नाम्नां, बगलाया वदाधुना ।। ।। श्रीभगवानुवाच ।। श्रृणु वत्स ! प्रवक्ष्यामि, नाम्नामष्टोत्तरं शतम् । पीताम्बर्या महा-देव्याः, स्तोत्रं पाप-प्रणाशनम् ।। यस्य प्रपठनात् सद्यो, वादी मूको भवेत् क्षणात् । रिपूणां स्तम्भनं गाति, सत्यं सत्यं चदाम्यहम् ।। विनियोगः- ॐ अस्य श्रीपीताम्बरायाः शतमष्टोत्तरं नाम्नां स्तोत्रस्य, श्रीसदा-शिव ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीपीताम्बरा देवता, श्रीपीताम्बरा प्रीतये जपे विनियोगः । ऋष्यादिन्यासः- श्रीसदा-शिव ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्रीपीताम्बरा देवतायै नमः हृदि, श्रीपीताम्बरा प्रीतये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे । ।।अष्टोत्तर-शत-नाम-स्तोत्र ।। ॐ बगला विष्णु-वनिता, विष्णु-शंकर-भामिनी । बहुला वेद-माता च, महा-विष्णु-प्रसूरपि ।।1।। महा-मत्स्या महा-कूर्मा, महा-वाराह-रूपिणी । नरसिंह-प्रिया रम्या, वामना वटु-रूपिणी ।।2।। जामदग्न्य-स्वरूपा च, रामा राम-प्रपूजिता । कृष्णा कपर्दिनी कृत्या, कलहा कल-कारिणी ।।3।। बुद्धि-रूपा बुद्ध-भार्या, बौद्ध-पाखण्ड-खण्डिनी । कल्कि-रूपा कलि-हरा, कलि-दुर्गति-नाशिनी ।।4।। कोटि-सूर्य-प्रतिकाशा, कोटि-कन्दर्प-मोहिनी । केवला कठिना काली, कला कैवल्य-दायिनी ।।5।। केशवी केशवाराध्या, किशोरी केशव-स्तुता । रूद्र-रूपा रूद्र-मूर्ति, रूद्राणी रूद्र-देवता ।।6।। नक्षत्र-रूपा नक्षत्रा, नक्षत्रेश-प्रपूजिता । नक्षत्रेश-प्रिया नित्या, नक्षत्र-पति-वन्दिता ।।7।। नागिनी नाग-जननि, नाग-राज-प्रवन्दिता । नागेश्वरी नाग-कन्या, नागरी च नगात्मजा ।।8।। नगाधिराज-तनया, नग-राज-प्रपूजिता । नवीन नीरदा पीता, श्यामा सौन्दर्य-कारिणी ।।9।। रक्ता नीला घना शुभ्रा, श्वेता सौभाग्य-दायिनी । सुन्दरी सौभगा सौम्या, स्वर्णभा स्वर्गति-प्रदा ।।10।। रिपु-त्रास-करी रेखा, शत्रु-संहार-कारिणी । भामिनी च तथा माया, स्तम्भिनी मोहिनी शुभा।।12।। राग-द्वेष-करी रात्रि, रौरव-ध्वसं-कारिणी । यक्षिणी सिद्ध-निवहा सिद्धेशा सिद्धि-रूपिणी ।।13।। लंका-पति-ध्वसं-करी, लंकेश-रिपु-वन्दिता । लंका-नाथ – कुल-हरा, महा-रावण-हारिणी ।।14।। देव-दानव-सिद्धौघ-पूजिता परमेश्वरी । पराणु-रूपा परमा, पर-तन्त्र-विनाशिनी ।।15।। वरदा वरदाऽऽराध्या, वर-दान-परायणा । वर-देश-प्रिया वीरा, वीर-भूषण-भूषिता ।।16।। वसुदा बहुदा वाणी, ब्रह्म-रूपा वरानना । बलदा पीत-वसना, पीत-भूषण-भूषिता ।।17।। पीत-पुष्प-प्रिया पीत-हारा पीत-स्वरूपिणी । शुभं ते कथितं विप्र ! नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ।।18।। ।।फल-श्रुति।। यः पठेद् पाठयेद् वापि, श्रृणुयाद् ना समाहितः । तस्य शत्रुः क्षयं सद्यो, याति वै नात्र संशयः ।। प्रभात-काले प्रयतो मनुष्यः, पठेत् सु-भक्त्या परिचिन्त्य पीताम् । द्रुतं भवेत् तस्य समस्त-वृद्धिर्विनाशमायाति च तस्य शत्रुः ।। ।। श्रीविष्णु-यामले श्रीनारद-विष्णु-सम्वादे। श्रीबगलाऽष्टोत्तर-शत-नाम-स्तोत्रं ।।

श्री काली सहस्त्राक्षरी ॐ क्रीं क्रीँ क्रीँ ह्रीँ ह्रीँ हूं हूं दक्षिणे कालिके क्रीँ क्रीँ क्रीँ ह्रीँ ह्रीँ हूं हूं स्वाहा शुचिजाया महापिशाचिनी दुष्टचित्तनिवारिणी क्रीँ कामेश्वरी वीँ हं वाराहिके ह्रीँ महामाये खं खः क्रोघाघिपे श्रीमहालक्ष्यै सर्वहृदय रञ्जनी वाग्वादिनीविधे त्रिपुरे हंस्त्रिँ हसकहलह्रीँ हस्त्रैँ ॐ ह्रीँ क्लीँ मे स्वाहा ॐ ॐ ह्रीँ ईं स्वाहा दक्षिण कालिके क्रीँ हूं ह्रीँ स्वाहा खड्गमुण्डधरे कुरुकुल्ले तारे ॐ. ह्रीँ नमः भयोन्मादिनी भयं मम हन हन पच पच मथ मथ फ्रेँ विमोहिनी सर्वदुष्टान् मोहय मोहय हयग्रीवे सिँहवाहिनी सिँहस्थे अश्वारुढे अश्वमुरिप विद्राविणी विद्रावय मम शत्रून मां हिँसितुमुघतास्तान् ग्रस ग्रस महानीले वलाकिनी नीलपताके क्रेँ क्रीँ क्रेँ कामे संक्षोभिणी उच्छिष्टचाण्डालिके सर्वजगव्दशमानय वशमानय मातग्ङिनी उच्छिष्टचाण्डालिनी मातग्ङिनी सर्वशंकरी नमः स्वाहा विस्फारिणी कपालधरे घोरे घोरनादिनी भूर शत्रून् विनाशिनी उन्मादिनी रोँ रोँ रोँ रीँ ह्रीँ श्रीँ हसौः सौँ वद वद क्लीँ क्लीँ क्लीँ क्रीँ क्रीँ क्रीँ कति कति स्वाहा काहि काहि कालिके शम्वरघातिनी कामेश्वरी कामिके ह्रं ह्रं क्रीँ स्वाहा हृदयाहये ॐ ह्रीँ क्रीँ मे स्वाहा ठः ठः ठः क्रीँ ह्रं ह्रीँ चामुण्डे हृदयजनाभि असूनवग्रस ग्रस दुष्टजनान् अमून शंखिनी क्षतजचर्चितस्तने उन्नस्तने विष्टंभकारिणि विघाधिके श्मशानवासिनी कलय कलय विकलय विकलय कालग्राहिके सिँहे दक्षिणकालिके अनिरुद्दये ब्रूहि ब्रूहि जगच्चित्रिरे चमत्कारिणी हं कालिके करालिके घोरे कह कह तडागे तोये गहने कानने शत्रुपक्षे शरीरे मर्दिनि पाहि पाहि अम्बिके तुभ्यं कल विकलायै बलप्रमथनायै योगमार्ग गच्छ गच्छ निदर्शिके देहिनि दर्शनं देहि देहि मर्दिनि महिषमर्दिन्यै स्वाहा रिपुन्दर्शने दर्शय दर्शय सिँहपूरप्रवेशिनि वीरकारिणि क्रीँ क्रीँ क्रीँ हूं हूं ह्रीँ ह्रीँ फट् स्वाहा शक्तिरुपायै रोँ वा गणपायै रोँ रोँ रोँ व्यामोहिनि यन्त्रनिकेमहाकायायै प्रकटवदनायै लोलजिह्वायै मुण्डमालिनि महाकालरसिकायै नमो नमः ब्रम्हरन्ध्रमेदिन्यै नमो नमः शत्रुविग्रहकलहान् त्रिपुरभोगिन्यै विषज्वालामालिनी तन्त्रनिके मेधप्रभे शवावतंसे हंसिके कालि कपालिनि कुल्ले कुरुकुल्ले चैतन्यप्रभेप्रज्ञे तु साम्राज्ञि ज्ञान ह्रीँ ह्रीँ रक्ष रक्ष ज्वाला प्रचण्ड चण्डिकेयं शक्तिमार्तण्डभैरवि विप्रचित्तिके विरोधिनि आकर्णय आकर्णय पिशिते पिशितप्रिये नमो नमः खः खः खः मर्दय मर्दय शत्रून् ठः ठः ठः कालिकायै नमो नमः ब्राम्हयै नमो नमः माहेश्वर्यै नमो नमः कौमार्यै नमो नमः वैष्णव्यै नमो नमः वाराह्यै नमो नमः इन्द्राण्यै नमो नमः चामुण्डायै नमो नमः अपराजितायै नमो नमः नारसिँहिकायै नमो नमः कालि महाकालिके अनिरुध्दके सरस्वति फट् स्वाहा पाहि पाहि ललाटं भल्लाटनी अस्त्रीकले जीववहे वाचं रक्ष रक्ष परविधा क्षोभय क्षोभय आकृष्य आकृष्य कट कट महामोहिनिके चीरसिध्दके कृष्णरुपिणी अंजनसिद्धके स्तम्भिनि मोहिनि मोक्षमार्गानि दर्शय दर्शय स्वाहा ।। इस काली सहस्त्राक्षरी का नित्य पाठ करने से ऐश्वर्य,मोक्ष,सुख,समृद्धि,एवं शत्रुविजय प्राप्त होता है ।।

