Monday 30 August 2021

तन्त्रों के अनुसार ‘ग्रहण-पुरश्चरण

तन्त्रों के अनुसार ‘ग्रहण-पुरश्चरण
१॰ गायत्री-तन्त्रः ग्रहण में जप करने से साधक ब्रह-भाव से मुक्त हो जाता है। ‘ग्रहण-कालीन जप’ के बाद दशांश आदि की आवश्यकता नहीं है। ग्रहण-कालीन जप अनन्त-स्वरुप होता है। अतः अनन्त का दशांश सम्भव नहीं है।
२॰ शाक्तानन्द-तरंगिणीः ग्रहण-काल को देखकर स्नान, सन्ध्या, प्राणायाम, भूत-शुद्धि, पूजा आदि सबको छोड़कर, केवल ‘मानस संकल्प’ कर जप करे, अन्यथा ‘पुण्य-काल हाथ से निकल जायेगा। पञ्चांग से विहीन होने पर भी ‘ग्रहण-कालीन जप’ सिद्ध होता है।
ग्रहण-काल में मन्त्र, कवच, स्तव, ध्यान आदि का एक बार उच्चारण करने पर ही दश कोटि बार उच्चारण का फल मिलता है। अतः ग्रहण-कालीन जप-पाठ की संख्या का ध्यान न रखे। जितना भी जप सम्भव हो, करें। होम, अभिषेक, तर्पण, ब्राह्मण-भोजन आदि ‘ग्रहण-कालीन-पुरश्चरण’ के सम्बन्ध में आवश्यक नहीं है। संकल्प भी मानस ही करना चाहिये।
३॰ गन्धर्व-तन्त्रः ग्रहण-काल के पूर्व उपवास रखकर, समुद्र-गामी नदी में नाभि तक गहरे जल में खड़े होकर, ग्रहण के आदि से लेकर मोक्ष तक एकाग्र होकर मन्त्र का जप करे। जप के दशांश से यथा-विधि होम करे। होम न कर सके तो दशांश का दोगुना जप करे। होम का दशांश तर्पण तद्दशांश ब्राह्मण-भोजन कराए। गुरु-देव को दक्षिणा प्रदान कर, विप्रों को तर्पण कराए।
४॰ यामलः शुद्ध जल में स्नान करे। पवित्र स्थान में बैठकर ‘ग्रहण-ग्रास’ से ‘ग्रहण-मुक्ति’ तक एकाग्र मन से जप करे।
ग्रहण से पूर्व उपवास करे अथवा फल, दुग्धादि भोजन करे। ग्रहण-कालीन-पुरश्चरण उपवास के बगैर भी किया जा सकता है।
५॰ काली तन्त्रः ग्रहण में ग्रास से मोक्ष होने तक जप करे। ग्रहण के बाद होम, तर्पण, अभिषेक और ब्राह्मण-भिजन का विधान है। यह ग्रहण-पुरश्चरण ‘पशु’ और ‘वीर’ दोनों भावों से कर सकते हैं।
६॰ पुरश्चरण-रसोल्लासः बुद्धिमान् साधक चन्द्र-सूर्य के ग्रहण-काल में अवश्य जप करे। ग्रहण-काल में ग्रास होने के समय से मोक्ष होने तक जप करे। इससे साधक अणिमादि सिद्धियों का अधिकारी बन जाता है।
ग्रहण-काल में जप हेतु विशेष बातें-
१॰ पहले स्नानादि करके संकल्प करें।
२॰ ग्रहण में जप मानसिक करे। पाठ या वाचिक जप न करे।
३॰ ग्रहण के बाद जप का दशांश हवन, तद्दशांश तर्पण, मार्जन तथा ब्राह्मण-भोजन कराए।
४॰ ग्रहण काल में नित्य किये जाने वाले मन्त्र का जप अवश्य करना चाहिए।
५॰ शाबर-मन्त्र ग्रहण काल में सरलता से सिद्ध होते हैं।
६॰ ग्रहण सनय में भोजन नहीं करना चाहिए। नारियल, दूध, दही, घृत से पके अन्न और मणि में स्थित जल ‘राहु’ से दूषित नहीं होते। ग्रहण-काल में ‘कुश’ डालने से वस्तुएँ अपवित्र नहीं होती।
७॰ ग्रहण-काल में यदि किसी के यहाँ कोई बच्चा पैदा हुआ हो अथवा कोई मे गया हो, तो भी जप करे। ग्रहण-काल में जप हेतु अशौच नहीं माना जाता।
८॰ ग्रहण में बालक, वृद्ध और रोगी के कोई कोई नियम नहीं है।
९॰ ग्रहण काल में जपनीय मन्त्र में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिये, उसे मूल रुप में ही जपना चाहिए।
१०॰ ग्रहण में जप करने के बाद ‘दान’ करना चाहिए। दान-मन्त्र इस प्रकार है-
“तमो-मय महा॒भीम, सोम-सूर्य-विमर्दन! हेम-तार-प्रदानेन, मम शान्ति-प्रदो भव।।
विधुं-तुद नमस्तुभ्यं, सिंहिका-नन्दनाच्युत! दानेनानेन नागस्य, रक्ष मां वेधजाद् भयात्।।

श्रीगुरूदेवमहिमा

श्रीगुरूदेवमहिमा 
श्रीगुरुदेव के श्री चरणकमलो मे कोटि कोटि प्रणाम शिष्य का स्वीकार करे ।।।।
जो गुरुचरणकृपा से रहित हैं वे मेरी आज्ञा से विनष्ट हो जाते हैं । वस्तुतः गुरुचरणपादुका नष्ट होने से रक्षा करती है अतः गुरुचरणसेवा सबसे बडा़ तप है । गुरु के प्रसन्न होने मात्र से सारी सिद्धि प्राप्त हो जाती है इसमें संशय नहीं ॥१८८ – १८९॥
मैं ही गुरु हूँ , मैं ही देव हूँ , मैं ही मन्त्रार्थ हूँ , नाना शास्त्रों के अर्थ को न जानने वाले जो लोग इनमें भिन्न बुद्धि रखते हैं वे नरक में पड़ते हैं । हे प्रभो ! सभी विद्याओं की प्राप्ति का मूल जैसे दीक्षा है , वैसे ही स्वतन्त्र का मूल गुरु है किं बहुना गुरु ही आत्मा है इसमें संशय नहीं ॥१८९ – १९१॥
अपनी ही आत्मा अपना बन्धु है और अपनी ही आत्मा अपना शत्रु है । अपने द्वारा जिस कर्म को जिस भाव से किया जाता है उसी भाव से सिद्धि मिलती है । चाहे हीनाङ्र , कपटी , रोगी एवं बहुभोजी तथा शीलरहित ही साधक क्यों न हो मेरी उपासना करते हुये उसे उपविद्या का अभ्यास करते रहना चाहिये । धन , धान्य , सुत , वित्त , राज्य तथा ब्राह्मण भोजन अपने कल्याण के लिये प्रयुक्त करना चाहिये । अन्य की चिन्ता नहीं करनी चाहिये क्योंकी वह निष्फल है । नित्यश्राद्ध करने वाला धर्मशील मनुष्य सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ है ॥१९१ – १९४॥
पवित्र आचरण वाला , मेरे सिद्धपीठों में भ्रमण करने वाला महीपाल यदि मेरे उन उन पीठों में जाकर मेरा दर्शन करे , तो अव्यक्त
( सूक्ष्म ) मण्डल में रहने वाली समस्त सिद्धियाँ उसके हस्तगत हो जाती हैं , क्योंकि महामाया के प्रसन्न होने पर अकस्मात् ‍ सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥१९५ – १९६॥
भाव प्रशंसा — अथवा , महावीरभाव में अथवा महाधीर साधक को दिव्यभाव में स्थित होने से सिद्धि मिलती है , अथवा पशुभाव में स्थित मन्त्रज्ञ साधक मुझे अपने हृदयरूपी पीठ में निवास करावे तब सिद्धि प्राप्त होती है । मनोरमभावत्रय ( पशुभाव , वीरभाव और दिव्यभाव ) ही क्रिया को सफल बनाते हैं , अथवा , हे भैरव ! दिव्यभाव और वीरभाव भी क्रिया को फलवती बनाते हैं ॥१९७ – १९८॥
हीन जाति में उत्पन्न पशुभाव वाले तथा वीर भाव वाले मुझे प्राप्त करते हैं । किन्तु शास्त्रों से अभिभूत चित्त वाले इस कलियुग में मेरा दर्शन नहीं प्राप्त कर सकते । कोई हजारों वर्ष पर्यन्त लगे रहने पर भी शास्त्रों का अन्त नहीं प्राप्त कर सकता । एक तो तर्कादि अनेक शास्त्र हैं और अपेक्षाकृत मनुष्य की आयु अत्यन्त स्वल्प है तथा उसमें भी करोडों विघ्न हैं ॥१९९ – २००॥
इस कारण जिस प्रकार हंस जल में से क्षीर को अलग कर लेता है उसी प्रकार शास्त्रों के सार का ज्ञान कर लेना चाहिए । इस घोर कलियुग में दिव्य और वीरभाव के सहारे अपने चित्त का महाविद्या में लगाये हुये मेरे महाभक्त महाविद्या के परम पद का दर्शन कर लेते हैं ॥२०१ – २०२॥
मौन धारण करने वाले सर्वदा साधन में लगे हुये सज्जन दिव्य और वीरभाव के स्वभाव से मेरे चरण कमलों का दर्शन कर लेते हैं । बहुत बडे़ उत्तम फल की आकांछा रखने वाले ब्राह्मणों को दो भाव ग्राह्य है अथवा अवधूतों के लिये भी दो ही भाव कहे गये हैं । इन दो भाव के प्रभाव से साधक मनुष्य महायोगी हो जाता है । किं बहुना , भाव द्वय को सिद्ध कर लेने पर मूर्ख भी वाचस्पति हो जाता है ॥२०२ – २०५॥
हे महादेव ! जो तन्त्रार्थ से सिद्ध किये गये सभी वर्णों के लिए विहित दो भाव को जानते हैं , वे साक्षात् ‍ रुद्र हैं , इसमें संशय नहीं । भावद्वय सभी भावज्ञों का साधन है । भाव को जानने वाले साधक भक्तियोग के इन्द्र हैं वे अपने तन्त्रार्थ के पारदर्शी होते हैं । नित्या उन्मत्त और जड़ के समान बने रहते हैं ॥२०५ – २०७॥
( जो भाव नहीं जानते वे इस प्रकार हैं ) जैसे वृक्ष फूल धारण करता है किन्तु उसकी गन्ध नासिका ही जानती है । इसी प्रकार तत्त्वशास्त्र के पढ़ने वाले तो बहुत हैं पर भाव के जानकार कोई कोई होते हैं । जिस प्रकार बुद्धिहीन की पढा़ई और अन्धे को आदर्श ( दर्पण ) का दर्शन , व्यर्थ होता है उसी प्रकार प्रज्ञावानों को भी धर्मशास्त्र का ज्ञान बन्धन का कारण हो जाता है ॥२०७ – २०९॥
यह तत्त्व इस प्रकार हो सकता है यही शास्त्रार्थ का निश्चयज्ञान है । इस प्रकार वाक् ‌ पति अपने मन से मैं कर्त्ता हूँ , मैं आत्मा हूँ , मैं सर्वव्यापी हूँ इस प्रकार के स्वभाव की चिन्ता करते हैं ॥२०९ – २१०॥
प्रथम पटल – गुरूमहिमा २
गुरूमहिमा २
जब सौदामनी के समान ( क्षणिक ) तेज से युक्त शास्त्र ज्ञानी एक सहस्त्रवर्ष पर्यन्त देखता है तभी ( तन्त्रवेत्ता एवं भावज्ञ ) महाज्ञानी एक चन्द्र को सहस्त्र चन्द्र के समान देखता है । करोड़ों वर्ष तक इस प्रकार तपस्या करने से मनुष्य जो फल प्राप्त करता है वह सभी फल मेरे चरणों के रज का एक क्षण मात्र ध्यान करने से उसे प्राप्त हो जाता है ॥२११ – २१२॥
यदि कोई आनन्द बढा़ने वाले एवं त्रिकोण के आधार में ( कुण्डलिनी ) स्थित तेज वाले मेरे कामरूप पीठ मंं , जहाँ जल के बुदबुद के समान शब्द होता है तथा जो अनन्त मङ्गलात्मक है , वहाँ सर्वत्र विचरण करे तो वह गणेश और कार्त्तिकेय के समान मेरा प्रिय बन कर मेरा दास हो जाता है और भक्तों में इन्द्र बन जाता है ॥२१३ – २१४॥
यदि कोई साधक मेरे चरणकमलों को प्राप्त करना चाहता है तो साट्टहास एवं विकटाक्ष रूप उपपीठ , जिसका नाम कङ्काल है वहाँ पर विचरण करे । ज्वालामुखी नाम का महापीठ मेरा अत्यन्त प्रिय है जो मेरी संतुष्टि के लिये वहाँ भ्रमण करता है वह निश्चय ही योगी हो जाता है ॥२१५ – २१६॥
दोनों भावों का खान रूप ज्वालामुख्यादिपीठ में जो साधकेन्द्र भ्रमण करते हैं वे अवश्य ही सभी साधकों में श्रेष्ठ एवं सिद्ध हो जाते हैं इसमें संशय नहीं । त्रैलोक्य की सिद्धि चाहने वालों के लिये भाव से बढ़ कर और कोई पदार्थ नहीं क्योंकि भाव ही परमज्ञान और सर्वोत्तम ब्रह्मज्ञान है ॥२१७ – २१८॥
यदि भाव का ज्ञान नहीं हुआ तो करोड़ों कन्या दान से किं वा वाराणसी की सौ बार परिक्रमा से अथवा कुरुक्षेत्र में यात्रा करने से क्या लाभ ? भावद्वयज्ञान के बिना गया में श्राद्ध एवं दान से या अनेक पीठों में भ्रमण करने से भी कोई लाभ नहीं । बहुत क्या कहें , यदि भाव ज्ञान नहीं हुआ तो अनेक प्रकार के होम और क्रिया से भी क्या ? भाव से ज्ञान उत्पन्न होता है । ज्ञान होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥२१९ – २२१॥
गुरु महिमा — आत्मा से , मन से एवं वाणी से गुरु ईश्वर कहा जाता है । ध्यान ही सायुज्य है और मन को लय कर देना ’ मोक्ष ’ कहा जाता है ॥२२१ – २२२ ॥
गुरु की प्रसन्नता मात्र से यहाँ ( कुण्डलिनी ) शक्ति अत्यन्त संतुष्ट हो जाती है और जब साधक पर शक्ति संतुष्ट हो जाती है तो उसे ’ मोक्ष ’ अवश्य प्राप्त हो जाता है ॥२२२ – २२३॥
इस सारे संसार का मूल गुरु है । समस्त तपस्याओं का मूल गुरु है । उत्तम और जितेन्द्रिय साधक गुरु के प्रसन्न होने मात्र से मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥२२३ – २२४॥
इसलिये साधक गुरु की आज्ञा का कभी उल्लंघन न करे तथा उनका उत्तर न दे । दिन रात दास के समान गुरु की आज्ञा का पालन करे । बुद्धिमान साधक उनके कहे गये अथवा बिना कहे कार्थों की उपेक्षा न करे ॥२२४ – २२५॥
उनके चलते रहने पर स्वयं भी नम्रतापूर्वक उनका अनुगमन करे और उनकी आज्ञा का कभी उल्लंघन न करे । जो गुरु की अहितकारी अथवा हितकारी बात नहीं सुनता अथवा सुन कर अपना मुंह फेर लेता है वह रौरव नरक में जाता है । दैवात् यदि बुद्धिरहित पुरुष अपने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करता है वह घोर नरक में जाता है और शूकर योनि प्राप्त करता है ॥२२६ – २२८॥
जो गुरु की आज्ञा का उल्लङ्वन , गुरुनिन्दा , गुरु को चिढा़ने वाला , अप्रिय व्यवहार तथा गुरुद्रोह करता है उसका संसर्ग कभी नहीं करना चाहिये । जो गुरु के द्रव्य को चाहता है , गुरु की स्त्री के साथ सङ्गम करता है उसे बहुत बडा़ पाप लगता है अतः उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं है । जो निन्दा के द्वारा गुरु का शत्रुवत् अहित करता है वह अरण्य में एवं निर्जन स्थान में ब्रह्मराक्षस होता है ॥२२८ – २३१॥
गुरु का खडा़ऊँ , आच्छादन , वस्त्र , शयन तथा उनके आभूषण देखकर उन्हे नमस्कार करे और अपने कार्य में कभी भी उसका उपयोग न करे । जिस मनुष्य के जिहवा के अग्रभाग में सदैव गुरुपादुका मन्त्र विद्यमान रहता है वह अनायास ही धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । शिष्य को अपने भोग तथा मोक्ष के लिये गुरु के चरण कमलों का सदैव ध्यान करना चाहिये । हे वीर भैरव ! उससे बढ़ कर अन्य कोई भक्ति नहीं है ॥२३१ – २३४॥
यदि शिष्य और गुरु एक ही ग्राम में निवास करते हों तो शिष्य को चाहिये कि वह तीनों संध्या में जाकर अपने गुरु को प्रणाम करे । यदि एक ही देश में गुरु और शिष्य के निवास में सात योजन का अन्तर हो तो शिष्य को महीने में एक बार जा कर उन्हें प्रणाम करना चाहिये ॥२३४ – २३५॥
श्री गुरु का चरण कमल जिस दिशा में विद्यमान हो उस दिशा में शरीर से ( दण्डवत् प्रणाम द्वारा ), मन से तथा बुद्धि से नमस्कार करे । हे प्रभो ! वेदाङ्गादि विद्या , पदमा सनादि आसन , मन्त्र , मुद्रा और तन्त्रादि ये सभी गुरु के मुख से प्राप्त होने पर सफल होते हैं अन्यथा नहीं ॥२३६ – २३७॥
कम्बल पर , कोमल स्थान ( चारपाई आदि ) पर , प्रासाद पर , दीर्घ काष्ठ पर अथवा किसी की पीठ पर गुरु के साथ एव आसन पर न बैठे । हे देवेश ! श्री गुरु का पादुका मन्त्र , उनका दिया हुआ मूल मन्त्र और अपना पादुका मन्त्र जिस किसी के शिष्य को नहीं बताना चाहिये ॥२३८ – २३९॥
जो अपनी हित में आने वाली वस्तु हो उसे न दे कर गुरु को कदापि प्रवञ्चित नहीं करना चाहिये । हे सुव्रत ! न केवल दीक्षागुरु को , किन्तु जिससे एक अक्षर का भी ज्ञान किया हो उसको भी प्रवञ्चित न करे । गुरु के उद्देेश्य से अपने वित्तानुसार जो भक्ष्य निर्माण किया जाता है उसका स्वल्पभाग भी बहुत महान् होता है । किन्तु जो गुरु की भक्ति से विवर्जित भुवनादि , किं बहुना , सर्वस्व भी प्रदान करे तो वह दरिद्रता और नरक प्राप्त करता है क्योंकि दान में भक्ति ही कारण है ॥३४० – २४२॥
गुरु में भक्ति रखने से ऐन्द्र ( महेन्द्र ) पद तथा भक्ति न रखने से शूकरत्व प्राप्त होता है । सभी जगह भक्तिशास्त्र में गुरु भक्ति से बढ़ कर और कोई उत्कृष्ट नहीं है । हे नाथ ! गुरु पूजा के बिना करोड़ों पुण्य व्यर्थ हो जाते हैं इसलिये गुरुभक्ति करनी चाहिये ॥२४३ – २४४॥

श्री गुरु पादुका स्तोत्र
ॐ नमो गुरुभ्यो गुरुपादुकाभ्यो नमः परेभ्यः परपादुकाभ्यः!आचार्य सिद्धेश्वरपादुकाभ्योनमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्यो!!1!!
मैं पूज्य गुरुदेव को प्रणाम करता हूँ, मेरी उच्चतम भक्ति गुरु चरणों और उनकी पादुका केप्रति हैं, क्योंकि गंगा-यमुना आदि समस्त नदियाँ और संसार के समस्त तीर्थ उनके चरणों में समाहित हैं, यह पादुकाएं ऐसे चरणों से आप्लावित रहती हैं, इसलिए मैं इस पादुकाओं को प्रणाम करता हु, यह मुझे भवसागर से पार उतारने में सक्षम हैं, यह पूर्णता देने में सहायक हैं, ये पादुकाएं आचार्य और सिद्ध योगी केचरणों में सुशोभित रहती हैं, और ज्ञान के पुंज को अपने ऊपर उठाया हैं, इसीलिए ये पादुकाएं ही सही अर्थों में सिद्धेश्वर बन गई हैं, इसीलिए मैं इस गुरु पादुकाओं कोभक्ति भावः से प्रणाम करता हूँ!!1!!
ऐंकार ह्रींकाररहस्ययुक्त श्रींकारगूढार्थ महाविभूत्या!ओंकारमर्म प्रतिपादिनीभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!2!!
गुरुदेव “ऐंकार” रूप युक्त हैं, जो कि साक्षात् सरसवती के पुंज हैं, गुरुदेव”ह्रींकार” युक्त हैं, एक प्रकार से देखा जाये तो वे पूर्णरूपेण लक्ष्मी युक्त हैं, मेरे गुरुदेव”श्रींकार” युक्त हैं, जो संसार के समस्त वैभव, सम्पदा और सुख से युक्त हैं, जो सही अर्थों में महान विभूति हैं, मेरे गुरुदेव “ॐ” शब्द के मर्म को समझाने में सक्षम हैं, वे अपने शिष्यों को भी उच्च कोटि कि साधना सिद्ध कराने में सहायक हैं, ऐसे गुरुदेव के चरणों में लिपटी रहने वाली ये पादुकाएं साक्षात् गुरुदेव का ही विग्रह हैं, इसीलिए मैं इन पादुकाओं को श्रद्धा – भक्ति युक्त प्रणाम करता हूँ!!2!!
होत्राग्नि होत्राग्नि हविश्यहोतृ – होमादिसर्वाकृतिभासमानं !यद् ब्रह्म तद्वोधवितारिणीभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!3!!
ये पादुकाएं अग्नि स्वरूप हैं, जो मेरे समस्त पापो को समाप्त करने में समर्थ हैं, ये पादुकाएं मेरे नित्य प्रति के पाप, असत्य, अविचार, और अचिन्तन से युक्त दोषों को दूर करनेमें समर्थ हैं, ये अग्नि कि तरह हैं, जिनका पूजन करने से मेरे समस्त पाप एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैं, इनके पूजन से मुझे करोडो यज्ञो का फल प्राप्त होता हैं, जिसकीवजह से मैं स्वयं ब्रह्मस्वरुप होकर ब्रह्म को पहिचानने कि क्षमता प्राप्त कर सका हूँ, जब गुरुदेव मेरे पास नहीं होते, तब ये पादुकाएं ही उनकी उपस्थिति का आभास प्रदान कराती रहती हैं, जो मुझे भवसागर से पार उतारने में सक्षम हैं, ऐसी गुरु पादुकाओं को मैं पूर्णता के साथ प्रणाम करता हूँ!!3!!
कामादिसर्प वज्रगारूडाभ्याम विवेक वैराग्यनिधिप्रदाभ्याम.बोधप्रदाभ्याम द्रुतमोक्षदाभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!4!!
मेरे मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार के सर्प विचरते ही रहते हैं, जिसकी वजह से मैं दुखी हूँ, और साधनाओं में मैं पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता, ऐसी स्थिति में गुरु पादुकाएं गरुड़ के समान हैं, जो एक क्षण में ही ऐसे कामादि सर्पों को भस्म कर देती हैं, और मेरे ह्रदय में विवेक, वैराग्य, ज्ञान, चिंतन, साधना और सिद्धियों का बोध प्रदान करती हैं, जो मुझे उन्नति की ओर ले जाने में समर्थ हैं, जो मुझे मोक्ष प्रदान करने में सहायक हैं, ऐसी गुरु पादुकाओं को मैं प्रणाम करता हूँ!!4!!
अनंतसंसार समुद्रतार नौकायिताभ्यां स्थिरभक्तिदाभ्यां!जाड्याब्धिसंशोषणवाड्वाभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम!!5!!
यह संसार विस्तृत हैं, इस भवसागर पार करने में ये पादुकाएं नौका की तरहहैं, जिसके सहारे मैं इस अनंत संसार सागर को पार कर सकता हूँ, जो मुझे स्थिर भक्ति देने में समर्थ हैं, मेरे अन्दर अज्ञान की घनी झाडियाँ हैं, उसे अग्नि की तरह जला कर समाप्त करने में सहायक हैं, ऐसी पादुकाओंको मैं भक्ति सहित प्रणाम करता हूँ!!5!!

**********~ श्री गुरु स्तोत्रम् ~*****************
|| श्री महादेव्युवाच ||
गुरुर्मन्त्रस्य देवस्य धर्मस्य तस्य एव वा |
विशेषस्तु महादेव ! तद् वदस्व दयानिधे ||
श्री गुरु स्तोत्रम् श्री महादेवी (पार्वती) ने कहा : हे दयानिधि शंभु ! गुरुमंत्र के देवता अर्थात् श्री गुरुदेव एवं उनका आचारादि धर्म क्या है – इस बारे में वर्णन करें |
|| श्री महादेव उवाच ||
जीवात्मनं परमात्मनं दानं ध्यानं योगो ज्ञानम् |
उत्कल काशीगंगामरणं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१||
श्री महादेव बोले : जीवात्मा-परमात्मा का ज्ञान, दान, ध्यान, योग पुरी, काशी या गंगा तट पर मृत्यु – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१||
प्राणं देहं गेहं राज्यं स्वर्गं भोगं योगं मुक्तिम् |
भार्यामिष्टं पुत्रं मित्रं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||२||
प्राण, शरीर, गृह, राज्य, स्वर्ग, भोग, योग, मुक्ति, पत्नी, इष्ट, पुत्र, मित्र – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||२||
वानप्रस्थं यतिविधधर्मं पारमहंस्यं भिक्षुकचरितम् |
साधोः सेवां बहुसुखभुक्तिं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||३||
वानप्रस्थ धर्म, यति विषयक धर्म, परमहंस के धर्म, भिक्षुक अर्थात् याचक के धर्म – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||३||
विष्णो भक्तिं पूजनरक्तिं वैष्णवसेवां मातरि भक्तिम् |
विष्णोरिव पितृसेवनयोगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||४||
भगवान विष्णु की भक्ति, उनके पूजन में अनुरक्ति, विष्णु भक्तों की सेवा, माता की भक्ति, श्रीविष्णु ही पिता रूप में हैं, इस प्रकार की पिता सेवा – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||४||
प्रत्याहारं चेन्द्रिययजनं प्राणायां न्यासविधानम् |
इष्टे पूजा जप तपभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||५||
प्रत्याहार और इन्द्रियों का दमन, प्राणायाम, न्यास-विन्यास का विधान, इष्टदेव की पूजा, मंत्र जप, तपस्या व भक्ति – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||५||
काली दुर्गा कमला भुवना त्रिपुरा भीमा बगला पूर्णा |
श्रीमातंगी धूमा तारा न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||६||
काली, दुर्गा, लक्ष्मी, भुवनेश्वरि, त्रिपुरासुन्दरी, भीमा, बगलामुखी (पूर्णा), मातंगी, धूमावती व तारा ये सभी मातृशक्तियाँ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||६||
मात्स्यं कौर्मं श्रीवाराहं नरहरिरूपं वामनचरितम् |
नरनारायण चरितं योगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||७||
भगवान के मत्स्य, कूर्म, वाराह, नरसिंह, वामन, नर-नारायण आदि अवतार, उनकी लीलाएँ, चरित्र एवं तप आदि भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||७||
श्रीभृगुदेवं श्रीरघुनाथं श्रीयदुनाथं बौद्धं कल्क्यम् |
अवतारा दश वेदविधानं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||८||
भगवान के श्री भृगु, राम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि आदि वेदों में वर्णित दस अवतार श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||८||
गंगा काशी कान्ची द्वारा मायाऽयोध्याऽवन्ती मथुरा |
यमुना रेवा पुष्करतीर्थ न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||९||
गंगा, यमुना, रेवा आदि पवित्र नदियाँ, काशी, कांची, पुरी, हरिद्वार, द्वारिका, उज्जयिनी, मथुरा, अयोध्या आदि पवित्र पुरियाँ व पुष्करादि तीर्थ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||९||
गोकुलगमनं गोपुररमणं श्रीवृन्दावन-मधुपुर-रटनम्|
एतत् सर्वं सुन्दरि ! मातर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१०||
हे सुन्दरी ! हे मातेश्वरी ! गोकुल यात्रा, गौशालाओं में भ्रमण एवं श्री वृन्दावन व मधुपुर आदि शुभ नामों का रटन – ये सब भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१०||
तुलसीसेवा हरिहरभक्तिः गंगासागर-संगममुक्तिः |
किमपरमधिकं कृष्णेभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||११||
तुलसी की सेवा, विष्णु व शिव की भक्ति, गंगा सागर के संगम पर देह त्याग और अधिक क्या कहूँ परात्पर भगवान श्री कृष्ण की भक्ति भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||११||
एतत् स्तोत्रम् पठति च नित्यं मोक्षज्ञानी सोऽपि च धन्यम् |
ब्रह्माण्डान्तर्यद्-यद् ध्येयं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१२||
इस स्तोत्र का जो नित्य पाठ करता है वह आत्मज्ञान एवं मोक्ष दोनों को पाकर धन्य हो जाता है | निश्चित ही समस्त ब्रह्माण्ड मे जिस-जिसका भी ध्यान किया जाता है, उनमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१२||
|| वृहदविज्ञान परमेश्वरतंत्रे त्रिपुराशिवसंवादे श्रीगुरोःस्तोत्रम् ||
||यह गुरुस्तोत्र वृहद विज्ञान परमेश्वरतंत्र के अंतर्गत त्रिपुरा-शिव संवाद में आता है ||