मंत्र आपका मित्र है साथ गुरू मंत्र तुम एक दोस्त देता है. एक मित्र प्रकाश और निर्वाह के लिए सूर्य के चारों ओर घूमने पृथ्वी की तरह होना चाहिए. प्रकाश अंधकार dispels और लोगों को शांति मिल जाए. तुम भी दुनिया पर ले सकते हैं लेकिन आप अपने खुद के बच्चों से हार रहे हैं. यह इसलिए होता है क्योंकि आप दोस्त बन गए हैं अपने बच्चों को. और अधिक ध्यान में एकाग्रता से ज्यादा महत्वपूर्ण अपने खुद के आचरण का अवलोकन है, यह सच पूजा है. एक मंत्र एक या शब्दों के शब्द श्रृंखला है. कौन फर्म के उद्देश्य से एक आदमी हो जाता है. तुम तुम मंदिरों में जाने के लिए देवताओं के सामने भीख माँगती हूँ. वह उन्हें दे, क्योंकि तुम अपने आप को खो दिया है सकते हैं शक्ति नहीं माद्दा वरशिप?. शक्ति है कि आप एक के लिए एक अच्छा इंसान होना स्थिति में डालता है पूजा. आपके आचरण में संतुलित रहें. असंतुलन तुम्हारे लिए अच्छा है कि नहीं, यह आपके परिवार के लिए. तुम एक और एक ग्यारह हो जाते हैं, दो नहीं के बराबर होती है एक से अधिक एक चाहिए. एक आध्यात्मिक आंदोलन संगठन और एक संगठन का संचालन करने के आकार का है. अच्छा समय और परिस्थितियों, सिद्धांतों क्या पालन करने के लिए और दूसरों के साथ सौदा कैसे सावधानी से विचार किया जाना चाहिए का मूल्यांकन. खुद वे गुमराह शास्त्रों करेगा के लिए अपने सिर के साथ भरने के लिए और तुम्हें एक बेकार जीवन जीने मत करो. एक हीन भावना का विकास करना. हम मंदिरों और तीर्थ स्थानों पर ऐसा करने से हम अलग भगवान के द्वारा बनाई गई करने के लिए देवता की पूजा के रूप में आदमी ने कल्पना पुरुषों धक्का में, पर जाएँ. इस दुरुपयोग लेकिन कुछ भी नहीं है. पत्थर का चिह्न आप बस तय की. और 'निष्क्रिय. जिस दिन तुम्हें पता है कि आप देवता हैं और उस आइकन अपने मन की धारणा है, आप और चिह्न एक भी बात बन जाएगी. दिन तुम परमेश्वर की सच्चाई का एहसास होगा, आप के लिए चिह्न पूजा संघर्ष और तुम अपने आप को करीब लाने में सफल हो जाएगा. तुम एक स्थिति में जहाँ आप बुरी बातें करने के लिए प्रेरित किया जाएगा में होगा. तुम परमात्मा होना चाहता हूँ. अंदर आप देख सकते हैं और भगवान के संतों और महात्मा साथ चैट करेंगे. आप को भगवान के पास रहते हैं, जबकि आप अपने काम में व्यस्त हो सकेंगे. तो फिर पैसे और सामग्री की पूजा आवश्यक नहीं होगा. जब से तुम अपने आप को अलग कर देना होगा, संतों और महात्मा चीजें है कि तुम कहना चाहिए बताओ कि तुम नहीं. वे तुम्हारा सबसे अच्छा प्रस्ताव नहीं लग रही है और करने की कोशिश करने के लिए आप का दोहन नहीं. जो लोग महलों और देशों में जो सामग्री अर्थ में ही कर रहे हैं का निर्माण करने के लिए, संतों और महात्मा नहीं कहना क्या किया जाना चाहिए. इन इमारतों को लूट लिया जाता है और अंततः इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया. झोपड़ियों के रहने वालों को इस तरह से नष्ट नहीं कर रहे हैं. साधु हम जो झोपड़ियों में रहते हैं. हम स्मृति सदा भी जब हम मर चुका है और चले गए हैं. जो लोग हमें का पालन करें हमारे जीवन का रास्ता स्वेच्छा से नेतृत्व करेंगे. जब मैं जीविका का कोई साधन के बिना था मैं खाने के लिए भीख माँगती हूँ और एक झोपड़ी में रहते थे. मैं खुद के साथ अंतरंग महसूस करने के लिए और अन्य दृष्टिकोण नहीं सीखा. अरे हाँ, अगर दूसरों को भी एक साथ नहीं रखा है, उन्हें प्यार करती हूँ. और प्रेम में कोई नियम या सीमाओं को जानता है. भगवान के द्वारा बनाई गई पुरुषों की ओर हमारा रवैया निर्दोष होना चाहिए. हम, हमारे जीवन के हर पल में, बाहर चाहिए अकुलीन भावनाओं को ब्लॉक. हम के लिए सोचा और कार्रवाई की पवित्रता को विकसित करने, और खुद हमारे आचरण में प्रतिबिंबित की जरूरत है. बच्चे बाहर हमारे सांसारिक वस्तुओं डाल सकते हैं, लेकिन हम उन पर सही नहीं डालना आचरण कर सकते हैं. यह कुछ है कि वे खुद को विकसित किया है. और इस के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी. वे भुगतना होगा. हम माल कि अच्छा असीम भक्ति, विश्वास, ज्ञान हैं ही, गुरु, हमारी संस्कृति और हमारे राष्ट्र की समृद्धि की सेवा. कम प्रवृत्ति है कि हम है के कारण, हम हमारी मदद करने में हम इन वस्तुओं में लाए देने में असमर्थ थे. इन एकत्रित हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. और 'हमारी विरासत. यदि हम अपने आप को दूसरों के लिए उपयोगी बनाने में असमर्थ रहे हैं, हमें कम से कम अपने आप के लिए उपयोगी हो. रहें सतर्क, देखो अगर तुम गलत दिशा में है या गलत कंपनियों ने भाग लिया अगर जा रहे हैं. यदि आप से परहेज किया है क्या आप अपने आप को एक एहसान किया है. पवित्रता यह है. मैं एक बार मेरे गुरू से पूछा क्या यह पवित्रता बनाया गया था. उन्होंने कहा कि यह किताबी ज्ञान की बात नहीं थी. पवित्रता अभ्यास ही है. किताबें अभ्यास करने के लिए स्वतंत्र हैं. व्यावहारिक बातें जीवन में होती हैं. यह संभव है कि आप में से कुछ पसंद नहीं आया कि मैंने क्या कहा. सब कुछ है कि मैंने कहा कि मैं अपने गुरू से उधार लिया है. उसने मुझे दी सलाह है कि मैं अब समझ शुरू कर दिया. मुझे आशा है कि आप सुझाव मैंने तुम्हें दिया था या मैं तुम्हारी मदद नहीं कर सकते समझा है.

अथर्वशीर्ष की परम्परा में ‘गणपति अथर्वशीर्ष’ का विशेष महत्त्व है। प्रायः प्रत्येक मांगलिक कार्यों में गणपति-पूजन के अनन्तर प्रार्थना रुप में इसके पाठ की परम्परा है। यह भगवान् गणपति का वैदिक-स्तवन है। इसका पाठ करने वाला किसी प्रकार के विघ्न से बाधित न होता हुआ महापातकों से मुक्त हो जाता है। ।। श्री गणपत्यथर्वशीर्ष ।। ।। शान्ति पाठ ।। ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ।। ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।। स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।। ॐ तन्मामवतु तद् वक्तारमवतु अवतु माम् अवतु वक्तारम् ॐ शांतिः । शांतिः ।। शांतिः।।। ।। उपनिषत् ।। ।।हरिः ॐ नमस्ते गणपतये ।। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि। त्वमेव केवलं कर्ताऽसि। त्वमेव केवलं धर्ताऽसि। त्वमेव केवलं हर्ताऽसि। त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि। त्वं साक्षादात्माऽसि नित्यम् ।। १।। ऋतं वच्मि (वदिष्यामि)।। सत्यं वच्मि (वदिष्यामि)।। २।। अव त्वं माम् । अव वक्तारम् । अव श्रोतारम् । अव दातारम् । अव धातारम् । अवानूचानमव शिष्यम् । अव पश्चात्तात् । अव पुरस्तात् । अवोत्तरात्तात् । अव दक्षिणात्तात् । अव चोर्ध्वात्तात्। अवाधरात्तात्। सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात् ।।३। ।त्वं वाङ्ग्मयस्त्वं चिन्मयः। त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममयः। त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ।।४।। सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति। सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति। त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः। त्वं चत्वारि वाक्पदानि ।। ५।। त्वं गुणत्रयातीतः त्वमवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं मूलाधारः स्थिथोऽसि नित्यम्। त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यम्। त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम् ।। ६।। गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरम्।अनुस्वारः परतरः। अर्धेन्दुलसितम्। तारेण ऋद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः संधानम्। संहितासंधिः। सैषा गणेशविद्या। गणकऋषिः। निचृद्गायत्रीच्छंदः। गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः ।। ७।। एकदंताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दंतिः प्रचोदयात् ।। ८।। एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम् ।। रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम् ।। रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् ।। रक्तगंधानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितम् ।। भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम् ।। आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ।। एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ।। ९।। नमो व्रातपतये । नमो गणपतये । नमः प्रमथपतये । नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय । विघ्ननाशिने शिवसुताय । श्रीवरदमूर्तये नमो नमः ।। १०।। एतदथर्वशीर्षं योऽधीते ।। स ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। स सर्वतः सुखमेधते ।। स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते ।। स पंचमहापापात्प्रमुच्यते ।। सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।। प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ।। सायंप्रातः प्रयुंजानो अपापो भवति ।। सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति ।। धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति ।। इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम् ।। यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान् भवति सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत् ।। ११।। अनेन गणपतिमभिषिंचति स वाग्मी भवति ।। चतुर्थ्यामनश्नन् जपति स विद्यावान् भवति । स यशोवान् भवति ।। इत्यथर्वणवाक्यम् ।। ब्रह्माद्याचरणं विद्यात् न बिभेति कदाचनेति ।। १२ यो दूर्वांकुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ।। यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति ।। स मेधावान् भवति ।। यो मोदकसहस्रेण यजति स वाञ्छितफलमवाप्नोति ।। यः साज्यसमिद्भिर्यजति स सर्वं लभते स सर्वं लभते ।। १३।। अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति ।। सूर्यगृहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमंत्रो भवति ।। महाविघ्नात्प्रमुच्यते ।। महादोषात्प्रमुच्यते ।। महापापात् प्रमुच्यते ।। स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति ।। य एवं वेद इत्युपनिषत् ।। १४।। ॐ सहनाववतु ।। सहनौभुनक्तु ।। सह वीर्यं करवावहै ।। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।। ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।। स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ।। ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।। स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।। ॐ शांतिः । शांतिः ।। शांतिः ।। ।। श्रीगणपत्यथर्वशीर्षं ।।...

|| राम लक्ष्मण सीता स्तुति || जय श्री हनुमान..! ======================== जय श्री राम ! शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् | रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् | सीता माता की जय ! नमामि चन्द्रनिलयां सीतां चन्द्रनिभाननां ॥ आल्हादरूपिणीम् सिद्धिं शिवाम् शिवकरीं सतीम् ॥ नमामि विश्वजननीम् रामचन्द्रेष्टवल्लभां ॥ सीतां सर्वानवद्यान्गीम् भजामि सततं हृदा ॥ जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुना निधान की॥ ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥ जय श्री लक्ष्मण ! बंदउँ लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता।। रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका।। सेष सहस्त्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन।। सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर।। सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम। मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम।। जय श्री हनुमान..! अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् | सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि | संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा। दीनदयाल बिरिदु सम्भारी ! हरहु नाथ मम संकट भारी !! मंगल भवन अमंगल हारी| द्रबहु सुदसरथ अजिर बिहारी | दीनदयाल बिरिदु सम्भारी ! हरहु नाथ मम संकट भारी !! राम सिया राम सिया राम जय जय राम! राम सिया राम सिया राम जय जय राम! —