शक्तिपात :- हमारे गुरु या ईष्ट देव हम पर समयानुसार शक्तिपात भी करते रहते हैं. उस समय हमें ऐसा लगता है जैसे मूर्छा (बेहोशी) सी आ रही है या अचानक आँखें बंद होकर गहन ध्यान या समाधि की सी स्थिति हो जाती है, साथ ही एक दिव्य तेज का अनुभव होता है और परमानंद का अनुभव बहुत देर तक होता रहता है. ऐसा भी लगता है जैसे कोई दिव्या धारा इस तेज पुंज से निकलकर अपनी और बह रही हो व अपने अपने भीतर प्रवेश कर रही हो.
वह आनंद वर्णनातीत होता है. इसे शक्तिपात कहते है. जब गुरु सामने बैठकर शक्तिपात करते हैं तो ऐसा लगता है की उनकी और देखना कठिन हो रहा है. उनके मुखमंडल व शरीर के चारों तरफ दिव्य तेज/प्रकाश दिखाई देने लगता है और नींद सी आने लगती है और शरीर एकदम हल्का महसूस होता है व परमानन्द का अनुभव होता है. इस प्रकार शक्तिपात के द्वारा गुरु पूर्व के पापों को नष्ट करते हैं व कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करते हैं. ध्यान/समाधी की उच्च अवस्था में पहुँच जाने पर ईष्ट देव या ईश्वर द्वारा शक्तिपात का अनुभव होता है.
साधक को एक घूमता हुआ सफ़ेद चक्र या एक तेज पुंज आकाश में या कमरे की छत पर दीख पड़ता है और उसके होने मात्र से ही परमानन्द का अनुभव ह्रदय में होने लगता है. उस समय शारीर जड़ सा हो जाता है व उस चक्र या पुंज से सफ़ेद किरणों का प्रवाह निकलता हुआ अपने शरीर के भीतर प्रवेश करता हुआ प्रतीत होता है. उस अवस्था में बिजली के हलके झटके लगने जैसा अनुभव भी होता है और उस झटके के प्रभाव से शरीर के अंगा भी फड़कते हुए देखे जाते हैं.
यदि ऐसे अनुभव होते हों तो समझ लेना चाहिए कि आप पर ईष्ट या गुरु की पूर्ण कृपा हो गई है, उनहोंने आपका हाथ पकड़ लिया है और वे शीघ्र ही आपको इस माया से बाहर खींच लेंगे.
१.अश्विनी मुद्रा, मूल बांध का लगना :- श्वास सामान्य चलना और गुदा द्वार को बार-बार संकुचित करके बंद करना व फिर छोड़ देना. या श्वास भीतर भरकर रोक लेना और गुदा द्वार को बंद कर लेना, जितनी देर सांस भीतर रुक सके रोकना और उतनी देर तक गुदा द्वार बंद रखना और फिर धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए गुदा द्वार खोल देना इसे अश्विनी मुद्रा कहते हैं. कई साधक इसे अनजाने में करते रहते हैं और इसको करने से उन्हें दिव्य शक्ति या आनंद का अनुभव भी होता है परन्तु वे ये नहीं जानते कि वे एक यौगिक क्रिया कर रहे हैं. अश्विनी मुद्रा का अर्थ है “अश्व यानि घोड़े की तरह करना”. घोडा अपने गुदा द्वार को खोलता बंद करता रहता है और इसी से अपने भीतर अन्य सभी प्राणियों से अधिक शक्ति उत्पन्न करता है.
इस अश्विनी मुद्रा को करने से कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है और ऊपर की और उठकर उच्च केन्द्रों को जाग्रत करती है. यह मुद्रा समस्त रोगों का नाश करती हैं. विशेष रूप से शरीर के निचले हिस्सों के सब रोग शांत हो जाते हैं. स्त्रियों को प्रसव पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता. प्रत्येक नए साधक को या जिनकी साधना रुक गई है उनको यह अश्विनी मुद्रा अवश्य करनी चाहिए. इसको करने से शरीर में गरमी का अनुभव भी हो सकता है, उस समय इसे कम करें या धीरे-धीरे करें व साथ में प्राणायाम भी करें. सर्दी में इसे करने से ठण्ड नहीं लगती. मन एकाग्र होता है. साधक को चाहिए कि वह सब अवस्थाओं में इस अश्विनी मुद्रा को अवश्य करता रहे. जितना अधिक इसका अभ्यास किया जाता है उतनी ही शक्ति बदती जाती है. इस क्रिया को करने से प्राण का क्षय नहीं होता और इस प्राण उर्जा का उपयोग साधना की उच्च अवस्थाओं की प्राप्ति के लिए या विशेष योग साधनों के लिए किया जा सकता है. मूल बांध इस अश्विनी मुद्रा से मिलती-जुलती प्रक्रिया है. इसमें गुदा द्वार को सिकोड़कर बंद करके भीतर – ऊपर की और खींचा जाता है. यह वीर्य को ऊपर की और भेजता है एवं इसके द्वारा वीर्य की रक्षा होती है. यह भी कुंडलिनी जागरण व अपानवायु पर विजय का उत्तम साधन है. इस प्रकार की दोनों क्रियाएं स्वतः हो सकती हैं. इन्हें अवश्य करें. ये साधना में प्रगति प्रदान करती हैं.
2.. गुरु या ईष्ट देव की प्रबलता :- जब गुरु या ईष्ट देव की कृपा हो तो वे साधक को कई प्रकार से प्रेरित करते हैं. अन्तःकरण में किसी मंत्र का स्वतः उत्पन्न होना व इस मंत्र का स्वतः मन में जप आरम्भ हो जाना, किसी स्थान विशेष की और मन का खींचना और उस स्थान पर स्वतः पहुँच जाना और मन का शांत हो जाना, अपने मन के प्रश्नों के समाधान पाने के लिए प्रयत्न करते समय अचानक साधू पुरुषों का मिलना या अचानक ग्रन्थ विशेषों का प्राप्त होना और उनमें वही प्रश्न व उसका उत्तर मिलना, कोई व्रत या उपवास स्वतः हो जाना, स्वप्न के द्वारा आगे घटित होने वाली घटनाओं का संकेत प्राप्त होना व समय आने पर उनका घटित हो जाना, किसी घोर समस्या का उपाय अचानक दिव्य घटना के रूप में प्रकट हो जाना, यह सब होने पर साधक को आश्चर्य, रोमांच व आनंद का अनुभव होता है. वह सोचने लगता है की मेरे जीवन में दिव्य घटनाएं घटित होने लगी हैं, अवश्य ही मेरे इस जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य है, परन्तु वह क्या है यह वो नहीं समझ पाटा. किन्तु साधक धैर्य रखे आगे बढ़ता रहे, क्योंकि ईष्ट या गुरु कृपा तो प्राप्त है ही, इसमें संदेह न रखे; क्योंकि समय आने पर वह उद्देश्य अवश्य ही उसके सामने प्रकट हो जाएगा.
3… ईष्ट भ्रष्टता का भ्रम :- कई बार साधकों को ईष्ट भ्रष्टता का भ्रम उपस्थित हो जाता है. उदाहरण के लिए कोई साधक गणेशजी को इष्ट देव मानकर उपासना आरम्भ करता है. बहुत समय तक उसकी आराधना अच्छी चलती है, परन्तु अचानक कोई विघ्न आ जाता है जिससे साधना कम या बंद होने लगती है. तब साधक विद्वानों, ब्राह्मणों से उपाय पूछता है, तो वे जन्मकुंडली आदि के माध्यम से उसे किसी अन्य देव (विष्णु आदि) की उप्पसना के लिए कहते हैं. कुछ दिन वह उनकी उपासना करता है परन्तु उसमें मन नहीं लगता. तब फिर वह और किसी की पास जाता है. वह उसे और ही किसी दुसरे देव-देवी आदि की उपासना करने के लिए कहता है. तब साधक को यह लगता है की मैं अपने ईष्ट गणेशजी से भ्रष्ट हो रहा हूँ. इससे न तो गणेशजी ही मिलेंगे और न ही दूसरे देवता और मैं साधना से गिर जाऊँगा. यहाँ साधकों से निवेदन है की यह सही है की वे अपने ईष्ट देव का ध्यान-पूजन बिलकुल नहीं छोड़ें, परन्तु वे उनके साथ ही उन अन्य देवताओं की भी उपासना करें. साधना के विघ्नों की शांति के लिए यह आवश्यक हो जाता है. उपासना से यहाँ अर्थ उन-उन देवी देवताओं के विषय में जानना भी है क्योंकि उन्हें जानने पर हम यह पाते हैं की वस्तुतः वे एक ही ईश्वर के अनेक रूप हैं (जैसे पानी ही लहर, बुलबुला, भंवर, बादल, ओला, बर्फ आदि है). इस प्रकार ईष्ट देव यह चाहता है कि साधक यह जाने. इसलिए इसे ईष्ट भ्रष्टता नहीं बल्कि ईष्ट का प्रसार कहना चाहिए.”
4.. शरीर का हल्का लगना :- जब साधक का ध्यान उच्च केन्द्रों (आज्ञा चक्र, सहस्रार चक्र) में लगने लगता है तो साधक को अपना शरीर रूई की तरह बहुत हल्का लगने लगता है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब तक ध्यान नीचे के केन्द्रों में रहता है (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर चक्र तक), तब तक “मैं यह स्थूल शरीर हूँ” ऐसी दृढ भावना हमारे मन में रहती है और यह स्थूल शरीर ही भार से युक्त है, इसलिए सदा अपने भार का अनुभव होता रहता है. परन्तु उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से “मैं शरीर हूँ” ऐसी भावना नहीं रहती बल्कि “मैं सूक्ष्म शरीर हूँ” या “मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ परमात्मा का अंश हूँ” ऎसी भावना दृढ हो जाती है. यानि सूक्ष्म शरीर या आत्मा में दृढ स्थिति हो जाने से भारहीनता का अनुभव होता है. दूसरी बात यह है कि उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है जो ऊपर की और उठती है. यह दिव्य शक्ति शरीर में अहम् भावना यानी “मैं शरीर हूँ” इस भावना का नाश करती है, जिससे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का भान होना कम हो जाता है. ध्यान की उच्च अवस्था में या शरीर में हलकी चीजों जैसे रूई, आकाश आदि की भावना करने से आकाश में चलने या उड़ने की शक्ति आ जाती है, ऐसे साधक जब ध्यान करते हैं तो उनका शरीर भूमि से कुछ ऊपर उठ जाता है. परन्तु यह सिद्धि मात्र है, इसका वैराग्य करना चाहिए.
5.. हाथ के स्पर्श के बिना केवल दूर से ही वस्तुओं का खिसक जाना :- कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे किसी हलकी वास्तु को उठाने के लिए जैसे ही अपना हाथ उसके पास ले जाते हैं तो वह वास्तु खिसक कर दूर चली जाती है, उस समय साधक को अपनी अँगुलियों में स्पंदन (झन-झन) का सा अनुभव होता है. साधक आश्चर्यचकित होकर बार-बार इसे करके देखता है, वह परीक्षण करने लगता है कि देखें यह दुबारा भी होता है क्या. और फिर वही घटना घटित होती है. तब साधक यह सोचता है कि अवश्य ही यह कोई दिव्य घटना उसके साथ घटित हो रही है. वास्तव में यह साधक के शरीर में दिव्य उर्जा (कुंडलिनी, मंत्र जप, नाम जप आदि से उत्पन्न उर्जा) के अधिक प्रवाह के कारण होता है. वह दिव्य उर्जा जब अँगुलियों के आगे एकत्र होकर घनीभूत होती है तब इस प्रकार की घटना घटित हो जाती है.
6… रोगी के रुग्ण भाग पर हाथ रखने से उसका स्वस्थ होना :- कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे अनजाने में किसी रोगी व्यक्ति के रोग वाले अंग पर कुछ समय तक हाथ रखते हैं और वह रोग नष्ट हो जाता है. तब सभी लोग इसे आश्चर्य की तरह देखते हैं. वास्तव में यह साधक के शरीर से प्रवाहित होने वाली दिव्य उर्जा के प्रभाव से होता है. रोग का अर्थ है उर्जा के प्रवाह में बाधा उत्पन्न हो जाना. साधक के संपर्क से रोगी की वह रुकी हुई उर्जा पुनः प्रवाहित होने लगती है, और वह स्वस्थ हो जाता है. मंत्र शक्ति व रेकी चिकित्सा पद्धति का भी यही आधार है कि मंत्र एवं भावना व ध्यान द्वारा रोगी की उर्जा के प्रवाह को संतुलित करने की तीव्र भावना करना. आप अपने हाथ की अंजलि बनाकर उल्टा करके अपने या अन्य व्यक्ति के शरीर के किसी भाग पर बिना स्पर्श के थोडा ऊपर रखें. फिर किसी मंत्र का जप करते हुए अपनी अंजलि के नीचे के स्थान पर ध्यान केन्द्रित करें और ऐसी भावना करें कि मंत्र जप से उत्पन्न उर्जा दुसरे व्यक्ति के शरीर में जा रही है. कुछ ही देर में आपको कुछ झन झन या गरमी का अनुभव उस स्थान पर होगा. इसे ही दिव्य उर्जा कहते हैं. यह मंत्र जाग्रति का लक्षण है.
7… अंग फड़कना :- शिव पुराण के अनुसार यदि सात या अधिक दिन तक बांयें अंग लगातार फड़कते रहें तो मृत्यु योग या मारक प्रयोग (अभिचारक प्रयोग) हुआ मानना चाहिए. कोई बड़ी दुर्घटना या बड़ी कठिन समस्या का भी यह सूचक है. इसके लिए पहले कहे गए उपाय करें (देखें विघ्न सूचक स्वप्नों के उपाय). इसके अतिरिक्त काली की उपासना करें. दुर्गा सप्तशती में वर्णित रात्रिसूक्तम व देवी कवच का पाठ करें. मान काली से रक्षार्थ प्रार्थना करें. दांयें अंग फड़कने पर शुभ घटना घटित होती है, साधना में सफलता प्राप्त होती है. यदि बांया व दांया दोनों अंग एक साथ फडकें तो समझना चाहिए कि विपत्ति आयेगी परन्तु ईश्वर की कृपा से बहुत थोड़े से नुक्सान में ही टल जायेगी. ।।।

ऊपरी हवा पहचान और निदान


ऊपरी हवा पहचान और निदान

प्रायः सभी धर्मग्रंथों में ऊपरी हवाओं, नजर दोषों आदि का उल्लेख है। कुछ ग्रंथों में इन्हें बुरी आत्मा कहा गया है तो कुछ अन्य में भूत-प्रेत और जिन्न।

यहां ज्योतिष के आधार पर नजर दोष का विश्लेषण प्रस्तुत है।

ज्योतिष सिद्धांत के अनुसार गुरु पितृदोष, शनि यमदोष, चंद्र व शुक्र जल देवी दोष, राहु सर्प व प्रेत दोष, मंगल शाकिनी दोष, सूर्य देव दोष एवं बुध कुल देवता दोष का कारक होता है। राहु, शनि व केतु ऊपरी हवाओं के कारक ग्रह हैं। जब किसी व्यक्ति के लग्न (शरीर), गुरु (ज्ञान), त्रिकोण (धर्म भाव) तथा द्विस्वभाव राशियों पर पाप ग्रहों का प्रभाव होता है, तो उस पर ऊपरी हवा की संभावना होती है।

लक्षण

नजर दोष से पीड़ित व्यक्ति का शरीर कंपकंपाता रहता है। वह अक्सर ज्वर, मिरगी आदि से ग्रस्त रहता है।

कब और किन स्थितियों में डालती हैं ऊपरी हवाएं किसी व्यक्ति पर अपना प्रभाव?