भगवती काली की कृपा-प्राप्ति का मन्त्र चमत्कारी महा-काली सिद्ध अनुभूत मन्त्र “ॐ सत् नाम गुरु का आदेश। काली-काली महा-काली, युग आद्य-काली, छाया काली, छूं मांस काली। चलाए चले, बुलाई आए, इति विनिआस। गुरु गोरखनाथ के मन भावे। काली सुमरुँ, काली जपूँ, काली डिगराऊ को मैं खाऊँ। जो माता काली कृपा करे, मेरे सब कष्टों का भञ्जन करे।” सामग्रीः लाल वस्त्र व आसन, घी, पीतल का दिया, जौ, काले तिल, शक्कर, चावल, सात छोटी हाँड़ी-चूड़ी, सिन्दूर, मेंहदी, पान, लौंग, सात मिठाइयाँ, बिन्दी, चार मुँह का दिया। विधिः उक्त मन्त्र का सवा लाख जप ४० या ४१ दिनों में करे। पहले उक्त मन्त्र को कण्ठस्थ कर ले। शुभ समय पर जप शुरु करे। गुरु-शुक्र अस्त न हों। दैनिक ‘सन्ध्या-वन्दन’ के अतिरिक्त अन्य किसी मन्त्र का जप ४० दिनों तक न करे। भोजन में दो रोटियाँ १० या ११ बजे दिन के समय ले। ३ बजे के पश्चात् खाना-पीना बन्द कर दे। रात्रि ९ बजे पूजा आरम्भ करे। पूजा का कमरा अलग हो और पूजा के सामान के अतिरिक्त कोई सामान वहाँ न हो। प्रथम दिन, कमरा कच्चा हो, तो गोबर का लेपन करे। पक्का है, तो पानी से धो लें। आसन पर बैठने से पूर्व स्नान नित्य करे। सिर में कंघी न करे। माँ की सुन्दर मूर्ति रखे और धूप-दीप जलाए। जहाँ पर बैठे, चाकू या जल से सुरक्षा-मन्त्र पढ़कर रेखा बनाए। पूजा का सब सामान ‘सुरक्षा-रेखा’ के अन्दर होना चाहिए। सर्वप्रथम गुरु-गणेश-वन्दना कर १ माला (१०८) मन्त्रों से हवन कर। हवन के पश्चात् जप शुरु करे। जप-समाप्ति पर जप से जो रेखा-बन्धन किया था, उसे खोल दे। रात्रि में थोड़ी मात्रा में दूध-चाय ले सकते हैं। जप के सात दिन बाद एक हाँड़ी लेकर पूर्व-लिखित सामान (सात मिठाई, चूड़ी इत्यादि) उसमें डाले। ऊपर ढक्कन रखकर, उसके ऊपर चार मुख का दिया जला कर, सांय समय जो आपके निकट हो नदी, नहर या चलता पानी में हँड़िया को नमस्कार कर बहा दे। लौटते समय पीछे मुड़कर नहीं देखें। ३१ दिनों तक धूप-दीप-जप करने के पश्चात् ७ दिनों तक एक बूँद रक्त जप के अन्त में पृथ्वी पर टपका दे और ३९वें दिन जिह्वा का रक्त दे। मन्त्र सिद्ध होने पर इच्छित वरदान प्राप्त करे। सावधानियाँ- प्रथम दिन जप से पूर्व हण्डी को जल में सायं समय छोड़े और एक-एक सपताह बाद उसी प्रकार उसी समय सायं उसी स्थान पर, यह हाँड़ी छोड़ी जाएगी। जप के एक दिन बाद दूसरी हाँड़ी छोड़ने के पश्चात् भूत-प्रेत साधक को हर समय घेरे रहेंगे। जप के समय कार के बाहर काली के साक्षात् दर्शन होंगे। साधक जप में लगा रहे, घबराए नहीं। वे सब कार के अन्दर प्रविष्ट नहीं होंगे। मकान में आग लगती भी दिखाई देगी, परन्तु आसन से न उठे। ४० से ४२वें दिन माँ वर देगी। भविष्य-दर्शन व होनहार घटनाएँ तो सात दिन जप के बाद ही ज्ञात होने लगेंगी। एक साथी या गुरु कमरे के बाहर नित्य रहना चाहिए। साधक निर्भीक व आत्म-बलवाला होना चाहिए।

संकट-निवारक काली-मन्त्र “काली काली, महा-काली। इन्द्र की पुत्री, ब्रह्मा की साली। चाबे पान, बजावे थाली। जा बैठी, पीपल की डाली। भूत-प्रेत, मढ़ी मसान। जिन्न को जन्नाद बाँध ले जानी। तेरा वार न जाय खाली। चले मन्त्र, फुरो वाचा। मेरे गुरु का शब्द साचा। देख रे महा-बली, तेरे मन्त्र का तमाशा। दुहाई गुरु गोरखनाथ की।” सामग्रीः माँ काली का फोटो, एक लोटा जल, एक चाकू, नीबू, सिन्दूर, बकरे की कलेजी, कपूर की ६ टिकियाँ, लगा हुआ पान, लाल चन्दन की माला, लाल रंग के पूल, ६ मिट्टी की सराई, मद्य। विधिः पहले स्थान-शुद्धि, भूत-शुद्धि कर गुरु-स्मरण करे। एक चौकी पर देवी की फोटो रखकर, धूप-दीप कर, पञ्चोपचार करे। एक लोटा जल अपने पास रखे। लोटे पर चाकू रखे। देवी को पान अर्पण कर, प्रार्थना करे- हे माँ! मैं अबोध बालक तेरी पूजा कर रहा हूँ। पूजा में जो त्रुटि हों, उन्हें क्षमा करें।’ यह प्रार्थना अन्त में और प्रयोग के समय भी करें। अब छः अङ्गारी रखे। एक देवी के सामने व पाँच उसके आगे। ११ माला प्रातः ११ माला रात्रि ९ बजे के पश्चात् जप करे। जप के बाद सराही में अङ्गारी करे व अङ्गारी पर कलेजी रखकर कपूर की टिक्की रखे। पहले माँ काली को बलि दे। फिर पाँच बली गणों को दे। माँ के लिए जो घी का दिया जलाए, उससे ही कपूर को जलाए और मद्य की धार निर्भय होकर दे। बलि केवल मंगलवार को करे। दूसरे दिनों में केवल जप करे। होली-दिवाली-ग्रहण में या अमावस्या को मन्त्र को जागृत करता रहे। कुल ४० दिन का प्रयोग है। भूत-प्रेत-पिशाच-जिन्न, नजर-टोना-टोटका झाड़ने के लिए धागा बनाकर दे। इस मन्त्र का प्रयोग करने वालों के शत्रु स्वयं नष्ट हो जाते हैं।

दर्शन हेतु श्री काली मन्त्र “डण्ड भुज-डण्ड, प्रचण्ड नो खण्ड। प्रगट देवि, तुहि झुण्डन के झुण्ड। खगर दिखा खप्पर लियां, खड़ी कालका। तागड़दे मस्तङ्ग, तिलक मागरदे मस्तङ्ग। चोला जरी का, फागड़ दीफू, गले फुल-माल, जय जय जयन्त। जय आदि-शक्ति। जय कालका खपर-धनी। जय मचकुट छन्दनी देव। जय-जय महिरा, जय मरदिनी। जय-जय चुण्ड-मुण्ड भण्डासुर-खण्डनी, जय रक्त-बीज बिडाल-बिहण्डनी। जय निशुम्भ को दलनी, जय शिव राजेश्वरी। अमृत-यज्ञ धागी-धृट, दृवड़ दृवड़नी। बड़ रवि डर-डरनी ॐ ॐ ॐ।।” विधि- नवरात्रों में प्रतिपदा से नवमी तक घृत का दीपक प्रज्वलित रखते हुए अगर-बत्ती जलाकर प्रातः-सायं उक्त मन्त्र का ४०-४० जप करे। कम या ज्यादा न करे। जगदम्बा के दर्शन होते हैं।

समस्त तन्त्र शक्ति के नाश के लिए मारण प्रयोगों को नष्ट करने के लिए कृत्याद्रोह नाम के तन्त्र उन्मूलन के लिए इस प्रयोग को किया जाता है I इससे तन्त्र के छ: प्रकार के अभिचार कर्मों का नाश होकर रक्षा की प्राप्ति होती है I मन्त्र : ॐ नमो भगवते पशुपतये ॐ नमो भूताधिपतये ॐ नमो खड्गरावण लं लं विहर विहर सर सर नृत्य नृत्य व्यसनं भस्मार्चित शरीराय घण्टा कपाल- मालाधराय व्याघ्रचर्मपरिधानाय शशांककृतशेखराय कृष्णसर्प यज्ञोपवीतिने चल चल बल बल अतिवर्तिकपालिने जहि जहि भुतान् नाशय नाशय मण्डलाय फट् फट् रुद्राद्कुशें शमय शमय प्रवेशय प्रवेशय आवेणय आवेणय रक्षांसि धराधिपति रुद्रो ज्ञापयति स्वाहा I शत्रुओं के प्रयोगों के द्वारा जो लम्बे समय से तरह- तरह के कष्ट झेलते आ रहे हैं और किसी प्रकार भी इससे मुक्ति नहीं मिल पा रही हो तो इस प्रयोग को अवश्य सम्पन्न करें I त्रिलोक विजयी रावण इसी मन्त्र के बल पर ही महारूद्र को प्रसन्न करके उस युग के तन्त्र- मन्त्र वेत्ता, ऋषि- मुनियों का भी सम्राट बना I

उच्छिष्ट गणपति प्रयोग प्रयोग करने में अत्यन्त सरल, शीघ्र फल को प्रदान करने वाला, अन्न और धन की वृद्धि के लिए, वशीकरण को प्रदान करने वाला भगवान गणेश जी का ये दिव्य तांत्रिक प्रयोग है I इसी सिद्धि के बल पर प्राचीन काल में साधु लोग थोड़े से प्रसाद से पूरे गांव को भरपेट भोजन करवा देते थे I इसकी साधना करते हुए मुह को जूठा रखा जाता है I विनियोग : ॐ अस्य श्रीउच्छिष्ट गणपति मंत्रस्य कंकोल ऋषि:, विराट छन्द : उच्छिष्टगणपति देवता सर्वाभीष्ट सिद्ध्यर्थे जपे विनियोग: I मन्त्र : ॐ गं हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा I अगर किसी पर तामसी कृत्या प्रयोग हुआ हो तो उच्छिष्ट गणपति शत्रु की गन्दी क्रियाओं को नष्ट करके रक्षा करते हैं I यदि आप भी तन्त्र द्वारा परेशान हैं तो संस्था के तान्त्रिकों द्वारा यह तांत्रिक साधना सम्पन्न करवा सकते हैं I