  • जब कोई व्यक्ति दूध पीकर या कोई सफेद मिठाई खाकर किसी चौराहे पर जाता है, तब ऊपरी हवाएं उस पर अपना प्रभाव डालती हैं। गंदी जगहों पर इन हवाओं का वास होता है, इसीलिए ऐसी जगहों पर जाने वाले लोगों को ये हवाएं अपने प्रभाव में ले लेती हैं। इन हवाओं का प्रभाव रजस्वला स्त्रियों पर भी पड़ता है। कुएं, बावड़ी आदि पर भी इनका वास होता है। विवाह व अन्य मांगलिक कार्यों के अवसर पर ये हवाएं सक्रिय होती हैं। इसके अतिरिक्त रात और दिन के १२ बजे दरवाजे की चौखट पर इनका प्रभाव होता है।
  • दूध व सफेद मिठाई चंद्र के द्योतक हैं। चौराहा राहु का द्योतक है। चंद्र राहु का शत्रु है। अतः जब कोई व्यक्ति उक्त चीजों का सेवन कर चौराहे पर जाता है, तो उस पर ऊपरी हवाओं के प्रभाव की संभावना रहती है।
  • कोई स्त्री जब रजस्वला होती है, तब उसका चंद्र व मंगल दोनों दुर्बल हो जाते हैं। ये दोनों राहु व शनि के शत्रु हैं। रजस्वलावस्था में स्त्री अशुद्ध होती है और अशुद्धता राहु की द्योतक है। ऐसे में उस स्त्री पर ऊपरी हवाओं के प्रकोप की संभावना रहती है।
  • कुएं एवं बावड़ी का अर्थ होता है जल स्थान और चंद्र जल स्थान का कारक है। चंद्र राहु का शत्रु है, इसीलिए ऐसे स्थानों पर ऊपरी हवाओं का प्रभाव होता है।
  • जब किसी व्यक्ति की कुंडली के किसी भाव विशेष पर सूर्य, गुरु, चंद्र व मंगल का प्रभाव होता है, तब उसके घर विवाह व मांगलिक कार्य के अवसर आते हैं। ये सभी ग्रह शनि व राहु के शत्रु हैं, अतः मांगलिक अवसरों पर ऊपरी हवाएं व्यक्ति को परेशान कर सकती हैं।
  • दिन व रात के १२ बजे सूर्य व चंद्र अपने पूर्ण बल की अवस्था में होते हैं। शनि व राहु इनके शत्रु हैं, अतः इन्हें प्रभावित करते हैं। दरवाजे की चौखट राहु की द्योतक है। अतः जब राहु क्षेत्र में चंद्र या सूर्य को बल मिलता है, तो ऊपरी हवा सक्रिय होने की संभावना प्रबल होती है।
  • मनुष्य की दायीं आंख पर सूर्य का और बायीं पर चंद्र का नियंत्रण होता है। इसलिए ऊपरी हवाओं का प्रभाव सबसे पहले आंखों पर ही पड़ता है।

ऊपरी हवाओं के सरल उपाय

ऊपरी हवाओं से मुक्ति हेतु शास्त्रों में अनेक उपाय बताए गए हैं। अथर्ववेद में इस हेतु कई मंत्रों व स्तुतियों का उल्लेख है। आयुर्वेद में भी इन हवाओं से मुक्ति के उपायों का विस्तार से वर्णन किया गया है। यहां कुछ प्रमुख सरल एवं प्रभावशाली उपायों का विवरण प्रस्तुत है।

  • ऊपरी हवाओं से मुक्ति हेतु हनुमान चालीसा का पाठ और गायत्री का जप तथा हवन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त अग्नि तथा लाल मिर्ची जलानी चाहिए।
  • रोज सूर्यास्त के समय एक साफ-सुथरे बर्तन में गाय का आधा किलो कच्चा दूध लेकर उसमें शुद्ध शहद की नौ बूंदें मिला लें। फिर स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहनकर मकान की छत से नीचे तक प्रत्येक कमरे, जीने, गैलरी आदि में उस दूध के छींटे देते हुए द्वार तक आएं और बचे हुए दूध को मुख्य द्वार के बाहर गिरा दें। क्रिया के दौरान इष्टदेव का स्मरण करते रहें। यह क्रिया इक्कीस दिन तक नियमित रूप से करें, घर पर प्रभावी ऊपरी हवाएं दूर हो जाएंगी।
  • रविवार को बांह पर काले धतूरे की जड़ बांधें, ऊपरी हवाओं से मुक्ति मिलेगी।
  • लहसुन के रस में हींग घोलकर आंख में डालने या सुंघाने से पीड़ित व्यक्ति को ऊपरी हवाओं से मुक्ति मिल जाती है।
  • ऊपरी बाधाओं से मुक्ति हेतु निम्नोक्त मंत्र का यथासंभव जप करना चाहिए।
    ष् ओम नमो भगवते रुद्राय नमः कोशेश्वस्य नमो ज्योति पंतगाय नमो रुद्राय नमः सिद्धि स्वाहा।श्श्
  • घर के मुख्य द्वार के समीप श्वेतार्क का पौधा लगाएं, घर ऊपरी हवाओं से मुक्त रहेगा।
  • उपले या लकड़ी के कोयले जलाकर उसमें धूनी की विशिष्ट वस्तुएं डालें और उससे उत्पन्न होने वाला धुआं पीड़ित व्यक्त्ि को सुंघाएं। यह क्रिया किसी ऐसे व्यक्ति से करवाएं जो अनुभवी हो और जिसमें पर्याप्त आत्मबल हो।
  • प्रातः काल बीज मंत्र झ्क्लींश् का उच्चारण करते हुए काली मिर्च के नौ दाने सिर पर से घुमाकर दक्षिण दिशा की ओर फेंक दें, ऊपरी बला दूर हो जाएगी।
  • रविवार को स्नानादि से निवृत्त होकर काले कपड़े की छोटी थैली में तुलसी के आठ पत्ते, आठ काली मिर्च और सहदेई की जड़ बांधकर गले में धारण करें, नजर दोष बाधा से मुक्ति मिलेगी।
  • निम्नोक्त मंत्र का १०८ बार जप करके सरसों का तेल अभिमंत्रित कर लें और उससे पीड़ित व्यक्ति के शरीर पर मालिश करें, व्यकित पीड़ामुक्त हो जाएगा।
    मंत्र – ओम नमो काली कपाला देहि देहि स्वाहा।
  • ऊपरी हवाओं के शक्तिषाली होने की स्थिति में शाबर मंत्रों का जप एवं प्रयोग किया जा सकता है। प्रयोग करने के पूर्व इन मंत्रों का दीपावली की रात को अथवा होलिका दहन की रात को जलती हुई होली के सामने या फिर श्मषान में १०८ बार जप कर इन्हें सिद्ध कर लेना चाहिए। यहां यह उल्लेख कर देना आवष्यक है कि इन्हें सिद्ध करने के इच्छुक साधकों में पर्याप्त आत्मबल होना चाहिए, अन्यथा हानि हो सकती है।
  • निम्न मंत्र से थोड़ा-सा जीरा ७ बार अभिमंत्रित कर रोगी के शरीर से स्पर्श कराएं और उसे अग्नि में डाल दें। रोगी को इस स्थिति में बैठाना चाहिए कि उसका धूंआ उसके मुख के सामने आये। इस प्रयोग से भूत-प्रेत बाधा की निवृत्ति होती है।

मंत्र – जीरा जीरा महाजीरा जिरिया चलाय। जिरिया की शक्ति से फलानी चलि जाय॥ जीये तो रमटले मोहे तो मशान टले। हमरे जीरा मंत्र से अमुख अंग भूत चले॥ जाय हुक्म पाडुआ पीर की दोहाई॥

  • एक मुट्ठी धूल को निम्नोक्त मंत्र से ३ बार अभिमंत्रित करें और नजर दोष से ग्रस्त व्यक्ति पर फेंकें, व्यक्ति को दोष से मुक्ति मिलेगी।
    मंत्र – तह कुठठ इलाही का बान। कूडूम की पत्ती चिरावन। भाग भाग अमुक अंक से भूत। मारुं धुलावन कृष्ण वरपूत। आज्ञा कामरु कामाख्या। हारि दासीचण्डदोहाई।
  • थोड़ी सी हल्दी को ३ बार निम्नलिखित मंत्र से अभिमंत्रित करके अग्नि में इस तरह छोड़ें कि उसका धुआं रोगी के मुख की ओर जाए। इसे हल्दी बाण मंत्र कहते हैं।

मंत्र – हल्दी गीरी बाण बाण को लिया हाथ उठाय। हल्दी बाण से नीलगिरी पहाड़ थहराय॥ यह सब देख बोलत बीर हनुमान। डाइन योगिनी भूत प्रेत मुंड काटौ तान॥ आज्ञा कामरु कामाक्षा माई। आज्ञा हाड़ि की चंडी की दोहाई॥

  • जौ, तिल, सफेद सरसों, गेहूं, चावल, मूंग, चना, कुष, शमी, आम्र, डुंबरक पत्ते और अषोक, धतूरे, दूर्वा, आक व ओगां की जड़ को मिला लें और उसमें दूध, घी, मधु और गोमूत्र मिलाकर मिश्रण तैयार कर लें। फिर संध्या काल में हवन करें और निम्न मंत्रों का १०८ बार जप कर इस मिश्रण से १०८ आहुतियां दें।
    मंत्र – मंत्र रू ओम नमः भवे भास्कराय आस्माक अमुक सर्व ग्रहणं पीड़ा नाशनं कु रु-कुरु स्वाहा।
    भूत भगाने के 10 सरल उपाय
    हिन्दू धर्म में भूतों से बचने के अनेक उपाय बताए गए हैं। चरक संहिता में प्रेत बाधा से पीड़ित रोगी के लक्षण और निदान के उपाय विस्तार से मिलते हैं।
    ज्योतिष साहित्य के मूल ग्रंथों- प्रश्नमार्ग, वृहत्पराषर, होरा सार, फलदीपिका, मानसागरी आदि में ज्योतिषीय योग हैं जो प्रेत पीड़ा, पितृ दोष आदि बाधाओं से मुक्ति का उपाय बताते हैं।
    अथर्ववेद में भूतों और दुष्ट आत्माओं को भगाने से संबंधित अनेक उपायों का वर्णन मिलता है। यहां प्रस्तुत है प्रेतबाधा से मुक्ति के 10 सरल उपाय।
  1. ॐ या रुद्राक्ष का अभिमंत्रित लॉकेट गले में पहने और घर के बाहर एक त्रिशूल में जड़ा ॐ का प्रतीक दरवाजे के ऊपर लगाएं। सिर पर चंदन, केसर या भभूति का तिलक लगाएं। हाथ में मौली (नाड़ा) अवश्य बांध कर रखें।
  2. दीपावली के दिन सरसों के तेल का या शुद्ध घी का दिया जलाकर काजल बना लें। यह काजल लगाने से भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी आदि से रक्षा होती है और बुरी नजर से भी रक्षा होती है।
  3. घर में रात्रि को भोजन पश्चात सोने से पूर्व चांदी की कटोरी में देवस्थान या किसी अन्य पवित्र स्थल पर कपूर तथा लौंग जला दें। इससे आकस्मिक, दैहिक, दैविक एवं भौतिक संकटों से मुक्त मिलती है।
  4. प्रेत बाधा दूर करने के लिए पुष्य नक्षत्र में चिड़चिटे अथवा धतूरे का पौधा जड़सहित उखाड़ कर उसे धरती में ऐसा दबाएं कि जड़ वाला भाग ऊपर रहे और पूरा पौधा धरती में समा जाएं। इस उपाय से घर में प्रेतबाधा नहीं रहती और व्यक्ति सुख-शांति का अनुभव करता है।
  5. प्रेत बाधा निवारक हनुमत मंत्र – ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ऊँ नमो भगवते महाबल पराक्रमाय भूत-प्रेत पिशाच-शाकिनी-डाकिनी-यक्षणी-पूतना-मारी-महामारी, यक्ष राक्षस भैरव बेताल ग्रह राक्षसादिकम्‌ क्षणेन हन हन भंजय भंजय मारय मारय शिक्षय शिक्षय महामारेश्वर रुद्रावतार हुं फट् स्वाहा।
    इस हनुमान मंत्र का पांच बार जाप करने से भूत कभी भी निकट नहीं आ सकते।
  6. अशोक वृक्ष के सात पत्ते मंदिर में रख कर पूजा करें। उनके सूखने पर नए पत्ते रखें और पुराने पत्ते पीपल के पेड़ के नीचे रख दें। यह क्रिया नियमित रूप से करें, आपका घर भूत-प्रेत बाधा, नजर दोष आदि से मुक्त रहेगा।
  7. गणेश भगवान को एक पूरी सुपारी रोज चढ़ाएं और एक कटोरी चावल दान करें। यह क्रिया एक वर्ष तक करें, नजर दोष व भूत-प्रेत बाधा आदि के कारण बाधित सभी कार्य पूरे होंगे।
  8. मां काली के लिए उनके नाम से प्रतिदिन अच्छी तरह से पवित्र ‍की हुई दो अगरबत्ती सुबह और दो दिन ढलने से पूर्व लगाएं और उनसे घर और शरीर की रक्षा करने की प्रार्थना करें।
  9. हनुमान चालीसा और गजेंद्र मोक्ष का पाठ करें और हनुमान मंदिर में हनुमान जी का श्रृंगार करें व चोला चढ़ाएं।
  10. मंगलवार या शनिवार के दिन बजरंग बाण का पाठ शुरू करें। यह डर और भय को भगाने का सबसे अच्छा उपाय है।
    इस तरह यह कुछ सरल और प्रभावशाली टोटके हैं, जिनका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता। ध्यान रहें, नजर दोष, भूत-प्रेत बाधा आदि से मुक्ति हेतु उपाय ही करने चाहिए टोना या टोटके नहीं।

सावधानी : सदा हनुमानजी का स्मरण करें। चतुर्थी, तेरस, चौदस और अमावस्या को पवि‍त्रता का पालन करें। शराब न पीएं और न ही मांस का सेवन करें।
नदी, पूल या सड़क पार करते समय भगवान का स्मरण जरूर करें। एकांत में शयन या यात्रा करते समय पवित्रता का ध्यान रखें। पेशाब करने के बाद धेला अवश्य लें और जगह देखकर ही पेशाब करें। रात्रि में सोने से पूर्व भूत-प्रेत पर चर्चा न करें। किसी भी प्रकार के टोने-टोटकों से बच कर रहें।
ऐसे स्थान पर न जाएं, जहां पर तांत्रिक अनुष्ठान होता हो। जहां पर किसी पशु की बलि दी जाती हो या जहां भी लोभान आदि के धुएं से भूत भगाने का दावा किया जाता हो। भूत भागाने वाले सभी स्थानों से बच कर रहें, क्योंकि यह धर्म और पवित्रता के विरुद्ध है।
जो लोग भूत, प्रेत या पितरों की उपासना करते हैं, वह राक्षसी कर्म के होते हैं। ऐसे लोगों का संपूर्ण जीवन ही भूतों के अधीन रहता है। भूत-प्रेत से बचने के लिए ऐसे कोई भी टोने-टोटके न करें जो धर्म विरुद्ध हो। हो सकता है आपको इससे तात्कालिक लाभ मिल जाए, लेकिन अंतत: जीवन भर आपको परेशान ही रहना पड़ेगा।

यदि किसी व्यक्ति पर बहुत जल्दी नजर दोष / टोने टोटके / तांत्रिक क्रिया का प्रभाव होता है तो उनकी जन्म कुंडली मे ग्रहो के ये योग होते है

यदि किसी जन्म पत्रिका मे सूर्य, चंद्र, शनि, मंगल ग्रह विशेष भावों में राहु-केतु से पीड़ित, जन्मपत्री लग्न व सूर्य कमजोर हो तो उन पर तांत्रिक क्रिया जल्दी प्रभाव डालती है। यदि कुंडली ग्रहण योग या राहु बहुत अनिष्टकारी स्थिति में है या शनि की टेढ़ी दृष्टि है या मंगल-शनि का संयोग है या चंद्र-शनि का संयोग हो तो भी जातक ऋणात्मक शक्तियों के प्रभाव में आता है। जब शनि नीच राशि मैं राहू के साथ हो तो भी श्रापित दोष के कारण व्यक्ति पर तन्त्र क्रिया हो सकती है ।


तांत्रिक प्रयोग का पता करें


  1. आपको अचानक भूख लगती है, लेकिन खाते वक्त मन नहीं करता ।
  2. घर में सुबह या शाम मन्दिर का दीपक जलाते समय विवाद होने लगे या बच्चा रोने लगे।
  3. घर के मन्दिर में अचानक आग लग जाये ।
  4. घर के सदस्यों का एक के बाद एक बीमार पड़ना।
  5. शरीर पर अचानक नीले रंग के निशान बन जाएं।
  6. आपके पहने नए कपड़े अचानक फट जाएं। उस पर स्याही या अन्य कोई दाग लगने लग जाए या जल जाएं।
  7. रात को सिरहाने एक लोटे में पानी भरकर रखें और इस पानी को गमले में लगे या बगीचे में लगे किसी छोटे पौधे में सुबह डालें। कोई तंत्र क्रिया है तीन दिन से एक सप्ताह में यह पौधा सूख जाएगा।
  8. अगर आप पैसे अच्छे कमा रहे है और आपका व्यवसाय भी अच्छा चल रहा है. इस सबके बावजूद भी आपके पास पैसा नहीं रहता है आप पैसा नहीं जोड़ पा रहे है तो शनिवार के दिन चपाती बना दें. उन चपातियों को तेल से चुपड़ कर काले कुत्ते को खिला दें. यह प्रयोग भी आपको बहुत फायदा पहुँचायेगा.
  9. अगर आप किसी की बुरे नजर के शिकार बन गए है तो इससे बचने के लिए कच्चे दूध का इस्तेमाल करें. आपके अलावा अगर कोई और व्यक्ति भी इससे परेशान है तो प्रभावित व्यक्ति के सिर के चारों ओर कच्चे दूध को घुमाये ऐसा आप सात बार करें. अब एक काले कुत्ते को ढूंढ लें और उसे वह दूध पिला दें. यह सब आपको शनिवार के दिन ही करना है. यह भी आपको लाभ पहुँचायेगा |
  10. अगर कोई व्यक्ति आपको तांत्रिक क्रिया करके परेशान कर रहा है और उससे आपका घर मकान, दूकान या व्यवसाय प्रभावित है तो इस नुकसान से बचने के लिए शनिवार के दिन ही एक प्रयोग करके बचा जा सकता है. इस प्रयोग में पीपल के पेड़ से पांच पत्ते तोड़ लें. 8 पत्ते पान के भी लें जो डंडीदार हो. उन दोनों प्रकार के पत्तों को लाल दंगे में पिरो लें. इसके बाद इन्हें आपकी दुकान के पूर्व में बांध दें. ऐसा करने से आप पर जो तांत्रिक क्रिया की गयी है वह ख़त्म हो जाएगी और आप भी नुकसान से बच सकते है.
  11. इस प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव खत्म करने के लिए एक सटीक उपाय है कि अपने घर में नियमित रूप से गौमूत्र का छिड़काव किया जाए। शास्त्रों के अनुसार गौमूत्र को पवित्र पदार्थ माना गया है और इसमें वातावरण में मौजूद सभी नकारात्मक शक्तियों को समाप्त करने की शक्ति होती है। ऐसा माना जाता है गाय में सभी देवी-देवताओं का वास होता है। अत: इससे प्राप्त होने वाली हर चीज बहुत ही पवित्र और पूजनीय है।
  12. किसी भी प्रकार के टोने-टोटके, तंत्र-मंत्र या बुरी नजर के प्रभाव से बचने के लिए गौमूत्र का उपयोग सर्वश्रेष्ठ उपाय है। यदि संभव हो तो प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा गौमूत्र पीने से भी लाभ प्राप्त होते हैं। इसके अलावा अपने आसपास का वातावरण सकारात्मक रखें। किसी प्रकार के नकारात्मक विचारों को अपने से दूर ही रखें और ऐसे लोगों से भी दूर रहें। प्रतिदिन नियमित रूप से हनुमान चालीसा का पाठ करें और प्रति मंगलवार-शनिवार को हनुमान मंदिर जाएं तथा सुंदरकांड या हनुमान चालीसा का पाठ करें। आप सभी प्रकार के टोने-टोटकों और बुरी नजर के प्रभाव से बचे रहेंगे।
  13. घर के सदस्यों का एक के बाद एक बीमार पड़ जाना या अचानक घर के किसी सदस्य की मौत हो जाना. यहाँ तक कि घर के किसी जानवर जैसे गाय, कुत्ता, भैंस आदि की अचानक मृत्यु हो जाना इस बात का संकेत है, कि घर में तांत्रिक क्रिया का असर है।
  14. घर के मंदिर में दीपक जलाते समय वाद विवाद होने लगे या बच्चा रोने लगे या घर के मंदिर में अचानक आग लग जाएँ तो समझ लीजिये कि ये तांत्रिक असर ही है।
  15. इसके इलावा घर के अंदर या बाहर सिंदूर, हड्डी, राई और निम्बू आदि सामग्री बार बार मिलने लगे या चतुर्दशी और अमावस्या पर घर का कोई सदस्य बीमार पड़ जाएँ तो समझ लीजिये कि ये तांत्रिक क्रिया का असर है।

काला जादू की पहचान

यदि आप धार्मिक शास्त्रों में विश्वास रखते है, तो यक़ीनन आपको जादू टोने और तांत्रिक असर का मतलब भो जरूर पता होगा. जी हां हम यहाँ उसी जादू टोने की बात कर रहे है, जिसके कारण अच्छे खासे लोग भी बीमार पड़ जाते है. जिन लोगो पर तंत्र मंत्र का असर होता है, उनका व्यावहार अचानक ही बदल जाता है. ऐसे में कोई भी ये नहीं समझ पाता कि आखिर उस इंसान के साथ क्या समस्या है. जिसके चलते इंसान को कई यातनाएं तक झेलनी पड़ती है |

तांत्रिक क्रियाओं और टोने टोटके से बहुत व्यक्ति परेशान है और इनके प्रभाव भी बहुत ही बुरे होते है जो व्यक्ति के रहन सहन को बहुत प्रभावित करते है. अगर आप पर भी इस तरह के तांत्रिक क्रियाओं के प्रभाव है तो आप उनसे छुटकारा पा सकते है और इसमें शनिवार का दिन बहुत लाभदायक है. शनिवार के दिन कुछ प्रयोग करके आप तांत्रिक क्रियाओं को काट सकते है |

जानिए ऐसी कुछ घटनाएं जिससे आप पता कर सकते हैं कि कहीं आप भी तो तंत्र-मंत्र का शिकार तो नहीं हो गए ?

जानिए क्या लक्षण हैं ?

  • आपको काले जादू से ग्रस्त व्यक्ति के पास बैठने से ही डर लगने लगेगा | यदि तीव्रता कम है तो स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है या कोई गंभीर बीमारी लग जाती है और टेस्ट में कुछ भी नहीं आता | मेडिकल विज्ञान असहाय सा मालूम होता है | कल्पना कीजिये कि किसी ठीक ठाक व्यक्ति को यदि heavy dose दे दी जाए तो उस पर क्या असर पड़ेगा | लेकिन जिस के शरीर पर किसी बुरी आत्मा का प्रकोप है उसे इन दवाइयों का असर उस समय बिलकुल नहीं होता | असर होता है तब जब बुरी आत्मा कुछ समय के लिए ग्रस्त व्यक्ति के शरीर से बाहर आती है | इस विषय में यदि मेडिकल कुछ न कर पाए तो यह मान लेना चाहिए कि कुछ न कुछ supernatural है | कुछ भी सामान्य नहीं लगता है | आवाज बदल जाए तो वह काले जादू का चरम होता है | कम से कम विज्ञान के पास तो इसका कोई जवाब नहीं है |
  • इसके इलावा यदि आपके घर में अचानक से बिल्ली, उल्लू, चमगादड़, सांप और भंवरा घूमते हुए दिखाई दे, तो समझ लीजिये कि ये तांत्रिक क्रिया का ही असर है.
  • रात्रि को सोते समय एक हरा नीम्बू तकिये के नीचे रखें और प्रार्थना करें कि जो भी निगेटिव क्रिया हुई है वह इस नीम्बू में समाहित हो जाए। सुबह उठने पर यदि नीम्बू मुरझाया हुआ या रंग काला मिलता है तो समझिए आप पर तांत्रिक क्रिया हुई है।
  • रात को अपने सिरहाने एक लोटा पानी का भर कर रखे और फिर सुबह होते ही इस पानी को किसी गमले या बगीचे में लगे छोटे से पौधे में डाल दे. ऐसे में यदि आप पर किसी तांत्रिक का असर है, तो तीन दिन से एक सप्ताह के अंदर पानी डालने के बावजूद भी यह पौधा सूख जाएगा.
    यदि बार-बार घबराहट होने लगती है। पसीना सा आने लगता हैं। हाथ-पैर शून्य से हो जाते है। मेडिकल जांच में रिपोर्ट सामान्‍य आती हैं। बावजूद इसके ऐसा लगातार होता रहता है तो आप किसी तान्त्रिक क्रिया के शिकार हो गए हैं।

बातें बिल्व वृक्ष की


बातें बिल्व वृक्ष की-
1. बिल्व वृक्ष के आसपास सांप नहीं आते 
2. अगर किसी की शव यात्रा बिल्व वृक्ष की छाया से होकर गुजरे तो उसका मोक्ष हो जाता है 
3. वायुमंडल में व्याप्त अशुध्दियों को सोखने की क्षमता सबसे ज्यादा बिल्व वृक्ष में होती है 
4. चार पांच छः या सात पत्तो वाले बिल्व पत्रक पाने वाला परम भाग्यशाली और शिव को अर्पण करने से अनंत गुना फल मिलता है 
5. बेल वृक्ष को काटने से वंश का नाश होता है।और बेल वृक्ष लगाने से वंश की वृद्धि होती है।
6. सुबह शाम बेल वृक्ष के दर्शन मात्र से पापो का नाश होता है।
7. बेल वृक्ष को सींचने से पितर तृप्त होते है।
8. बेल वृक्ष और सफ़ेद आक् को जोड़े से लगाने पर अटूट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
9. बेल पत्र और ताम्र धातु के एक विशेष प्रयोग से ऋषि मुनि
स्वर्ण धातु का उत्पादन करते थे ।
10. जीवन में सिर्फ एक बार और वो भी यदि भूल से भी शिव लिंग पर बेल पत्र चढ़ा दिया हो तो भी उसके सारे पाप मुक्त हो जाते है 
11. बेल वृक्ष का रोपण, पोषण और संवर्धन करने से महादेव से साक्षात्कार करने का अवश्य लाभ मिलता है।
कृपया बिल्व पत्र का पेड़ जरूर लगाये । 
बिल्व पत्र के लिए पेड़ को क्षति न पहुचाएं 
शिवजी की पूजा में ध्यान रखने योग्य बात
शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव को कौन सी चीज़ चढाने से
मिलता है क्या फल
किसी भी देवी-देवता का पूजन करते वक़्त उनको अनेक चीज़ें
अर्पित की जाती है। प्रायः भगवन को अर्पित की जाने वाली हर
चीज़ का फल अलग होता है। शिव पुराण में इस बात का वर्णन
मिलता है की भगवन शिव को अर्पित करने वाली अलग-अलग
चीज़ों का क्या फल होता है।
शिवपुराण के अनुसार जानिए कौन सा अनाज भगवान शिव को
चढ़ाने से क्या फल मिलता है:
1. भगवान शिव को चावल चढ़ाने से धन की प्राप्ति होती है।
2. तिल चढ़ाने से पापों का नाश हो जाता है।
3. जौ अर्पित करने से सुख में वृद्धि होती है।
4. गेहूं चढ़ाने से संतान वृद्धि होती है।यह सभी अन्न भगवान को अर्पण करने के बाद गरीबों में वितरीत कर देना चाहिए।
शिव पुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन सा रस
(द्रव्य) चढ़ाने से उसका क्या फल मिलता है
1. ज्वर (बुखार) होने पर भगवान शिव को जलधारा चढ़ाने से शीघ्र लाभ मिलता है। सुख व संतान की वृद्धि के लिए भी जलधारा द्वारा शिव की पूजा उत्तम बताई गई है।
2. नपुंसक व्यक्ति अगर शुद्ध घी से भगवान शिव का अभिषेक करे, ब्राह्मणों को भोजन कराए तथा सोमवार का व्रत करे तो उसकी समस्या का निदान संभव है।
3. तेज दिमाग के लिए शक्कर मिश्रित दूध भगवान शिव को चढ़ाएं।
4. सुगंधित तेल से भगवान शिव का अभिषेक करने पर समृद्धि में वृद्धि होती है।
5. शिवलिंग पर ईख (गन्ना) का रस चढ़ाया जाए तो सभी आनंदों की प्राप्ति होती है।
6. शिव को गंगाजल चढ़ाने से भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।
7. मधु (शहद) से भगवान शिव का अभिषेक करने से राजयक्ष्मा
(टीबी) रोग में आराम मिलता है।
शिव पुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन का फूल
चढ़ाया जाए तो उसका क्या फल मिलता है
1. लाल व सफेद आंकड़े के फूल से भगवान शिव का पूजन करने
पर भोग व मोक्ष की प्राप्ति होती है।
2. चमेली के फूल से पूजन करने पर वाहन सुख मिलता है।
3. अलसी के फूलों से शिव का पूजन करने से मनुष्य भगवान
विष्णु को प्रिय होता है।
4. शमी पत्रों (पत्तों) से पूजन करने पर मोक्ष प्राप्त होता है।
5. बेला के फूल से पूजन करने पर सुंदर व सुशील पत्नी मिलती है।
6. जूही के फूल से शिव का पूजन करें तो घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती।
7. कनेर के फूलों से शिव पूजन करने से नए वस्त्र मिलते हैं।
8. हरसिंगार के फूलों से पूजन करने पर सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है।
9. धतूरे के फूल से पूजन करने पर भगवान शंकर सुयोग्य पुत्र प्रदान करते हैं, जो कुल का नाम रोशन करता है।
10. लाल डंठलवाला धतूरा पूजन में शुभ माना गया है।
11. दूर्वा से पूजन करने पर आयु बढ़ती है।