यदि नजर लगी हो तो - यदि एक स्वस्थ्य व्यक्ति अचानक अस्वस्थ्य हो जायें और उस पर चिकित्सा का प्रभाव नहीं हो रहा है तो समझना चाहिए कि उक्त व्यक्ति नजरदोष से ग्रसित है। ऐसी स्थिति में एक साबूत नींबू के उपर काली स्याही से 307 लिख दें और उस व्यक्ति के उपर उल्टी तरफ से 7 बार उतारें। इसके पश्चात उसी नींबू को चार भागों में इस प्रकार से काटें कि वह नीचें से जुड़े रहें। और फिर उसी नींबू को घर से बाहर किसी निर्जन स्थान पा फेंक दें। यह उपाय करने से पीडि़त व्यक्ति शीघ्र ही स्वस्थ्य हो जायेगा।यदि नजर लगी हो तो - इसके अलावा नज़र उतारने के लिए एक रोटी बनाएं और इसे एक तरफ से ही सेकें, दूसरी तरफ से कच्ची छोड़ दें। इसके सेके हुए भाग पर तेल या घी लगाकर और उस पर लाल मिर्च और नमक की दो- तीन डली रखकर नजर लगे व्यक्ति के ऊपर से सात बार उतार कर किसी चौराहे पर रख आएं। यदि नजर लगी हो तो- जिन व्यक्तियों को नजर अधिक लगती है, इन्हें सम्भव हो सके तो प्रत्येक दिन अन्यथा मंगलवार और शनिवार को श्री हनुमान जी के मंदिर में जाकर उनके चरणों से थोड़ा सा सिन्दूर लेकर अपने मस्तक पर धारण करना चाहिए ऐसा करने से नजर दोष से बचाव हो जाता है. यदि नजर लगी हो तो - जब कभी किसी छोटे बच्चों को नजर लग जाती है तो, वह दूध उलटने लगता है और दूध पीना बन्द कर देता है, ऐसे में परिवार के लोग चिंतित और परेशान हो जाते है। ऐसी स्थिति में एक बेदाग नींबू लें और उसको बीच में आधा काट दें तथा कटे वाले भाग में थोड़े काले तिल के कुछ दाने दबा दें। और फिर उपर से काला धागा लपेट दें। अब उसी नींबू को बालक पर उल्टी तरफ से 7 बार उतारें। इसके पश्चात उसी नींबू को घर से दूर किसी निर्जन स्थान पर फेंक दें। इस उपाय से शीघ्र ही लाभ मिलेगा।यदि नजर लगी हो तो -एक साफ रुमाल पर हनुमानजी के पांव का सिंदूर लगाएं और इस रुमाल पर दस ग्राम काले तिल, दस ग्राम काले उड़द, एक लोहे की कील, तीन साबूत लाल मिर्च लेकर उसकी पोटली बना लें। जिस व्यक्ति को नजर लगी हो उसके सिरहाने यह पोटली रख दें। चौबीस घंटे के बाद यह पोटली किसी नदी या बहते हुए जल में बहा दें। ऐसा करने से जल्द ही बुरी नज़र से प्रभावित व्यक्ति ठीक हो जायेगा| यदि बच्चे को नजर लगी हो और वह दूध नहीं पी रहा हो तो थोड़ा दूध एक कटोरी में लेकर बच्चे के ऊपर से सात बार उतार कर काले कुत्ते को पिला दें। बच्चा दूध पीने लगेगा। यदि नजर लगी हो तो - नजर लगे व्यक्ति को लिटाकर फिटकरी का टुकड़ा सिर से पांव तक सात बार उतारें। ध्यान रखें हर बार सिर से पांव तक ले जाकर तलुवे छुआकर फिर सिर से घुमाना शुरु करें। इस फिटकरी के टुकड़े को कण्डे की आग पर डाल दें। जैसे- जैसे वह फिटकरी आग में जलती जायेगी वैसे- वैसे बुरी नजर उतरती जायेगी| यदि नजर लगी हो तो - राई के कुछ दाने, नमक की सात डली और सात साबुत डंठल वाली लाल सूखी मिर्च बाएं हाथ की मुट्ठी में लेकर नजर लगे व्यक्ति को लिटाकर सिर से पांव तक सात बार उतारा करें और जलते हुए चूल्हे में झोंक दें। यह टोटका अनटोका करें। ध्यान रहे यह कार्य सिर्फ मंगलवार और रविवार को ही करें क्योंकि इस दिन यह अचूक रहता है| यदि नजर लगी हो तो - मिर्च, राई व नमक को पीड़ित व्यक्ति के सिर से वार कर आग में जला दें। चंद्रमा जब राहु से पीड़ित होता है तब नजर लगती है। मिर्च मंगल का, राई शनि का और नमक राहु का प्रतीक है। इन तीनों को आग (मंगल का प्रतीक) में डालने से नजर दोष दूर हो जाता है। यदि इन तीनों को जलाने पर तीखी गंध न आए तो नजर दोष समझना चाहिए। यदि आए तो अन्य उपाय करने चाहिए। टोटका तीन-यदि आपके बच्चे को नजर लग गई है और हर वक्त परेशान व बीमार रहता है तो लाल साबुत मिर्च को बच्चे के ऊपर से तीन बार वार कर जलती आग में डालने से नजर उतर जाएगी और मिर्च का धचका भी नहीं लगेगा।

अभिचार या ऊपरी बाधा हो तो- यदि आपके ऊपर किसी ने अभिचार कर दिया है, अथवा भूत, प्रेत आदि उपरी बाधा से पीड़ित है, तो अपने क्षेत्र के प्रसिद्द श्री हनुमान मंदिर में सिन्दूर का चोला चढाना चाहिए ऐसा पांच बार करें. सारी बाधाए एकदम समाप्त होने लगेंगी. अभिचार या ऊपरी बाधा हो तो- यदि आपके ऊपर अभिचार कर्म किये जाने की आशंका हो, तो शनिवार को दोपहर में किसी एकांत चौराहे पर नींबू काटकर उसके चार फांक कर ले और उसमे सिन्दूर डाल कर उसे चारों दिशाओं में फेंक दे. ऐसा करने से आपके शत्रु द्वारा किया गया अभिचार कर्म पूर्ण रूप से समाप्त हो जायगा. अभिचार या ऊपरी बाधा हो तो- शनिवार के दिन एक जालदार जटा वाला नारियल ले और बहते जल में काले वस्त्र में लपेटकर 100 ग्राम काले तिल,जो,उरद की दाल एक कील के साथ शनिवार को प्रवाहित कर दें। शनि, राहु,केतु जनित या कोई और ऊपरी बाधा होगी तो उतर जाएगी। अभिचार या ऊपरी बाधा हो तो-मंगलवार को एक नारियल सवा मीटर लाल वस्त्र में लपेटकर अपने ऊपर से साथ बार उतार कर हनुमान जी के चरणों में रख दें। किसी भी प्रकार की बाधा, नज़र दोष,ज्वर होगा उतर जाएगा।

क्या है पीपल के 11 पत्तों का राज शास्त्रों के अनुसार हनुमानजी शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवी-देवताओं में से एक हैं। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस के अनुसार माता सीता द्वारा पवनपुत्र हनुमानजी को अमरता का वरदान दिया गया है। इसी वरदान के प्रभाव से पवनपुत्र अष्टचिरंजीवी में शामिल हैं। कलयुग में हनुमानजी भक्तों की सभी मनोकामनाएं तुरंत ही पूर्ण करते हैं।यहां जानिए पीपल के 11 पत्तों का 1 चमत्कारी उपाय, जो हनुमानजी की प्रतिमा के सामने करना है। इस उपाय से आपकी सभी समस्याएं खत्म हो जाएंगी और आप मालामाल हो सकते हैं… बजरंगबली को प्रसन्न करने के लिए कई प्रकार के उपाय बताए गए हैं। श्रीराम के अनन्य भक्त हनुमानजी की कृपा प्राप्त होते ही भक्तों के सभी दुख दूर हो जाते हैं। पैसों से जुड़ी समस्याएं समाप्त हो जाती हैं। कोई रोग हो तो वह भी नष्ट हो जाता है। इसके साथ ही यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में कोई ग्रह दोष हो तो पवनपुत्र की पूजा से वह भी दूर हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति पैसों की तंगी का सामना करना रहा है तो उसे प्रति मंगलवार और शनिवार यह उपाय अपनाना चाहिए। निश्चित ही व्यक्ति की सभी समस्याएं धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं और व्यक्ति मालामाल हो सकता है। उपाय इस प्रकार है- सप्ताह के प्रति मंगलवार और शनिवार को ब्रह्म मुहूर्त में उठें। इसके बाद नित्य कर्मों से निवृत्त होकर किसी पीपल के पेड़ से 11 पत्ते तोड़ लें। ध्यान रखें पत्ते पूरे होने चाहिए, कहीं से टूटे या खंडित नहीं होने चाहिए। इन 11 पत्तों पर स्वच्छ जल में कुमकुम या अष्टगंध या चंदन मिलाकर श्रीराम का नाम लिखें। नाम लिखते समय हनुमान चालिसा का पाठ करें। इसके बाद श्रीराम नाम लिखे हुए इन पत्तों की एक माला बनाएं। पीपल के पत्तों की माला को किसी भी हनुमानजी के मंदिर जाकर वहां बजरंगबली को अर्पित करें। इस प्रकार यह उपाय हर मंगलवार और शनिवार को करते रहें। कुछ समय में सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने लगेंगे। ध्यान रखें उपाय करने वाला भक्त किसी भी प्रकार के अधार्मिक कार्य न करें। अन्यथा इस उपाय का प्रभाव समाप्त हो जाएगा और उचित लाभ प्राप्त नहीं हो सकेगा। साथ ही अपने कार्य और कर्तव्य के प्रति ईमानदार रहें।

सर्वारिष्ट निवारण स्तोत्र किसी भी देवता या देवी की प्रतिमा या यन्त्र के सामने बैठकर धूप दीपादि से पूजन कर इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये। विशेष लाभ के लिये ‘स्वाहा’ और ‘नमः’ का उच्चारण करते हुए ‘घृत मिश्रित गुग्गुल’ से आहुतियाँ दे सकते हैं| ‘श्रीभृगु संहिता’ के सर्वारिष्ट निवारण खण्ड में इस अनुभूत स्तोत्र के 40 पाठ करने की विधि बताई गई है। इस पाठ से सभी बाधाओं का निवारण होता है :- ॐ गं गणपतये नमः। सर्व-विघ्न-विनाशनाय, सर्वारिष्ट निवारणाय, सर्व-सौख्य-प्रदाय, बालानां बुद्धि-प्रदाय, नाना-प्रकार-धन-वाहन-भूमि-प्रदाय, मनोवांछित-फल-प्रदाय रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ गुरवे नमः, ॐ श्रीकृष्णाय नमः, ॐ बलभद्राय नमः, ॐ श्रीरामाय नमः, ॐ हनुमते नमः, ॐ शिवाय नमः, ॐ जगन्नाथाय नमः, ॐ बदरीनारायणाय नमः, ॐ श्री दुर्गा-देव्यै नमः।। ॐ सूर्याय नमः, ॐ चन्द्राय नमः, ॐ भौमाय नमः, ॐ बुधाय नमः, ॐ गुरवे नमः, ॐ भृगवे नमः, ॐ शनिश्चराय नमः, ॐ राहवे नमः, ॐ पुच्छानयकाय नमः, ॐ नव-ग्रह रक्षा कुरू कुरू नमः।। ॐ मन्येवरं हरिहरादय एव दृष्ट्वा द्रष्टेषु येषु हृदयस्थं त्वयं तोषमेति विविक्षते न भवता भुवि येन नान्य कश्विन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि। ॐ नमो मणिभद्रे। जय-विजय-पराजिते ! भद्रे ! लभ्यं कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ भूर्भुवः स्वः तत्-सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।। सर्व विघ्नं शांन्तं कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीबटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय महान्-श्याम-स्वरूपाय दिर्घारिष्ट-विनाशाय नाना प्रकार भोग प्रदाय मम (यजमानस्य वा) सर्वरिष्टं हन हन, पच पच, हर हर, कच कच, राज-द्वारे जयं कुरू कुरू, व्यवहारे लाभं वृद्धिं वृद्धिं, रणे शत्रुन् विनाशय विनाशय, पूर्णा आयुः कुरू कुरू, स्त्री-प्राप्तिं कुरू कुरू, हुम् फट् स्वाहा।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः। ॐ नमो भगवते, विश्व-मूर्तये, नारायणाय, श्रीपुरूषोत्तमाय। रक्ष रक्ष, युग्मदधिकं प्रत्यक्षं परोक्षं वा अजीर्णं पच पच, विश्व-मूर्तिकान् हन हन, ऐकाह्निकं द्वाह्निकं त्राह्निकं चतुरह्निकं ज्वरं नाशय नाशय, चतुरग्नि वातान् अष्टादष-क्षयान् रांगान्, अष्टादश-कुष्ठान् हन हन, सर्व दोषं भंजय-भंजय, तत्-सर्वं नाशय-नाशय, शोषय-शोषय, आकर्षय-आकर्षय, मम शत्रुं मारय-मारय, उच्चाटय-उच्चाटय, विद्वेषय-विद्वेषय, स्तम्भय-स्तम्भय, निवारय-निवारय, विघ्नं हन हन, दह दह, पच पच, मथ मथ, विध्वंसय-विध्वंसय, विद्रावय-विद्रावय, चक्रं गृहीत्वा शीघ्रमागच्छागच्छ, चक्रेण हन हन, पा-विद्यां छेदय-छेदय, चौरासी-चेटकान् विस्फोटान् नाशय-नाशय, वात-शुष्क-दृष्टि-सर्प-सिंह-व्याघ्र-द्विपद-चतुष्पद अपरे बाह्यं ताराभिः भव्यन्तरिक्षं अन्यान्य-व्यापि-केचिद् देश-काल-स्थान सर्वान् हन हन, विद्युन्मेघ-नदी-पर्वत, अष्ट-व्याधि, सर्व-स्थानानि, रात्रि-दिनं, चौरान् वशय-वशय, सर्वोपद्रव-नाशनाय, पर-सैन्यं विदारय-विदारय, पर-चक्रं निवारय-निवारय, दह दह, रक्षां कुरू कुरू, ॐ नमो भगवते, ॐ नमो नारायणाय, हुं फट् स्वाहा।। ठः ठः ॐ ह्रीं ह्रीं। ॐ ह्रीं क्लीं भुवनेश्वर्याः श्रीं ॐ भैरवाय नमः। हरि ॐ उच्छिष्ट-देव्यै नमः। डाकिनी-सुमुखी-देव्यै, महा-पिशाचिनी ॐ ऐं ठः ठः। ॐ चक्रिण्या अहं रक्षां कुरू कुरू, सर्व-व्याधि-हरणी-देव्यै नमो नमः। सर्व प्रकार बाधा शमनमरिष्ट निवारणं कुरू कुरू फट्। श्रीं ॐ कुब्जिका देव्यै ह्रीं ठः स्वाहा।। शीघ्रमरिष्ट निवारणं कुरू कुरू शाम्बरी क्रीं ठः स्वाहा।। शारिका भेदा महामाया पूर्णं आयुः कुरू। हेमवती मूलं रक्षा कुरू। चामुण्डायै देव्यै शीघ्रं विध्नं सर्वं वायु कफ पित्त रक्षां कुरू। मन्त्र तन्त्र यन्त्र कवच ग्रह पीडा नडतर, पूर्व जन्म दोष नडतर, यस्य जन्म दोष नडतर, मातृदोष नडतर, पितृ दोष नडतर, मारण मोहन उच्चाटन वशीकरण स्तम्भन उन्मूलनं भूत प्रेत पिशाच जात जादू टोना शमनं कुरू। सन्ति सरस्वत्यै कण्ठिका देव्यै गल विस्फोटकायै विक्षिप्त शमनं महान् ज्वर क्षयं कुरू स्वाहा।। सर्व सामग्री भोगं सप्त दिवसं देहि देहि, रक्षां कुरू क्षण क्षण अरिष्ट निवारणं, दिवस प्रति दिवस दुःख हरणं मंगल करणं कार्य सिद्धिं कुरू कुरू। हरि ॐ श्रीरामचन्द्राय नमः। हरि ॐ भूर्भुवः स्वः चन्द्र तारा नव ग्रह शेषनाग पृथ्वी देव्यै आकाशस्य सर्वारिष्ट निवारणं कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं श्रीं बटुक भैरवाय आपदुद्धारणाय सर्व विघ्न निवारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीवासुदेवाय नमः, बटुक भैरवाय आपदुद्धारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीविष्णु भगवान् मम अपराध क्षमा कुरू कुरू, सर्व विघ्नं विनाशय, मम कामना पूर्णं कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीबटुक भैरवाय आपदुद्धारणाय सर्व विघ्न निवारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ श्रीदुर्गा देवी रूद्राणी सहिता, रूद्र देवता काल भैरव सह, बटुक भैरवाय, हनुमान सह मकर ध्वजाय, आपदुद्धारणाय मम सर्व दोषक्षमाय कुरू कुरू सकल विघ्न विनाशाय मम शुभ मांगलिक कार्य सिद्धिं कुरू कुरू स्वाहा।। एष विद्या माहात्म्यं च, पुरा मया प्रोक्तं ध्रुवं। शम क्रतो तु हन्त्येतान्, सर्वाश्च बलि दानवाः।। य पुमान् पठते नित्यं, एतत् स्तोत्रं नित्यात्मना। तस्य सर्वान् हि सन्ति, यत्र दृष्टि गतं विषं।। अन्य दृष्टि विषं चैव, न देयं संक्रमे ध्रुवम्। संग्रामे धारयेत्यम्बे, उत्पाता च विसंशयः।। सौभाग्यं जायते तस्य, परमं नात्र संशयः। द्रुतं सद्यं जयस्तस्य, विघ्नस्तस्य न जायते।। किमत्र बहुनोक्तेन, सर्व सौभाग्य सम्पदा। लभते नात्र सन्देहो, नान्यथा वचनं भवेत्।। ग्रहीतो यदि वा यत्नं, बालानां विविधैरपि। शीतं समुष्णतां याति, उष्णः शीत मयो भवेत्।। नान्यथा श्रुतये विद्या, पठति कथितं मया। भोज पत्रे लिखेद् यन्त्रं, गोरोचन मयेन च।। इमां विद्यां शिरो बध्वा, सर्व रक्षा करोतु मे। पुरूषस्याथवा नारी, हस्ते बध्वा विचक्षणः।। विद्रवन्ति प्रणश्यन्ति, धर्मस्तिष्ठति नित्यशः। सर्वशत्रुरधो यान्ति, शीघ्रं ते च पलायनम्।।

अचूक टोटके (शीघ्र विवाह के उपाय ,विवाह विलम्ब से होने के योग होने पर) समय पर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने की इच्छा के कारण माता-पिता व भावी वर-वधू भी चाहते है कि अनुकुल समय पर ही विवाह हो जायें. कुण्डली में विवाह विलम्ब से होने के योग होने पर विवाह की बात बार-बार प्रयास करने पर भी कहीं बनती नहीं है. इस प्रकार की स्थिति होने पर शीघ्र विवाह के उपाय करने हितकारी रहते है. उपाय करने से शीघ्र विवाह के मार्ग बनते है. तथा विवाह के मार्ग की बाधाएं दूर होती है. उपाय करते समय ध्यान में रखने योग्य बातें :- 1. किसी भी उपाय को करते समय, व्यक्ति के मन में यही विचार होना चाहिए, कि वह जो भी उपाय कर रहा है, वह ईश्वरीय कृ्पा से अवश्य ही शुभ फल देगा. 2. सभी उपाय पूर्णत: सात्विक है तथा इनसे किसी के अहित करने का विचार नहीं है. 3. उपाय करते समय उपाय पर होने वाले व्ययों को लेकर चिन्तित नहीं होना चाहिए. 4. उपाय से संबन्धित गोपनीयता रखना हितकारी होता है. आईये शीघ्र विवाह के उपायों को समझने का प्रयास करें 1. हल्दी के प्रयोग से उपाय विवाह योग लोगों को शीघ्र विवाह के लिये प्रत्येक गुरुवार को नहाने वाले पानी में एक चुटकी हल्दी डालकर स्नान करना चाहिए. भोजन में केसर का सेवन करने से विवाह शीघ्र होने की संभावनाएं बनती है. 2. पीला वस्त्र धारण करना ऎसे व्यक्ति को सदैव शरीर पर कोई भी एक पीला वस्त्र धारण करके रखना चाहिए. 3. वृ्द्धो का सम्मान करना उपाय करने वाले व्यक्ति को कभी भी अपने से बडों व वृ्द्धों का अपमान नहीं करना चाहिए. 4. गाय को रोटी देना जिन व्यक्तियों को शीघ्र विवाह की कामना हों उन्हें गुरुवार को गाय को दो आटे के पेडे पर थोडी हल्दी लगाकर खिलाना चाहिए. तथा इसके साथ ही थोडा सा गुड व चने की पीली दाल का भोग गाय को लगाना शुभ होता है. 5. शीघ्र विवाह प्रयोग इसके अलावा शीघ्र विवाह के लिये एक प्रयोग भी किया जा सकता है. यह प्रयोग शुक्ल पक्ष के प्रथम गुरुवार को किया जाता है. इस प्रयोग में गुरुवार की शाम को पांच प्रकार की मिठाई, हरी ईलायची का जोडा तथा शुद्ध घी के दीपक के साथ जल अर्पित करना चाहिये. यह प्रयोग लगातार तीन गुरुवार को करना चाहिए. 6. केले के वृ्क्ष की पूजा गुरुवार को केले के वृ्क्ष के सामने गुरु के 108 नामों का उच्चारण करने के साथ शुद्ध घी का दीपक जलाना चाहिए. अथा जल भी अर्पित करना चाहिए. 7. सूखे नारियल से उपाय एक अन्य उपाय के रुप में सोमवार की रात्रि के 12 बजे के बाद कुछ भी ग्रहण नहीं किया जाता, इस उपाय के लिये जल भी ग्रहण नहीं किया जाता. इस उपाय को करने के लिये अगले दिन मंगलवार को प्रात: सूर्योदय काल में एक सूखा नारियल लें, सूखे नारियल में चाकू की सहायता से एक इंच लम्बा छेद किया जाता है. अब इस छेद में 300 ग्राम बूरा (चीनी पाऊडर) तथा 11 रुपये का पंचमेवा मिलाकर नारियल को भर दिया जाता है. यह कार्य करने के बाद इस नारियल को पीपल के पेड के नीचे गड्डा करके दबा देना. इसके बाद गड्डे को मिट्टी से भर देना है. तथा कोई पत्थर भी उसके ऊपर रख देना चाहिए. यह क्रिया लगातार 7 मंगलवार करने से व्यक्ति को लाभ प्राप्त होता है. यह ध्यान रखना है कि सोमवार की रात 12 बजे के बाद कुछ भी ग्रहण नहीं करना है.

1-अगर किसी का विवाह कुण्डली के मांगलिक योग के कारण नहीं हो पा रहा है, तो ऎसे व्यक्ति को मंगल वार के दिन चण्डिका स्तोत्र का पाठ मंगलवार के दिन तथा शनिवार के दिन सुन्दर काण्ड का पाठ करना चाहिए. इससे भी विवाह के मार्ग की बाधाओं में कमी होती है. 2-जिन व्यक्तियों को मंगली दोष है, अथवा मंगल दोष के कारण विवाह में विलम्ब अथवा दाम्पत्य सुख में कमी का अनुभव हो रहा हो, तो उन्हें शुक्ल पक्ष के मंगलवार को श्री हनुमान जी पर सिन्दूर चढ़ाना चाहिए. यह प्रयोग नौ बार करे, तो निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी. 9. छुआरे सिरहाने रख कर सोना यह उपाय उन व्यक्तियों को करना चाहिए. जिन व्यक्तियों की विवाह की आयु हो चुकी है. परन्तु विवाह संपन्न होने में बाधा आ रही है. इस उपाय को करने के लिये शुक्रवार की रात्रि में आठ छुआरे जल में उबाल कर जल के साथ ही अपने सोने वाले स्थान पर सिरहाने रख कर सोयें तथा शनिवार को प्रात: स्नान करने के बाद किसी भी बहते जल में इन्हें प्रवाहित कर दें. चाहे कोई प्रयोग कितना भी छोटा या बड़ा हो पर यदि वह आपके जीवन को आरामदायक बनाने में सहयोगी सा होता हैं तो उसे निश्चय ही जीवन में स्थान देना चाहिए .

।। अथ श्रीपञ्चमुखी-हनुमत्कवचम् ।। ।। श्री गणेशाय नमः ।। ।। ईश्वर उवाच।। अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि श्रृणु सर्वाङ्ग-सुन्दरी । यत्कृतं देवदेवेशि ध्यानं हनुमतः परम् ।। १।। पञ्चवक्त्र महाभीमं त्रिपञ्चनयनैर्युतम् । बाहुभिर्दशभिर्युक्तं सर्वकामार्थ सिद्धिदम् ।। २।। पूर्वं तु वानरं वक्त्र कोटिसूर्यसमप्रणम् । दंष्ट्राकरालवदनं भ्रकुटी कुटिलेक्षणम् ।। ३।। अस्यैव दक्षिणं वक्त्रं नारसिंहं महाद्भुतम् । अत्युग्र तेजवपुषं भीषणं भयनाशनम् ।। ४।। पश्चिमं गारुडं वक्त्रं वज्रतुण्डं महाबलम् । सर्वनागप्रशमनं विषभुतादिकृतन्तनम् ।। ५।। उत्तरं सौकर वक्त्रं कृष्णं दीप्तं नभोपमम् । पातालसिद्धिवेतालज्वररोगादि कृन्तनम् ।। ६।। ऊर्ध्वं हयाननं घोरं दानवान्तकरं परम् । खङ्ग त्रिशूल खट्वाङ्गं पाशमंकुशपर्वतम् ।। ७।। मुष्टिद्रुमगदाभिन्दिपालज्ञानेनसंयुतम् । एतान्यायुधजालानि धारयन्तं यजामहे ।। ८।। प्रेतासनोपविष्टं त सर्वाभरणभूषितम् । दिव्यमालाम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।। ९।। सर्वाश्चर्यमयं देवं हनुमद्विश्वतोमुखम् ।। १०।। पञ्चास्यमच्युतमनेक विचित्रवर्णं चक्रं सुशङ्खविधृतं कपिराजवर्यम् । पीताम्बरादिमुकुटैरुपशोभिताङ्गं पिङ्गाक्षमाद्यमनिशं मनसा स्मरामि ।। ११।। मर्कटेशं महोत्साहं सर्वशोक-विनाशनम् । शत्रुं संहर मां रक्ष श्रियं दापयमे हरिम् ।। १२।। हरिमर्कटमर्कटमन्त्रमिमं परिलिख्यति भूमितले । यदि नश्यति शत्रु-कुलं यदि मुञ्चति मुञ्चति वामकरः ।। १३।। ॐ हरिमर्कटमर्कटाय स्वाहा । नमो भगवते पञ्चवदनाय पूर्वकपिमुखे सकलशत्रुसंहारणाय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पंचवदनाय दक्षिणमुखे करालवदनाय नर-सिंहाय सकल भूत-प्रेत-प्रमथनाय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पंचवदनाय पश्चिममुखे गरुडाय सकलविषहराय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पंचवदनाय उत्तरमुखे आदि-वराहाय सकलसम्पतकराय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पंचवदनाय ऊर्ध्वमुखे हयग्रीवाय सकलजनवशीकरणाय स्वाहा । ।। अथ न्यासध्यानादिकम् । दशांश तर्पणं कुर्यात् ।। विनियोगः- ॐ अस्य श्रीपञ्चमुखी-हनुमत्-कवच-स्तोत्र-मंत्रस्य रामचन्द्र ऋषिः, अनुष्टुप छंदः, ममसकलभयविनाशार्थे जपे विनियोगः । ॐ हं हनुमानिति बीजम्, ॐ वायुदेवता इति शक्तिः, ॐ अञ्जनीसूनुरिति कीलकम्, श्रीरामचन्द्रप्रसादसिद्धयर्थं हनुमत्कवच मन्त्र जपे विनियोगः । कर-न्यासः- ॐ हं हनुमान् अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ वायुदेवता तर्जनीभ्यां नमः, ॐ अञ्जनी-सुताय मध्यमाभ्यां नमः, ॐ रामदूताय अनामिकाभ्यां नमः, ॐ श्री हनुमते कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ॐ रुद्र-मूर्तये करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः । हृदयादि-न्यासः- ॐ हं हनुमान् हृदयाय नमः, ॐ वायुदेवता शिरसे स्वाहा, ॐ अञ्जनी-सुताय शिखायै वषट्, ॐ रामदूताय कवचाय हुम्, ॐ श्री हनुमते नेत्र-त्रयाय विषट्, ॐ रुद्र-मूर्तये अस्त्राय फट् । ।। ध्यानम् ।। श्रीरामचन्द्र-दूताय आञ्जनेयाय वायु-सुताय महा-बलाय सीता-दुःख-निवारणाय लङ्कोपदहनाय महाबल-प्रचण्डाय फाल्गुन-सखाय कोलाहल-सकल-ब्रह्माण्ड-विश्वरुपाय सप्तसमुद्रनीरालङ्घिताय पिङ्लनयनामित-विक्रमाय सूर्य-बिम्ब-फल-सेवनाय दृष्टिनिरालङ्कृताय सञ्जीवनीनां निरालङ्कृताय अङ्गद-लक्ष्मण-महाकपि-सैन्य-प्राण-निर्वाहकाय दशकण्ठविध्वंसनाय रामेष्टाय महाफाल्गुन-सखाय सीता-समेत-श्रीरामचन्द्र-वर-प्रसादकाय षट्-प्रयोगागम-पञ्चमुखी-हनुमन्-मन्त्र-जपे विनियोगः । ॐ ह्रीं हरिमर्कटाय वं वं वं वं वं वषट् स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय फं फं फं फं फं फट् स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय हुं हुं हुं हुं हुं वषट् स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय खें खें खें खें खें मारणाय स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय ठं ठं ठं ठं ठं स्तम्भनाय स्वाहा । ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय लुं लुं लुं लुं लुं आकर्षितसकलसम्पत्कराय स्वाहा । ॐ ह्रीं ऊर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय रुं रुं रुं रुं रुं रुद्र-मूर्तये पञ्चमुखी हनुमन्ताय सकलजन-निरालङ्करणाय उच्चाटनं कुरु कुरु स्वाहा । ॐ ह्रीं ठं ठं ठं ठं ठं कूर्ममूर्तये पञ्चमुखीहनुमते परयंत्र-परतंत्र-परमंत्र-उच्चाटनाय स्वाहा । ॐ ह्रीं कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं स्वाहा । इति दिग्बंध: ।। ॐ ह्रीं पूर्व-कपिमुखाय पंच-मुखी-हनुमते टं टं टं टं टं सकल-शत्रु-संहारणाय स्वाहा ।। ॐ ह्रीं दक्षिण-मुखे पंच-मुखी-हनुमते करालवदनाय नरसिंहाय ॐ हां हां हां हां हां सकल-भूत-प्रेत-दमनाय स्वाहा ।। ॐ ह्रीं पश्चि।ममुखे वीर-गरुडाय पंचमुखीहनुमते मं मं मं मं मं सकलविषहरणाय स्वाहा ।। ॐ ह्रीं उत्तरमुखे आदि-वराहाय लं लं लं लं लं सिंह-नील-कंठ-मूर्तये पंचमुखी-हनुमते अञ्जनीसुताय वायुपुत्राय महाबलाय रामेष्टाय फाल्गुन-सखाय सीताशोकदुःखनिवारणाय लक्ष्मणप्राणरक्षकाय दशग्रीवहरणाय रामचंद्रपादुकाय पञ्चमुखीवीरहनुमते नमः ।। भूतप्रेतपिशाच ब्रह्मराक्षसशाकिनीडाकिनीअन्तरिक्षग्रहपरयंत्रपरतंत्रपरमंत्रसर्वग्रहोच्चाटनाय सकलशत्रुसंहारणाय पञ्चमुखीहनुमन् सकलवशीकरणाय सकललोकोपकारणाय पञ्चमुखीहनुमान् वरप्रसादकाय महासर्वरक्षाय जं जं जं जं जं स्वाहा ।। एवं पठित्वा य इदं कवचं नित्यं प्रपठेत्प्रयतो नरः । एकवारं पठेत्स्त्रोतं सर्वशत्रुनिवारणम् ।।१५।। द्विवारं च पठेन्नित्यं पुत्रपौत्रप्रवर्द्धनम् । त्रिवारं तु पठेन्नित्यं सर्वसम्पत्करं प्रभुम् ।।१६।। चतुर्वारं पठेन्नित्यं सर्वरोगनिवारणम् ।। पञ्चवारं पठेन्नित्यं पञ्चाननवशीकरम् ।।१७।। षड्वारं च पठेन्नित्यं सर्वसौभाग्यदायकम् । सप्तवारं पठेन्नित्यमिष्टकामार्थसिद्धिदम् ।।१८।। अष्टवारं पठेन्नित्यं सर्वसौभाग्यदायकम् । नववारं पठेन्नित्यं राजभोगमवाप्नुयात् ।।१९।। दशवारं च प्रजपेत्रैलोक्यज्ञानदर्शनम् । त्रिसप्तनववारं च राजभोगं च संबवेत् ।।२०।। द्विसप्तदशवारं तु त्रैलोक्यज्ञानदर्शनम् । एकादशं जपित्वा तु सर्वसिद्धिकरं नृणाम् ।।२१।। ।। इति सुदर्शनसंहितायां श्रीरामचन्द्रसीताप्रोक्तं श्रीपञ्चमुखीहनुमत्कत्वचं सम्पूर्णम् ।।.

यहाँ मैं बहुत ही सरल रूप में तंत्र, मंत्र, यन्त्र, तांत्रिक, तांत्रिक साधना,तांत्रिक क्रिया अथवा पञ्च मकार के बारे में संचिप्त में वर्णन करूँगा। तंत्र एक विज्ञानं है जो प्रयोग में विश्वास रखता है। इसे विस्तार में जानने के लिए एक सिद्ध गुरु की आवश्यकता है। अतः मैं यहाँ सिर्फ़ उसके सूक्ष्म रूप को ही दर्शा रहा हूँ। पार्वतीजी ने महादेव शिव से प्रश्न किया की हे महादेव, कलयुग मे धर्म या मोक्ष प्राप्ति का क्या मार्ग होगा? उनके इस प्रश्न के उत्तर मे महादेव शिव ने उन्हे समझते हुए जो भी व्यक्त किया तंत्र उसी को कहते हैं। योगिनी तंत्र मे वर्णन है की कलयुग मे वैदिक मंत्र विष हीन सर्प के सामान हो जाएगा। ऐसा कलयुग में शुद्ध और अशुद्ध के बीच में कोई भेद भावः न रह जाने की वजह से होगा। कलयुग में लोग वेद में बताये गए नियमो का पालन नही करेंगे। इसलिए नियम और शुद्धि रहित वैदिक मंत्र का उच्चारण करने से कोई लाभ नही होगा। जो व्यक्ति वैदिक मंत्रो का कलयुग में उच्चारण करेगा उसकी व्यथा एक ऐसे प्यासे मनुष्य के सामान होगी जो गंगा नदी के समीप प्यासे होने पर कुआँ खोद कर अपनी प्यास बुझाने की कोशिश में अपना समय और उर्जा को व्यर्थ करता है। कलयुग में वैदिक मंत्रो का प्रभाव ना के बराबर रह जाएगा। और गृहस्त लोग जो वैसे ही बहुत कम नियमो को जानते हैं उनकी पूजा का फल उन्हे पूर्णतः नही मिल पायेगा। महादेव ने बताया की वैदिक मंत्रो का पूर्ण फल सतयुग, द्वापर तथा त्रेता युग में ही मिलेगा. तब माँ पार्वती ने महादेव से पुछा की कलयुग में मनुष्य अपने पापों का नाश कैसे करेंगे? और जो फल उन्हे पूजा अर्चना से मिलता है वह उन्हे कैसे मिलेगा? इस पर शिव जी ने कहा की कलयुग में तंत्र साधना ही सतयुग की वैदिक पूजा की तरह फल देगा। तंत्र में साधक को बंधन मुक्त कर दिया जाएगा। वह अपने तरीके से इश्वर को प्राप्त करने के लिए अनेको प्रकार के विज्ञानिक प्रयोग करेगा। परन्तु ऐसा करने के लिए साधक के अन्दर इश्वर को पाने का नशा और प्रयोगों से कुछ प्राप्त करने की तीव्र इच्षा होनी चाहिए। तंत्र के प्रायोगिक क्रियाओं को करने के लिए एक तांत्रिक अथवा साधक को सही मंत्र, तंत्र और यन्त्र का ज्ञान जरुरी है।

साधना-सूत्र • गुह्य तन्त्रोपासना और इसकी सफलता इसकी गोपनीयता में निहित है । अत: इसके सूत्रों और सफलताओं को गोपनीय रखना ही श्रेयस्कर है । इन्हें प्रकट करने से सिद्धियाँ नष्ट हो जाती हैं । • इस रहस्यमयी उपासना को गुरु-निर्देश तथा गुरु-संरक्षा के बिना कदापि नहीं करना चाहिए । • इस उपासना का आधार शरीर-तन्त्र है, क्योंकि शक्ति-सम्पन्न ईश्वर आनन्दमय है और आनन्द का निवास शरीर में है । • शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक संयम ही गुह्य तन्त्रोपासना में सफलता प्राप्त करने की कुंजी है । • सृजन-शक्ति, आत्म-शक्ति और वैभव-शक्ति — तीनों की उपलब्धि का स्रोत योनि-देवी ही हैं । अत: जिस घर में योनिस्वरूपा मातृ-शक्ति अप्रसन्न रहती है; वहाँ अभाव, दुर्बलता और दरिद्रता का स्थायी निवास होता है । लिङ्गाष्टकम् ब्रह्ममुरारि-सुरार्चित -लिङ्गं निर्मल-भासित-शोभित-लिङ्गम् । जन्मज-दुःख-विनाशक-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।१।। देवमुनि-प्रवरार्चित-लिङ्गं कामदहं करुणाकरलिङ्गम् । रावणदर्प-विनाशन-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।२।। सर्वसुगन्धि - सुलेपित-लिङ्गं बुद्धिविवर्धन-कारण-लिङ्गम् । सिद्धसुरा-ऽसुरवन्दित-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।३।। कनक-महामणि-भूषित-लिङ्गं फणिपति-वेष्टित-शोभितलिङ्गम् । दक्ष-सुयज्ञ-विनाशक-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।४।। कुंकुम-चन्दनलेपितलिङ्गं पंकज-हार-सुशोभित-लिङ्गम् । सञ्चित-पाप-विनाशन-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।५।। देवगणार्चित-सेवित-लिङ्गं भावैर्भक्तिभिरैव च लिङ्गम् । दिनकरकोटि-प्रभाकर-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।६।। अष्टदलोपरि-वेष्टित-लिङ्गं सर्वसमुद्भव-कारण-लिङ्गम् । अष्टदरिद्र-विनाशित-लिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।७।। सुरगुरु-सुरवर-पूजित-लिङ्गं सुर-वन-पुष्प-सदार्चित लिङ्गम् । परात्परं परमात्मकलिङ्गं तत्प्रणमामि सदा शिवलिङ्गम् ।।८।। लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं य: पठैच्छिव - सन्निधौ । शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ।।९।।

तन्त्र की गुह्य-उपासनाएँ सनातन धर्म में आगम (तंत्र) और निगम (वेद)– ये दोनों ही मार्ग ब्रह्मज्ञान की उपलब्धि कराने वाले माने गये हैं । दोनों ही मार्ग अनादि परम्परा-प्राप्त हैं । किन्तु, कलियुग में आगम-मार्ग को अपनाये बिना सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती; क्योंकि आगम तो सार्वर्विणक है, जबकि निगम त्रैवर्णिक यानी केवल द्विजातियों के लिए है । कहा गया है– कलौ श्रुत्युक्त आचारस्त्रेतायां स्मृति सम्भव: । द्वापरे तु पुराणोक्त कलौवागम सम्भव: ।। अर्थात् , सतयुग में वैदिक आचार, त्रेतायुग में स्मृतिग्रन्थों में उपदिष्ट आचार, द्वापरयुग में पुराणोक्त आचार तथा कलियुग में तंत्रोक्त आचार मान्य हैं । आगम-शास्त्रों की उत्पत्ति भगवान शिव से हुई है । भगवान शिव ने अपने पाँचों मुखों (सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष और ईशान) के द्वारा भगवती जगदम्बा पार्वती को तन्त्र-विद्या के जो उपदेश दिये– वही पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर और ऊध्र्व नामक पाँच आम्नाय तन्त्रों के नाम से प्रचलित हुए । ये ‘पंच-तन्त्र’ भगवान श्रीमन्नारायण वासुदेव को भी मान्य हैं– आगतं शिव वक्त्रेभ्यो गतं च गिरिजा श्रुतौ । मतञ्च वासुदेवेन आगम संप्रवक्षते ।। तन्त्र के मुख्यत: ६४ भेद माने गये हैं । इन सभी का आविर्भाव भगवान शिव से ही हुआ है । कुछ विद्वान् ६४ योगिनियों को तन्त्र के इन ६४ भेदों का आधार मानते हैं । तन्त्र-सिद्धि की परम्परा में कतिपय साधना-पद्धतियाँ बड़ी रहस्यमयी हैं, जिन्हें प्रकट करना निषिद्ध माना गया है । इनके रहस्य को समझ पाना साधारण साधक के वश की बात नहीं है, बल्कि इससे उसके पथभ्रष्ट हो जाने की आशंका ही बनी रहती है । इन गुप्त एवं रहस्यमयी तन्त्र-साधना-पद्धतियों में दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्त, कौलाचार आदि को उत्तरोत्तर उत्तम फलदायी माना गया है । किन्तु, इनकी अनेकरूपता के कारण साधकों को श्रेष्ठ गुरु के निर्देश के बिना इन साधनाओं को नहीं करना चाहिए । योग और मोक्ष– साधकों के जीवन के ये दो मुख्य उद्देश्य होते हैं । जिन साधकों में योग की भावना प्रबल होती है, वह मन से मुक्ति की साधना नहीं कर सकते । क्योंकि उनका मन भोग में लिप्त रहेगा, भले ही बाह्य रूप से वे विरक्त क्यों न हो जायँ । ऐसे साधकों को भोग से विरक्ति उत्पन्न होनी चाहिए । किन्तु, भोग में डूबकर उसके रहस्य को जाने बिना उससे विरक्ति होना सम्भव नहीं है । भोगों की नश्वरता और उनके अल्पस्थायित्व को समझे बिना उनसे निवृृत्ति और विरक्ति हो पाना नितान्त असम्भव है । अत: भोग में भी भक्ति-भाव आ जाय– इसके लिए ‘देव’ और ‘देवी’ के भाव को हृदय में स्थापित करते हुए– ‘पूजा ते विषयोपभोगरचना’– की भावना के अनुसार साधना करते हुए भोग के भौतिक भाव को भुलाकर उसके आध्यात्मिक और आधिदैविक भाव की ओर अग्रसर होना ही इन गुह्य साधनाओं का परम लक्ष्य है । बलपूर्वक मन को वैराग्य में लगाने का विपरीत प्रभाव हो सकता है । अत: गुरु के निर्देशानुसार मर्यादित विषयोपभोग करते हुए मन्त्र-जप, ध्यान, पूजा, योग आदि का अभ्यास करते रहना चाहिए । इस प्रकार के अभ्यास से साधक को आत्मानंद की अनुभूति और आत्मज्ञान की सहसा उपलब्धि हो जाती है । क्योंकि सत्-चित्-आनन्द– ये तीन ब्रह्म के स्वरूप हैं, जो वास्तव में एक ही हैं । जहाँ भी आनन्द की अनुभूति है, वह ब्रह्म का ही रूप है–भले ही वह पूर्णरूप से स्पुâरित न हो । पूर्ण ब्रह्मानन्द और विषयानन्द– दोनों में अनन्तता और क्षणिकत्व का ही भेद है । निस्सन्देह बाह्य विषयानन्द तम है– मृत्यु है, किन्तु उसकी अनुभूति करनी पड़ती है । उससे गुजरे बिना उसके प्रति अनादर, अनिच्छा, अस्थायित्व और नश्वरता का भाव नहीं उभर सकता;क्योंकि विषय स्वाभाविक रूप से रमणीय तो होते ही हैं । इसीलिए वामाचारी तन्त्र-साधकों की मान्यता है कि– आनन्दं ब्रह्मणोरूपं तच्च देहे व्यवस्थितम् । इस तथ्य को जानने के बाद ही तन्त्राचार्यों ने नग्न-ध्यान, योनि-पूजा, लिंगार्चन, भैरवी-साधना, चक्र-पूजा और बङ्काौली जैसी गुह्य-साधना-पद्धतियों को स्वीकार किया है । सर्वप्रथम बौद्ध तान्त्रिकों की बङ्कायान शाखा द्वारा चीनाचार सम्बन्धी ग्रन्थों में इन गोपनीय साधनाओं को प्रकट किया गया । बाद में शाक्त-सम्प्रदाय के आचार्योें ने भी इन गुप्त साधनाओं का प्रकाश किया । फलस्वरूप पंच-मकार-साधना और वामाचार का प्रचलन हुआ । जगत के माता-पिता शिव-पार्वती के एकान्तिक संयोग और सत्संग के माध्यम से उद्भूत इन रहस्यमयी गुह्य साधनाओं का स्वरूप कालान्तर में विषयी और पाखण्डी लोगों की व्यभिचार-वृत्ति और काम-लोलुपता के कारण विकृत होता चला गया और तन्त्र की रहस्यमयी शक्तियों से अनभिज्ञ विलासी लोगों ने इसे कामोपभोग का माध्यम बना डाला और साधना की आड़ में अपनी दैहिक वासना की तृप्ति करने में लग गये । किन्तु, यह बात साधकों का अनुभवजन्य सत्य है कि यदि काम-ऊर्जा का और काम-भाव का सही-सही प्रयोग किया जाय तो इससे ब्रह्मानन्द की प्राप्ति व ब्रह्म-साक्षात्कार सम्भव है । वास्तव में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों को संस्कारों में परिवर्तित करके, उनकी दिशा बदलकर उनके माध्यम से भगवत्प्राप्ति या मोक्ष-प्राप्ति सहजता से की जा सकती है । ये प्रयोग त्याग, तपस्या, यज्ञानुष्ठान आदि की अपेक्षा ज्यादा आसान हैं, क्योंकि ये मानव की सहज वृत्तियों के अनुवूâल हैं ।

वाममार्गी तन्त्र-साधना में देह को साधना का मुख्य आधार माना गया है । देह में स्थित ‘देव’ को उसकी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ जागृत रखने के लिए ध्यान की पद्धति साधना का प्रारम्भिक चरण है । भगवान से हमें यह शरीर प्राप्त हुआ है, अत: भगवान भी इस शरीर से ही प्राप्त होंगें– यह तार्विâक एवं स्वाभाविक सत्य है । देह पर संस्कारों और वासनाओं का आवरण विद्यमान रहता है । ‘वासना’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘वसन’ शब्द से हुई है । वसन का अर्थ है– वस्त्र । वस्तुत: वस्त्र वासना को उद्दीप्त करते हैं । अत: वस्त्र-विहीन देह से आत्मस्वरूप का ध्यान करना साधक को वासना-मुक्त होने में सहायक होता है । इसी प्रकार योनि-पूजन, लिंगार्चन, भैरवी-साधना, चक्र-पूजा एवं बङ्काौली आदि गुप्त साधनाओं के द्वारा तन्त्र-मार्ग में मुक्ति के आनन्द का अनुभव प्राप्त करने की अन्यान्य विधियाँ भी वर्णित हैं । किन्तु, ये सभी विधियाँ योग्य व अनुभवी गुरु के सानिध्य में ही सम्पन्न हों,तभी फलदायी होती हैं । यहाँ हम तन्त्र-मार्ग की गुह्य साधनाओं में से केवल भैरवी-साधना पर थोड़ा-सा प्रकाश डालना चाहते हैं । अन्य गुह्य-साधनाओं पर चर्चा किसी अन्य पुस्तक या आलेख में करेंगे । दुर्गा सप्तशती में कहा गया है– ‘स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु’ । अर्थात् , जगत् में जो कुछ है वह स्त्री-रूप ही है, अन्यथा निर्जीव है । तांत्रिक साधना में स्त्री को शक्ति का प्रतीक माना गया है । बिना स्त्री के यह साधना सिद्धिदायक नहीं मानी गयी । तंत्र-मार्ग में नारी का सम्मान सर्वोच्च है, पूजनीय है । ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’– इस मान्यता को तंत्र-मार्ग में वास्तविक प्रतिष्ठा प्राप्त है । रूढ़िवादी सोच के लोग जहाँ नारी को ‘नरक का द्वार’कहते आये हैं, वहीं तंत्र-मार्ग में उसे देवी का स्वरूप मानते हुए, पुरुष के बराबर का अधिकार दिया गया है । तंत्र-मार्ग में किसी भी कुल की नारी को हेय नहीं माना गया है । भैरवी-चक्र-पूजा में सम्मिलित साधक/साधिका की योग्यता के विषय में ‘निर्वाण-तंत्र’में उल्लेख है– नात्राधिकार: सर्वेषां ब्रह्मज्ञान् साधकान् बिना । परब्रह्मोपासका: ये ब्रह्मज्ञा: ब्रह्मतत्परा: ।। शुद्धन्तकरणा: शान्ता: सर्व प्राणिहते रता: । निर्विकारा: निर्विकल्पा: दयाशीला: दृढ़व्रता: ।। सत्यसंकल्पका: ब्रह्मास्त एवात्राधिकारिण: ।। अर्थात्, चक्र-पूजा में सम्मिलित होने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को नहीं है । जो ब्रह्म को जानने वाला साधक है, उसके सिवाय इसमें कोई शामिल नहीं हो सकता । जो ब्रह्म के उपासक हैं, जो ब्रह्म को जानते हैं, जो ब्रह्म को पाने के लिए तत्पर हैं, जिनके मन शुद्ध हैं, जो शान्तचित्त हैं, जो सब प्राणियों की भलाई में लगे रहते हैं, जो विकार से रहित हैं, जो दुविधा से रहित हैं, जो दयावान् हैं, जो प्रण पर दृढ़ रहने वाले हैं, जो सच्चे संकल्प वाले हैं, जो अपने को ब्रह्ममय मानते हैं– वे ही भैरवी-चक्र-पूजा के अधिकारी हैं । भैरवी-साधना का उद्देश्य मानव-देह में स्थित काम-ऊर्जा की आणविक शक्ति के माध्यम से संसार की विस्मृति और ब्रह्मानन्द की अनुभूति प्राप्त करना है । भैरवी-साधना कई चरणों में सम्पन्न होती है । प्रारम्भिक चरण में इस साधना के साधक स्त्री-पुरुष एकान्त और सुुगन्धित वातावरण में निर्वस्त्र होकर एक दूसरे के सामने बिना एक दूसरे को स्पर्श किए दो-तीन पुâट की दूरी पर सुखासन या पद्मासन में बैठकर एक दूसरे की आँखों में टकटकी लगाते हुए गुरु-मन्त्र का जप करते हैं । निरन्तर ऐसा करते रहने से साधकों के अन्दर का काम-भाव ऊध्र्वगामी होकर दिव्य ऊर्जा के रूप में सहस्र- दल का भेदन करता है । इस साधना के दूसरे चरण में स्त्री-पुरुष साधक एक-दूसरे के अंग-प्रत्यंग का स्पर्श करते हुए ऊध्र्वगामी काम-भाव को स्थिर बनाये रखने का प्रयत्न करते हैं । इस बीच गुरु-मन्त्र का जप निरन्तर होते रहना चाहिए । कामोद्दीपन की बाहरी क्रियाओं को करते हुए स्खलन से बचने के लिए भरपूर आत्मसंयम रखना चाहिए । गुरु-कृपा और गुरु-निर्देशन में साधना करने से संयम के सूत्र आसानी से समझे जा सकते हैं । भैरवी-साधना के अन्तिम चरण में स्त्री-पुरुष साधकों द्वारा परस्पर सम-भोग (संभोग) की क्रिया सम्पन्न की जाती है । समान भाव, समान श्रद्धा, समान उत्साह और समान संयम की रीति से शारीरिक भोग की इस साधना को ही सम-भोग अथवा संभोग कहा गया है । यह क्रिया निरापद, निर्भीक, नि:संकोच, निद्र्वन्द्व और निर्लज्ज भाव से मंत्र-जप करते हुए सम्पन्न की जानी चाहिए । युगल-साधकों को पूर्ण आत्मसंयम बरतते हुए भरपूर प्रयास इस बात का करना चाहिए कि दोनों का स्खलन यथासंभव विलम्ब से और एकसाथ सम्पन्न हो । अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन में भैरवी-चक्र-पूजा के दौरान यह आसानी से संभव हो पाता है । भैरवी-चक्र की अनेक विधियाँ बतायी गई हैं, राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, वीरचक्र, पशुचक्र आदि । चक्र-भेद के अनुसार इस साधना में स्त्री के जाति-वर्ण, पूजा-उपचार, देश-काल, तथा फल-प्राप्ति में अन्तर आ जाता है । भैरवी चक्र-पूजा में सम्मिलित सभी उपासक एवं उपासिकाएँ भैरव और भैरवी स्वरूप हो जाते हैं, क्योंकि उनका देहाभिमान गल जाता है और वे देह-भेद या जाति-भेद से ऊपर उठ जाते हैं । विंâतु, चक्रार्चन के बाहर वर्णाश्रम-कर्म का पालन अवश्य करना चाहिए । भैरवी-चक्र-पूजा की सफलता पर एक अलौकिक अनुभव प्राप्त होता है । जैसे बिजली के दो तारों– फेस और न्यूटल– के टकराने से चिंगारी निकलती है, वैसे ही स्त्री-पुरुष दोनों के एकसाथ स्खलित होने से जो चरम-ऊर्जा उत्पन्न होती है, वह एक ही झटके में सहस्रदल का भेदन कर ब्रह्मानंद का साक्षात्कार करवा देने में सक्षम है । तंत्र-मार्ग में इसी को ‘ब्रह्म-सुख’कहा गया है– शक्ति-संगम संक्षोभात् शत्तäयावेशावसानिकम् । यत्सुखं ब्रह्मतत्त्वस्य तत्सुखं ब्रह्ममुच्यते ।। अर्थात्, शक्ति-संगम के आरम्भ से लेकर शक्ति-आवेश के अन्त तक जो ब्रह्मतत्व का सुख प्राप्त होता है, उसे ‘ब्रह्म-सुख’ कहा जाता है । सहस्र-दल-भेदन करने के लिए आज तक जितने भी प्रयोग हुए हैं, उन सभी प्रयोगों में यह प्रयोग सबसे अनूठा है ।

भैरवी-साधना सिद्ध होे जाने पर साधक को ब्रह्माण्ड में गूँज रहे दिव्य मंत्र सुनायी पड़ने लगते हैं, दिव्य प्रकाश दिखने लगता है तथा साधक के मन में दीर्घ अवधि तक काम-वासना जागृत नहीं होती । साथ ही उसका मन शान्त व स्थिर हो जाता है तथा उसके चेहरे पर एक अलौकिक आभा झलकने लगती है । प्रत्येक साधना में कोई-न-कोई कठिनाई अवश्य होती है । भैरवी-साधना में भी जो सबसे बड़ी कठिनाई है– वह है अपने आप को काबू में रखना तथा साधक व साधिका का एक साथ स्खलित होना। निश्चय ही गुरु-कृपा और निरन्तर के अभ्यास से यह सम्भव हो पाता है । भैरवी-साधना प्रकारान्तर से शिव-शक्ति की आराधना ही है । शुद्ध और समर्पित भाव से, गुरु-आज्ञानुसार साधक यदि इसको आत्मसात् करें तो जीवन के परम लक्ष्य– ब्रह्मानंद की उपलब्धि उनके लिए सहज सम्भव हो जाती है । किन्तु, कलिकाल के कराल-विकराल जंजाल में फंसे हुए मानव के लिए भैरवी-साधना के रहस्य को समझ पाना अति दुष्कर है । यंत्रवत् दिनचर्या व्यतीत करने वाले तथा भोगों की लालसा में रोगों को पालने वाले आधुनिक जीवन-शैली के दास भला इस दैवीय साधना के परिणामों से वैâसे लाभान्वित हो सकते हैं ? इसके लिए शास्त्र और गुरु-निष्ठा के साथ-साथ गहन आत्मविश्वास भी आवश्यक है । प्रस्तुत कुंजिका में उल्लिखित स्तोत्र एवं सहस्रनाम के नित्य-पाठ से साधक की निष्ठा निरंतर पुष्ट होती जाती है और उसके ह्य्दय में आत्मस्वरूप का प्रकाश जागृत होने लगता है । साधना-पथ पर आरूढ़ होने के लिए यही तो चाहिए !

https://youtu.be/XfpY7YI9CHc

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