सर्वदोष नाश के लिये रुद्राभिषेक विधि:-


सर्वदोष नाश के लिये रुद्राभिषेक विधि:-
रुद्राभिषेक अर्थात रूद्र का अभिषेक करना यानि कि शिवलिंग पर रुद्रमंत्रों के द्वारा अभिषेक करना। जैसा की वेदों में वर्णित है शिव और रुद्र परस्पर एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। शिव को ही रुद्र कहा जाता है। क्योंकि- रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: यानि की भोले सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं। रुद्राभिषेक करना शिव आराधना का सर्वश्रेष्ठ तरीका माना गया है। रूद्र शिव जी का ही एक स्वरूप हैं। रुद्राभिषेक मंत्रों का वर्णन ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में भी किया गया है। शास्त्र और वेदों में वर्णित हैं की शिव जी का अभिषेक करना परम कल्याणकारी है।

रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारे पटक-से पातक कर्म भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है।

रूद्रहृदयोपनिषद में शिव के बारे में कहा गया है कि- सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका: अर्थात् सभी देवताओं की आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं।

वैसे तो रुद्राभिषेक किसी भी दिन किया जा सकता है परन्तु त्रियोदशी तिथि,प्रदोष काल और सोमवार को इसको करना परम कल्याण कारी है। श्रावण मास में किसी भी दिन किया गया रुद्राभिषेक अद्भुत व् शीघ्र फल प्रदान करने वाला होता है।

रुद्राभिषेक क्या है ?
अभिषेक शब्द का शाब्दिक अर्थ है – स्नान करना अथवा कराना। रुद्राभिषेक का अर्थ है भगवान रुद्र का अभिषेक अर्थात शिवलिंग पर रुद्र के मंत्रों के द्वारा अभिषेक करना। यह पवित्र-स्नान रुद्ररूप शिव को कराया जाता है। वर्तमान समय में अभिषेक रुद्राभिषेक के रुप में ही विश्रुत है। अभिषेक के कई रूप तथा प्रकार होते हैं। शिव जी को प्रसंन्न करने का सबसे श्रेष्ठ तरीका है रुद्राभिषेक करना अथवा श्रेष्ठ ब्राह्मण विद्वानों के द्वारा कराना। वैसे भी अपनी जटा में गंगा को धारण करने से भगवान शिव को जलधाराप्रिय माना गया है।

रुद्राभिषेक क्यों किया जाता हैं?
रुद्राष्टाध्यायी के अनुसार शिव ही रूद्र हैं और रुद्र ही शिव है। रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: अर्थात रूद्र रूप में प्रतिष्ठित शिव हमारे सभी दु:खों को शीघ्र ही समाप्त कर देते हैं। वस्तुतः जो दुःख हम भोगते है उसका कारण हम सब स्वयं ही है हमारे द्वारा जाने अनजाने में किये गए प्रकृति विरुद्ध आचरण के परिणाम स्वरूप ही हम दुःख भोगते हैं।

रुद्राभिषेक का आरम्भ कैसे हुआ ?
प्रचलित कथा के अनुसार भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजी जबअपने जन्म का कारण जानने के लिए भगवान विष्णु के पास पहुंचे तो उन्होंने ब्रह्मा की उत्पत्ति का रहस्य बताया और यह भी कहा कि मेरे कारण ही आपकी उत्पत्ति हुई है। परन्तु ब्रह्माजी यह मानने के लिए तैयार नहीं हुए और दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध से नाराज भगवान रुद्र लिंग रूप में प्रकट हुए। इस लिंग का आदि अन्त जब ब्रह्मा और विष्णु को कहीं पता नहीं चला तो हार मान लिया और लिंग का अभिषेक किया, जिससे भगवान प्रसन्न हुए। कहा जाता है कि यहीं से रुद्राभिषेक का आरम्भ हुआ।

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव सपरिवार वृषभ पर बैठकर विहार कर रहे थे। उसी समय माता पार्वती ने मर्त्यलोक में रुद्राभिषेक कर्म में प्रवृत्त लोगो को देखा तो भगवान शिव से जिज्ञासा कि की हे नाथ मर्त्यलोक में इस इस तरह आपकी पूजा क्यों की जाती है? तथा इसका फल क्या है? भगवान शिव ने कहा – हे प्रिये! जो मनुष्य शीघ्र ही अपनी कामना पूर्ण करना चाहता है वह आशुतोषस्वरूप मेरा विविध द्रव्यों से विविध फल की प्राप्ति हेतु अभिषेक करता है। जो मनुष्य शुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी से अभिषेक करता है उसे मैं प्रसन्न होकर शीघ्र मनोवांछित फल प्रदान करता हूँ। जो व्यक्ति जिस कामना की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक करता है वह उसी प्रकार के द्रव्यों का प्रयोग करता है अर्थात यदि कोई वाहन प्राप्त करने की इच्छा से रुद्राभिषेक करता है तो उसे दही से अभिषेक करना चाहिए यदि कोई रोग दुःख से छुटकारा पाना चाहता है तो उसे कुशा के जल से अभिषेक करना या कराना चाहिए।

रुद्राभिषेक की पूर्ण विधि 
रुद्राभिषेक पाठ एवं उसके भेद
पूरा संसार अपितु पाताल से लेकर मोक्ष तक जिस अक्षर की सीमा नही ! ब्रम्हा आदि देवता भी जिस अक्षर का सार न पा सके उस आदि अनादी से रहित निर्गुण स्वरुप ॐ के स्वरुप में विराजमान जो अदितीय शक्ति भूतभावन कालो के भी काल गंगाधर भगवान महादेव को प्रणाम करते है ।

अपितु शास्त्रों और पुरानो में पूजन के कई प्रकार बताये गए है लेकिन जब हम शिव लिंग स्वरुप महादेव का अभिषेक करते है तो उस जैसा पुण्य अश्वमेघ जैसेयाग्यों से भी प्राप्त नही होता !

स्वयं श्रृष्टि कर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है की जब हम अभिषेक करते है तो स्वयं महादेव साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करने लगते है । संसार में ऐसी कोई वस्तु , कोई भी वैभव , कोई भी सुख , ऐसी कोई भी वास्तु या पदार्थ नही है जो हमें अभिषेक से प्राप्त न हो सके! वैसे तो अभिषेक कई प्रकार से बताये गये है । लेकिन मुख्या पांच ही प्रकार है ! 

(1) रूपक या षडड पाठ - रूद्र के छः अंग कहे गये है इन छह अंग का यथा विधि पाठ षडंग पाठ खा गया है ।

शिव कल्प शुक्त --- 1. प्रथम हृदय रूपी अंग है 

पुरुष शुक्त --- 2. द्वितीय सर रूपी अंग है ।

अप्रतिरथ सूक्त --- 3. कवचरूप चतुर्थ अंग है ।

मैत्सुक्त --- 4. नेत्र रूप पंचम अंग कहा गया है ।

शतरुद्रिय --- 5. अस्तरूप षष्ठ अंग कहा गया है।

इस प्रकार - सम्पूर्ण रुद्रश्त्ध्ययि के दस अध्यायों का षडडंग रूपक पाठ कहलाता है षडडंग पाठ में विशेष बात है की इसमें आठवें अध्याय के साथ पांचवे अध्याय की आवृति नही होती है।

(2) रुद्री या एकादिशिनि - रुद्राध्याय की गयी ग्यारह आवृति को रुद्री या एकादिशिनी कहते है रुद्रो की संख्या ग्यारह होने के कारण ग्यारह अनुवाद में विभक्त किया गया है।

(3) लघुरुद्र- एकादिशिनी रुद्री की ग्यारह अव्रितियों के पाठ के लघुरुद्र पाठ कहा गया है।

यह लघु रूद्र अनुष्ठान एक दिन में ग्यारह ब्राह्मणों का वरण करके एक साथ संपन्न किया जा सकता है । तथा एक ब्राह्मण द्वारा अथवा स्वयं ग्यारह दिनों तक एक एकादिशिनी पाठ नित्य करने पर भी लघु रूद्र संपन्न होती है।

(4) महारुद्र -- लघु रूद्र की ग्यारह आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री का 121 आवृति पाठ होने पर महारुद्र अनुष्ठान होता है । यह पाठ ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा 11 दिन तक कराया जाता है । 

(5) अतिरुद्र - महारुद्र की 11 आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री का 1331 आवृति पथ होने से अतिरुद्र अनुष्ठान संपन्न होता है ये (1)अनुष्ठात्मक 
(2) अभिषेकात्मक 
(3) हवनात्मक , 

तीनो प्रकार से किये जा सकते है शास्त्रों में इन अनुष्ठानो की अत्यधिक फल है व तीनो का फल समान है। 
गत पोस्ट में हमने भक्तो की सुविधा हेतु महादेव का आसान लौकिक मंत्रो से पूजन विधि बताई थी पूजा समाप्ति के उपरांत शिव अभिषेक का नियम है इसके लिये आवश्यक सामग्री पहले ही एकत्रित करलें।
सामग्री-बाल्टी अथवा बड़ा पात्र जल के लिये संभव हो तो गंगाजल से अभिषेक करे। श्रृंगी (गाय के सींग से बना अभिषेक का पात्र) श्रृंगी पीतल एवं अन्य धातु की भी बाजार में सहज उपलब्ध हो जाती है।, लोटा आदि।

रुद्राभिषेक से लाभ
शिव पुराण के अनुसार किस द्रव्य से अभिषेक करने से क्या फल मिलता है अर्थात आप जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु रुद्राभिषेक करा रहे है उसके लिए किस द्रव्य का इस्तेमाल करना चाहिए का उल्लेख शिव पुराण में किया गया है उसका सविस्तार विवरण प्रस्तुत कर रहा हू और आप से अनुरोध है की आप इसी के अनुरूप रुद्राभिषेक कराये तो आपको पूर्ण लाभ मिलेगा। रुद्राभिषेक अनेक पदार्थों से किया जाता है और हर पदार्थ से किया गया रुद्राभिषेक अलग फल देने में सक्षम है जो की इस प्रकार से हैं ।

श्लोक
जलेन वृष्टिमाप्नोति व्याधिशांत्यै कुशोदकै

दध्ना च पशुकामाय श्रिया इक्षुरसेन वै।

मध्वाज्येन धनार्थी स्यान्मुमुक्षुस्तीर्थवारिणा।

पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति पयसा चाभिषेचनात।।

बन्ध्या वा काकबंध्या वा मृतवत्सा यांगना।

जवरप्रकोपशांत्यर्थम् जलधारा शिवप्रिया।।

घृतधारा शिवे कार्या यावन्मन्त्रसहस्त्रकम्।

तदा वंशस्यविस्तारो जायते नात्र संशयः।

प्रमेह रोग शांत्यर्थम् प्राप्नुयात मान्सेप्सितम।

केवलं दुग्धधारा च वदा कार्या विशेषतः।

शर्करा मिश्रिता तत्र यदा बुद्धिर्जडा भवेत्।

श्रेष्ठा बुद्धिर्भवेत्तस्य कृपया शङ्करस्य च!!

सार्षपेनैव तैलेन शत्रुनाशो भवेदिह!

पापक्षयार्थी मधुना निर्व्याधिः सर्पिषा तथा।।

जीवनार्थी तू पयसा श्रीकामीक्षुरसेन वै।

पुत्रार्थी शर्करायास्तु रसेनार्चेतिछवं तथा।

महलिंगाभिषेकेन सुप्रीतः शंकरो मुदा।

कुर्याद्विधानं रुद्राणां यजुर्वेद्विनिर्मितम्।

   अर्थात
जल से रुद्राभिषेक करने पर —               वृष्टि होती है।

कुशा जल से अभिषेक करने पर —        रोग, दुःख से छुटकारा मिलती है।

दही से अभिषेक करने पर —                  पशु, भवन तथा वाहन की प्राप्ति होती है।

गन्ने के रस से अभिषेक  करने पर —     लक्ष्मी प्राप्ति

मधु युक्त जल से अभिषेक करने पर — धन वृद्धि के लिए। 

तीर्थ जल से अभिषेक करने पर — मोक्ष की प्राप्ति होती है।

इत्र मिले जल से अभिषेक करने से —     बीमारी नष्ट होती है ।

दूध् से अभिषेककरने से   —                   पुत्र प्राप्ति,प्रमेह रोग की शान्ति तथा  मनोकामनाएं  पूर्ण

गंगाजल से अभिषेक करने से —             ज्वर ठीक हो जाता है।

दूध् शर्करा मिश्रित अभिषेक करने से — सद्बुद्धि प्राप्ति हेतू।

घी से अभिषेक करने से —                       वंश विस्तार होती है।

सरसों के तेल से अभिषेक करने से —      रोग तथा शत्रु का नाश होता है।

शुद्ध शहद रुद्राभिषेक करने से   —-         पाप क्षय हेतू।

इस प्रकार शिव के रूद्र रूप के पूजन और अभिषेक करने से जाने-अनजाने होने वाले पापाचरण से भक्तों को शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है और साधक में शिवत्व रूप सत्यं शिवम सुन्दरम् का उदय हो जाता है उसके बाद शिव के शुभाशीर्वाद सेसमृद्धि, धन-धान्य, विद्या और संतान की प्राप्ति।

रुद्राभिषेक कैसे करे
1 जल से अभिषेक
हर तरह के दुखों से छुटकारा पाने के लिए भगवान शिव का जल से अभिषेक करें।
सर्वप्रथम भगवान शिव के बाल स्वरूप का मानसिक ध्यान करें तत्पश्चाततांबे को छोड़ अन्य किसी भी पात्र विशेषकर चांदी के पात्र में ‘शुद्ध जल’ भर कर पात्र पर कुमकुम का तिलक करें,  ॐ इन्द्राय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय” का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर जल की पतली धार बनाते हुए रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करेत हुए ॐ तं त्रिलोकीनाथाय स्वाहा मंत्र का जाप करें, शिवलिंग को वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें

2 दूध से अभिषेक
 शिव को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद पाने के लिए दूध से अभिषेक करें
भगवान शिव के ‘प्रकाशमय’ स्वरूप का मानसिक ध्यान करें।
अभिषेक के लिए तांबे के बर्तन को छोड़कर किसी अन्य धातु के बर्तन का उपयोग करना चाहिए। खासकर तांबे के बरतन में दूध, दही या पंचामृत आदि नहीं डालना चाहिए। इससे ये सब मदिरा समान हो जाते हैं। तांबे के पात्र में जल का तो अभिषेक हो सकता है लेकिन तांबे के साथ दूध का संपर्क उसे विष बना देता है इसलिए तांबे के पात्र में दूध का अभिषेक बिल्कुल वर्जित होता है। क्योंकि तांबे के पात्र में दूध अर्पित या उससे भगवान शंकर को अभिषेक कर उन्हें अनजाने में आप विष अर्पित करते हैं। पात्र में ‘दूध’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें, ॐ श्री कामधेनवे नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय’ का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर दूध की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए ॐ सकल लोकैक गुरुर्वै नम: मंत्र का जाप करें, शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें

3-फलों का रस
अखंड धन लाभ व हर तरह के कर्ज से मुक्ति के लिए भगवान शिव का फलों के रस से अभिषेक करें।
 भगवान शिव के ‘नील कंठ’ स्वरूप का मानसिक ध्यान करें, ताम्बे के पात्र में ‘गन्ने का रस’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें, ॐ कुबेराय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर फलों का रस की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए -ॐ ह्रुं नीलकंठाय स्वाहा मंत्र का जाप करें, शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें

4 सरसों के तेल से अभिषेक
नग्रहबाधा नाश हेतु भगवान शिव का सरसों के तेल से अभिषेक करें।
भगवान शिव के ‘प्रलयंकर’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें फिर ताम्बे के पात्र में ‘सरसों का तेल’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें  ॐ भं भैरवाय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय” का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर सरसों के तेल की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए ॐ नाथ नाथाय नाथाय स्वाहा मंत्र का जाप करें,  शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें

5 चने की दाल
किसी भी शुभ कार्य के आरंभ होने व कार्य में उन्नति के लिए भगवान शिव का चने की दाल से अभिषेक करें।
भगवान शिव के ‘समाधी स्थित’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें फिर ताम्बे के पात्र में ‘चने की दाल’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें,  ॐ यक्षनाथाय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें,  पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर चने की दाल की धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए -ॐ शं शम्भवाय नम: मंत्र का जाप करें, शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें

6 काले तिल से अभिषेक
तंत्र बाधा नाश हेतु व बुरी नजर से बचाव के लिए काले तिल से अभिषेक करें। इसके लिये सर्वप्रथम भगवान शिव के ‘नीलवर्ण’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें, ताम्बे के पात्र में ‘काले तिल’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें, ॐ हुं कालेश्वराय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर काले तिल की धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए -ॐ क्षौं ह्रौं हुं शिवाय नम: का जाप करें, शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें

7 शहद मिश्रित गंगा जल
 संतान प्राप्ति व पारिवारिक सुख-शांति हेतु शहद मिश्रित गंगा जल से अभिषेक करें।
सबसे पहले भगवान शिव के ‘चंद्रमौलेश्वर’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें, ताम्बे के पात्र में ” शहद मिश्रित गंगा जल” भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें, ॐ चन्द्रमसे नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय’ का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर शहद मिश्रित गंगा जल की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें अभिषेक करते हुए -ॐ वं चन्द्रमौलेश्वराय स्वाहा’ का जाप करें शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें।

8 घी व शहद
 रोगों के नाश व लम्बी आयु के लिए घी व शहद से अभिषेक करें।
इसके लिये सर्वप्रथम भगवान शिव के ‘त्रयम्बक’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें, ताम्बे के पात्र में ‘घी व शहद’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें फिर ॐ धन्वन्तरयै नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय” का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें शिवलिंग पर घी व शहद की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें अभिषेक करते हुए -ॐ ह्रौं जूं स: त्रयम्बकाय स्वाहा” का जाप करें शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें

9  कुमकुम केसर मिश्रित जल
 आकर्षक व्यक्तित्व का प्राप्ति हेतु भगवान शिव का कुमकुम केसर के मिश्रण से अभिषेक करें।

सर्वप्रथम भगवान शिव के ‘नीलकंठ’ स्वरूप का मानसिक ध्यान करें चाँदी अथवा स्टील के पात्र में ‘कुमकुम केसर और पंचामृत’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें – ‘ॐ उमायै नम:’ का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें पंचाक्षरी मंत्र ‘ॐ नम: शिवाय’ का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें पंचाक्षरी मंत्र पढ़ते हुए पात्र में फूलों की कुछ पंखुडियां दाल दें-‘ॐ नम: शिवाय’ फिर शिवलिंग पर पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें. अभिषेक का मंत्र-ॐ ह्रौं ह्रौं ह्रौं नीलकंठाय स्वाहा’  शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें


श्रीगणेश के कल्याणकारी मन्त्र


श्रीगणेश के कल्याणकारी मन्त्र   
 मंत्रो मे से कोई भी एक मंत्र का जाप करे।
1  गं ।  
2 ग्लं ।   
3  ग्लौं । 
4 श्री गणेशाय नमः ।  
5 ॐ वरदाय नमः ।
6 ॐ सुमंगलाय नमः ।  
7  ॐ चिंतामणये नमः ।
8  ॐ वक्रतुंडाय हुम् ।
9 ॐ नमो भगवते गजाननाय ।  
10 ॐ गं गणपतये नमः ।  
11ॐ ॐ श्री गणेशाय नमः ।

इन मंत्रो के जप से व्यक्ति को जीवन में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं रहता है परिस्थितिवश अगर कष्ट आता भी है तो उनसे पार पाने का सामर्थ्य मिलता है। आर्थिक स्थिति मे सुधार होता है।
एवं सर्व प्रकार की रिद्धि-सिद्धि प्राप्त होती है।

भगवान गणपति के अन्य दुर्भाग्य नाशक मंत्र

ॐ गं गणपतये नमः

ऐसा शास्त्रोक्त वचन हैं कि गणेश जी का यह मंत्र चमत्कारिक और तत्काल फल देने वाला मंत्र हैं। इस मंत्र का पूर्ण भक्तिपूर्वक जाप करने से समस्त बाधाएं दूर होती हैं। षडाक्षर का जप आर्थिक प्रगति व समृध्दिदायक है ।

ॐ वक्रतुंडाय हुम्‌ 

किसी के द्वारा कि गई तांत्रिक क्रिया को नष्ट करने के लिए, विविध कामनाओं की शीघ्र पूर्ति के लिए उच्छिष्ट गणपति कि साधना की जाती हैं। उच्छिष्ट गणपति के मंत्र का जाप अक्षय भंडार प्रदान करने वाला हैं।

ॐ हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा 

आलस्य, निराशा, कलह, विघ्न दूर करने के लिए विघ्नराज रूप की आराधना का यह मंत्र जपे 

ॐ गं क्षिप्रप्रसादनाय नम:

मंत्र जाप से कर्म बंधन, रोगनिवारण, कुबुद्धि, कुसंगत्ति, दूर्भाग्य, से मुक्ति होती हैं। समस्त विघ्न दूर होकर धन, आध्यात्मिक चेतना के विकास एवं आत्मबल की प्राप्ति के लिए हेरम्बं गणपति का मंत्र जपे।

ॐ गूं नम:

रोजगार की प्राप्ति व आर्थिक समृध्दि प्राप्त होकर सुख सौभाग्य प्राप्त होता हैं।

ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गण्पतये वर वरदे नमः ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात

लक्ष्मी प्राप्ति एवं व्यवसाय बाधाएं दूर करने हेतु उत्तम मान गया हैं।

ॐ गीः गूं गणपतये नमः स्वाहा

इस मंत्र के जाप से समस्त प्रकार के विघ्नो एवं संकटो का का नाश होता हैं।

ॐ श्री गं सौभाग्य गणपतये वर वरद सर्वजनं में वशमानय स्वाहा 

अथवा

ॐ वक्रतुण्डेक द्रष्टाय क्लीं हीं श्रीं गं गणपतये वर वरद सर्वजनं मं दशमानय स्वाहा 

विवाह में आने वाले दोषो को दूर करने वालों को त्रैलोक्य मोहन गणेश मंत्र का जप करने से शीघ्र विवाह व अनुकूल जीवनसाथी की प्राप्ति होती है।

ॐ वर वरदाय विजय गणपतये नमः

इस मंत्र के जाप से मुकदमे में सफलता प्राप्त होती हैं।

ॐ गं गणपतये सर्वविघ्न हराय सर्वाय सर्वगुरवे लम्बोदराय ह्रीं गं नमः

वाद-विवाद, कोर्ट कचहरी में विजय प्राप्ति, शत्रु भय से छुटकारा पाने हेतु उत्तम।

ॐ नमः सिद्धिविनायकाय सर्वकार्यकर्त्रे सर्वविघ्न प्रशमनाय सर्व राज्य वश्य कारनाय सर्वजन सर्व स्त्री पुरुषाकर्षणाय श्री ॐ स्वाहा

इस मंत्र के जाप को यात्रा में सफलता प्राप्ति हेतु प्रयोग किया जाता हैं।

ॐ हुं गं ग्लौं हरिद्रा गणपत्ये वरद वरद सर्वजन हृदये स्तम्भय स्वाहा

यह हरिद्रा गणेश साधना का चमत्कारी मंत्र हैं।

ॐ ग्लौं गं गणपतये नमः

गृह कलेश निवारण एवं घर में सुखशान्ति कि प्राप्ति हेतु।

ॐ गं लक्ष्म्यौ आगच्छ आगच्छ फट्

इस मंत्र के जाप से दरिद्रता का नाश होकर, धन प्राप्ति के प्रबल योग बनने लगते हैं।

ॐ गणेश महालक्ष्म्यै नमः

व्यापार से सम्बन्धित बाधाएं एवं परेशानियां निवारण एवं व्यापर में निरंतर उन्नति हेतु।

ॐ गं रोग मुक्तये फट्

भयानक असाध्य रोगों से परेशानी होने पर, उचित ईलाज कराने पर भी लाभ प्राप्त नहीं होरहा हो, तो पूर्ण विश्वास सें मंत्र का जाप करने से या जानकार व्यक्ति से जाप करवाने से धीरे-धीरे रोगी को रोग से छुटकारा मिलता हैं।

ॐ अन्तरिक्षाय स्वाहा

इस मंत्र के जाप से मनोकामना पूर्ति के अवसर प्राप्त होने लगते हैं।

गं गणपत्ये पुत्र वरदाय नमः

इस मंत्र के जाप से उत्तम संतान कि प्राप्ति होती हैं।

ॐ वर वरदाय विजय गणपतये नमः

इस मंत्र के जाप से मुकदमे में सफलता प्राप्त होती हैं।

ॐ श्री गणेश ऋण छिन्धि वरेण्य हुं नमः फट 

यह ऋण हर्ता मंत्र हैं। इस मंत्र का नियमित जाप करना चाहिए। इससे गणेश जी प्रसन्न होते है और साधक का ऋण चुकता होता है। कहा जाता है कि जिसके घर में एक बार भी इस मंत्र का उच्चारण हो जाता है है उसके घर में कभी भी ऋण या दरिद्रता नहीं आ सकती।

इन मंत्रों के अतिरिक्त गणपति अथर्वशीर्ष, संकटनाशक गणेश स्त्रोत, गणेशकवच, संतान गणपति स्त्रोत, ऋणहर्ता गणपति स्त्रोत, मयूरेश स्त्रोत, गणेश चालीसा का पाठ करते रहने से गणेश जी की शीघ्र कृपा प्राप्त होती है।

जप विधि:-
प्रात: स्नानादि शुद्ध होकर कुश या ऊन के आसन पर पूर्व की ओर मुख कर बैठें। सामने गणॆश‌जी का चित्र, यंत्र या मूर्ति स्थाप्ति करें फिर षोडशोपचार या पंचोपचार से भगवान गजानन का पूजन कर प्रथम दिन संकल्प करें। इसके बाद भगवान गणेश का एकाग्रचित्त से ध्यान करें। नैवेद्य में यदि संभव हो तो बूंदि या बेसन के लड्डू का भोग लगाये नहीं तो गुड का भोग लगाये । साधक गणेश‌जी के चित्र या मूर्ति के सम्मुख शुद्ध घी का दीपक जलाए। रोज १०८ माला का जाप करने से शीघ्र फल कि प्राप्ति होती हैं। यदि एक दिन में १०८ माला संभव न हो तो ५४, २७,१८ या ९ मालाओं का भी जाप किया जा सकता हैं। मंत्र जाप करने में यदि आप असमर्थ हो, तो किसी ब्राह्मण को उचित दक्षिणा देकर उनसे जाप करवाया जा सकता हैं अथवा प्रथम दिन अजपाजाप का संकल्प लेकर दिन भर अन्य कार्य भी करते हुए मन ही मन कामना अनुसार मन्त्र जाप करते रहने से पूर्वजनित प्रारब्ध कटता है जिससे आपके द्वारा किये गए मंत्रजप धीरे धीरे फल देने लगते है।


जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है।


जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है।
जप के अनेक प्रकार हैं। उन सबको समझ लें तो एक जपयोग में ही सब साधन आ जाते हैं। परमार्थ साधन के कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग ये चार बड़े विभाग हैं। जपयोग में इन चारों का अंतर्भाव हो जाता है। जप के कुछ मुख्य प्रकार ये हैं- 1. नित्य जप, 2. नैमित्तिक जप, 3. काम्य जप, 4. निषिद्ध जप, 5. प्रायश्चित जप, 6. अचल जप, 7. चल जप, 8. वाचिक जप, 9. उपांशु जप, 10. भ्रमर जप, 11. मानस जप, 12. अखंड जप, 13. अजपा जप और 14. प्रदक्षिणा जप इत्यादि। 
1. नित्य जप
प्रात:-सायं गुरु मंत्र का जो नित्य-नियमित जप किया जाता है, वह नित्य जप है। यह जप जपयोगी को नित्य ही करना चाहिए। आपातकाल में, यात्रा में अथवा बीमारी की अवस्‍था में, जब स्नान भी नहीं कर सकते, तब भी हाथ, पैर और मुंह धोकर कम से कम कुछ जप तो अवश्य कर ही लेना चाहिए, जैसे झाड़ना, बुहारना, बर्तन मलना और कपड़े धोना रोज का ही काम है, वैसे ही नित्य कर्म भी नित्य ही होना चाहिए। उससे नित्य दोष दूर होते हैं, जप का अभ्यास बढ़ता है, आनंद बढ़ता जाता है और चित्त शुद्ध होता जाता है और धर्म विचार स्फुरने लगते हैं। और जप संख्या ज्यों-ज्यों बढ़ती है, त्यों-त्यों ईश्वरी कृपा अनुभूत होने लगती और अपनी निष्ठा दृढ़ होती जाती है। 
2. नैमित्तिक जप
किसी निमित्त से जो जप होता है, वह नैमित्तिक जप है। देव-पितरों के संबंध में कोई हो, तब यह जप किया जाता है। सप्ताह में अपने इष्ट का एक न एक बार होता ही है। उस दिन तथा एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्व दिनों में और महाएकादशी, महाशिवरात्रि, श्री रामनवमी, श्री कृष्णाष्टमी, श्री दुर्गानवरात्र, श्री गणेश चतुर्थी, श्री रथ सप्तमी आदि शुभ दिनों में तथा ग्रहणादि पर्वों पर एकांत स्थान में बैठकर अधिक अतिरिक्त जप करना चाहिए। इससे पुण्य-संग्रह बढ़ता है और पाप का नाश होकर सत्यगुण की वृद्धि होती है और ज्ञान सुलभ होता है। यह जप रात में एकांत में करने से दृष्टांत भी होते हैं। 'न देवतोषणं व्यर्थम'- देव को प्रसन्न करना कभी व्यर्थ नहीं होता, यही मंत्रशास्त्र का कहना है। 
इष्टकाल में इसकी सफलता आप ही होती है। पितरों के लिए किया हुआ जप उनके सुख और सद्गति का कारण होता है और उनसे आशीर्वाद मिलते हैं। हमारा उनकी कोख से जन्म लेना भी इस प्रकार चरितार्थ हो जाता है। जिसको उद्देश्य करके संकल्पपूर्वक जो जप किया जाता है, वह उसी को प्राप्त होता है, यह मंत्रशास्त्र का सिद्धांत है। इस प्रकार पुण्य जोड़कर वह पितरों को पहुंचाया जा सकता है। इससे उनके ऋण से मुक्ति मिल सकती है। इसलिए कव्य कर्म के प्रसंग में और पितृपक्ष में भी यह जप अवश्य करना चाहिए। गुरु मंत्र से हव्यकर्म भी होता है। 
3. काम्य जप
किसी कामना की सिद्धि के लिए जो जप किया जाता है, उसे काम्य जप कहते हैं। यह काम्य कर्म जैसा है, मोक्ष चाहने वाले के काम का नहीं है। आर्त, अर्थार्थी, कामकामी लोगों के लिए उपयोगी है। इसके साधन में पवित्रता, नियमों का पूर्ण पालन, सावधानता, जागरूकता, धैर्य, निरलसता, मनोनिग्रह, इन्द्रिय निग्रह, वाक् संयम, मिताहार, मितशयन, ब्रह्मचर्य इन सबका होना अत्यंत ही आवश्यक है। योग्य गुरु से योग्य समय में लिया हुआ योग्य मंत्र हो, विधिपूर्वक जप हो, मन की एकाग्रता हो, दक्षिणा दे, भोजन कराएं, हवन करें, इस सांगता के साथ अनुष्ठान हो तो साधक की कामना अवश्य पूर्ण होती है।
इसमें कोई गड़बड़ हो तो मंत्र सिद्ध नहीं हो सकता। काम्य जप करने के अनेक मंत्र हैं। जप से पुण्य संग्रह तो होता है, पर भोग से उसका क्षय भी होता है। इसलिए प्राज्ञ पुरुष इसे अच्‍छा नहीं समझते। परंतु सभी साधक समान नहीं होते। कुछ ऐसे भी कनिष्ठ साधक होते ही हैं, जो शुद्ध मोक्ष के अतिरिक्त अन्य धर्माविरुद्ध कामनाएं भी पूरी करना चाहते हैं। क्षुद्र देवताओं और क्षुद्र साधनों के पीछे पड़कर अपनी भयंकर हानि कर लेने की अपेक्षा वे अपने इष्ट मंत्र का काम्य जप करके चित्त को शांत करें और परमार्थ प्रवण हों, यह अधिक अच्छा है। 
4. निषिद्ध जप
मनमाने ढंग से अविधिपूर्वक अनियम जप जपने को निषिद्ध जप कहते हैं। निषिद्ध कर्म की तरह यह बहुत बुरा है। मंत्र का शुद्ध न होना, अपवित्र मनुष्य से मंत्र लेना, देवता कोई और मंत्र कोई और ही, अनेक मंत्रों को एकसाथ अविधिपूर्वक जपना, मंत्र का अर्थ और विधि न जानना, श्रद्धा का न होना, देवताराधन के बिना ही जप करना, किसी प्रकार का भी संयम न रखना- ये सब निषिद्ध जप के लक्षण हैं। ऐसा निषिद्ध जप कोई न करे, उससे लाभ होने के बदले प्राय: हानि ही हुआ करती है। 
5. प्रायश्चित जप
अपने हाथ से अनजान से कोई दोष या प्रमाद हो जाए तो उस दुरित-नाश के लिए जो जप किया जाता है, वह प्रायश्चित जप है। प्रायश्चित कर्म के सदृश है और आवश्यक है। मनुष्य के मन की सहज गति अधोगति की ओर है और इससे उसके हाथों अनेक प्रमाद हो सकते हैं। यदि इन दोषों का परिमार्जन न हो तो अशुभ कर्मों का संचित निर्माण होकर मनुष्य को अनेक दु:ख भोगने पड़ते हैं और उर्वरित संचित प्रारब्ध बनकर भावी दु:खों की सृष्टि करता है। पापों के नाश के लिए शास्त्र में जो उपाय बताए गए हैं, उनको करना इस समय इतना कठिन हो गया है कि प्राय: असंभव ही कह सकते हैं। इसलिए ऐसे जो कोई हों, वे यदि संकल्पपूर्वक यह जप करें तो विमलात्मा बन सकते हैं।
मनुष्य से नित्य ही अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं। यह मानव स्वभाव है। इसलिए नित्य ही उन दोषों को नष्ट करना मनुष्य का कर्तव्य ही है। नित्य जप के साथ यह जप भी हुआ करे। अल्पदोष के लिए अल्प और अधिक दोष के लिए अधिक जप करना चाहिए। नित्य का नियम करके चलाना कठिन मालूम हो तो सप्ताह में एक ही दिन सही, यह काम करना चाहिए। प्रात:काल में पहले गो‍मूत्र प्राशन करें, तब गंगाजी में या जो तीर्थ प्राप्त हो उसमें स्नान करें। यह भी न हो तो 'गंगा गंगेति' मंत्र कहते हुए स्नान करें और भस्म-चंदनादि लगाकर देव, गुरु, द्विज आदि के दर्शन करें। अश्वत्थ, गौ आदि की परिक्रमा करें। केवल तुलसी दल-तीर्थ पान करके उपवास करें और मन को एकाग्र करके संकल्पपूर्वक अपने मंत्र का जप करें। इससे पवित्रता बढ़ेगी और मन आनंद से झूमने लगेगा। जब ऐसा हो, तब समझें कि अब सब पाप भस्म हो गए। दोष के हिसाब से जप संख्या निश्चित करें और वह संख्‍या पूरी करें।
6. अचल जप
यह जप करने के लिए आसन, गोमुखी आदि साहित्य और व्यावहारिक और मानसिक स्वास्थ्य होना चाहिए। इस जप से अपने अंदर जो गुप्त शक्तियां हैं, वे जागकर विकसित होती हैं और परोपकार में उनका उपयोग करते बनता है। इसमें इच्छाशक्ति के साथ-साथ पुण्य संग्रह बढ़ता जाता है। इस जप के लिए व्याघ्राम्बर अथवा मृगाजिन, माला और गोमुखी होनी चाहिए। स्नानादि करके आसन पर बैठे, देश-काल का स्मरण करके दिग्बंध करें और तब जप आरंभ करें।
अमुक मंत्र का अमुक संख्या जप होना चाहिए और नित्य इतना होना चाहिए, इस प्रकार का नियम इस विषय में रहता है, सो समझ लेना चाहिए और नित्य उतना जप एकाग्रतापूर्वक करना चाहिए। जप निश्चित संख्‍या से कभी कम न हो। जप करते हुए बीच में ही आसन पर से उठना या किसी से बात करना ठीक नहीं, उतने समय तक चित्त की और शरीर की स्थिरता और मौन साधे रहना चाहिए। इस प्रकार नित्य करके जप की पूर्ण संख्या पूरी करनी चाहिए। यह चर्या बीच में कहीं खंडित न हो इसके लिए स्वास्थ्य होना चाहिए इसलिए आहार-विहार संयमित हों। एक स्‍थान पर बैठ निश्चित समय में निश्चित जप संख्‍या एकाग्र होकर पूरी करके देवता को वश करना ही इस जप का मुख्य लक्षण है। इस काम में विघ्न तो होते ही हैं, पर धैर्य से उन्हें पार कर जाना चाहिए। इस जप से अपार आध्यात्मिक शक्ति संचित होती है। भस्म, जल अभिमंत्रित कर देने से वह उपकारी होता है, यह बात अनुभवसिद्ध है। 
7. चल जप
यह जप नाम स्मरण जैसा है। प्रसिद्ध वामन प‍ंडित के कथनानुसार 'आते-जाते, उठते-बैठते, करते-धरते, देते-लेते, मुख से अन्न खाते, सोते-जागते, रतिसुख भोगते, सदा सर्वदा लोकलाज छोड़कर भगच्चिंतन करने' की जो विधि है, वही इस जप की है। अंतर यही कि भगवन्नाम के स्थान में अपने मंत्र का जप करना है। यह जप कोई भी कर सकता है। इसमें कोई बंधन, नियम या प्रतिबंध नहीं है। अन्य जप करने वाले भी इसे कर सकते हैं। इससे वाचा शुद्ध होती है और वाक्-शक्ति प्राप्त होती है। पर इस जप को करने वाला कभी मिथ्या भाषण न करे; निंदा, कठोर भाषण, जली-कटी सुनाना, अधिक बोलना, इन दोषों से बराबर बचता रहे। इससे बड़ी शक्ति संचित होती है। इस जप से समय सार्थक होता है, मन प्रसन्न रहता है, संकट, कष्ट, दु:ख, आघात, उत्पात, अपघात आदि का मन पर कोई असर नहीं होता।
जप करने वाला सदा सुरक्षित रहता है। सुखपूर्वक संसार-यात्रा पूरी करके अनायास परमार्थ को प्राप्त होता है। उसकी उत्तम गति होती है, उसके सब कर्म यज्ञमय होते हैं और इस कारण वह कर्मबंध से छूट जाता है। मन निर्विषय हो जाता है। ईश-सान्निध्य बढ़ता है और साधक निर्भय होता है। उसका योग-क्षेम भगवान वहन करते हैं। वह मन से ईश्वर के समीप और तन से संसार में रहता है। इस जप के लिए यों तो माला की कोई आवश्यकता नहीं है, पर कुछ लोग छोटी-सी 'सुमरिनी' रखते हैं इसलिए कि कहीं विस्मरण होने का-सा मौका आ जाए तो वहां यह सु‍मरिनी विस्मरण न होने देगी। सुमरिनी छोटी होनी चाहिए, वस्त्र में छिपी रहनी चाहिए, किसी को दिखाई न दे। सुमिरन करते हुए होंठ भी न हिेलें। सब काम चुपचाप होना चाहिए, किसी को कुछ मालूम न हो। 
8. वा‍चिक जप
जिस जप का इतने जोर से उच्चारण होता है कि दूसरे भी सुन सकें, उसे वाचिक जप कहते हैं। बहुतों के विचार में यह जप निम्न कोटि का है और इससे कुछ लाभ नहीं है। परंतु विचार और अनुभव से यह कहा जा सकता है कि यह जप भी अच्‍छा है। विधि यज्ञ की अपेक्षा वाचिक जप दस गुना श्रेष्ठ है, यह स्वयं मनु महाराज ने ही कहा है। जपयोगी के लिए पहले यह जप सुगम होता है। आगे के जप क्रमसाध्य और अभ्याससाध्य हैं। इस जप से कुछ यौगिक लाभ होते हैं।
सूक्ष्म शरीर में जो षट्चक्र हैं उनमें कुछ वर्णबीज होते हैं। महत्वपूर्ण मंत्रों में उनका विनियोग रहता है। इस विषय को विद्वान और अनुभवी जपयोगियों से जानकर भावनापूर्वक जप करने से वर्णबीज शक्तियां जाग उठती हैं। इस जप से वाक्-सिद्धि तो होती ही है, उसके शब्दों का बड़ा महत्व होता है। वे शब्द कभी व्यर्थ नहीं होते। अन्य लोग उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। जितना जप हुआ रहता है, उसी हिसाब से यह अनुभव भी प्राप्त होता है। एक वाक्-शक्ति भी सिद्ध हो जाए तो उससे संसार के बड़े-बड़े काम हो सकते हैं। कारण, संसार के बहुत से काम वाणी से ही होते हैं। वाक्-शक्ति संसार की समूची शक्ति का तीसरा हिस्सा है। यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों के लिए उपयोगी है। 
9. उपांशु जप
वाचिक जप के बाद का यह जप है। इस जप में होंठ हिलते हैं और मुंह में ही उच्चारण होता है, स्वयं ही सुन सकते हैं, बाहर और किसी को सुनाई नहीं देता। विधियज्ञ की अपेक्षा मनु महाराज कहते हैं कि यह जप सौ गुना श्रेष्ठ है। इससे मन को मूर्च्छना होने लगती है, एकाग्रता आरंभ होती है, वृत्तियां अंतर्मुख होने लगती हैं और वाचिक जप के जो-जो लाभ होते हैं, वे सब इसमें होते हैं। इससे अपने अंग-प्रत्यंग में उष्णता बढ़ती हुई प्रतीत होती है। यही तप का तेज है। इस जप में दृष्टि अर्धोन्मीलित रहती है। एक नशा-सा आता है और मनोवृत्तियां कुंठित-सी होती हैं, यही मूर्च्छना है। इसके द्वारा साधक क्रमश: स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। वाणी के सहज गुण प्रकट होते हैं। मंत्र का प्रत्येक उच्चार मस्तक पर कुछ असर करता-सा मालूम होता है- भालप्रदेश और ललाट में वेदनाएं अनुभूत होती हैं। अभ्यास से पीछे स्थिरता आ जाती है। 
10. भ्रमर जप
भ्रमर के गुंजार की तरह गुनगुनाते हुए जो जप होता है, वह भ्रमर जप कहाता है। किसी को यह जप करते, देखते-सुनने से इसका अभ्यास जल्दी हो जाता है। इसमें होंठ नहीं हिलते, जीभ हिलाने का भी कोई विशेष कारण नहीं। आंखें झपी रखनी पड़ती हैं। भ्रूमध्य की ओर यह गुंजार होता हुआ अनुभूत होता है। यह जप बड़े ही महत्व का है। इसमें प्राण सूक्ष्म होता जाता है और स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है। प्राणगति धीर-धीमी होती है, पूरक जल्दी होता है और रेचक धीरे-धीरे होने लगता है। पूरक करने पर गुंजार व आरंभ होता है और अभ्यास से एक ही पूरक में अनेक बार मंत्रावृत्ति हो जाती है। 
इसमें मंत्रोच्चार नहीं करना पड़ता। वंशी के बजने के समान प्राणवायु की सहायता से ध्यानपूर्वक मंत्रावृत्ति करनी होती है। इस जप को करते हुए प्राणवायु से ह्रस्व-दीर्घ कंपन हुआ करते हैं और आधार चक्र से लेकर आज्ञा चक्र तक उनका कार्य अल्पाधिक रूप से क्रमश: होने लगता है। ये सब चक्र इससे जाग उठते हैं। शरीर पुलकित होता है। नाभि, हृदय, कंठ, तालु और भ्रूमध्य में उत्तरोत्तर अधिकाधिक कार्य होने लगता है। सबसे अधिक परिणाम भ्रूमध्यभाग में होता है। वहां के चक्र के भेदन में इससे बड़ी सहायता मिलती है। मस्तिष्क में भारीपन नहीं रहता। उसकी सब शक्तियां जाग उठती हैं। स्मरण शक्ति बढ़ती है। प्राक्तन स्मृति जागती है। मस्तक, भालप्रदेश और ललाट में उष्णता बहुत बढ़ती है। तेजस परमाणु अधिक तेजस्वी होते हैं और साधक को आंतरिक प्रकाश मिलता है। बुद्धि का बल बढ़ता है। मनोवृत्तियां मूर्च्छित हो जाती हैं। नागस्वर बजाने से सांप की जो हालत होती है, वही इस गुंजार से मनोवृत्तियों की होती है। उस नाद में मन स्वभाव से ही लीन हो जाता है और तब नादानुसंधान का जो बड़ा काम है, वह सुलभ हो जाता है। 
'योगतारावली' में भगवान श्री शंकराचार्य कहते हैं कि भगवान श्री शंकर ने मनोलय के सवा लाख उपाय बताए। उनमें नादानुसंधान को सबसे श्रेष्ठ बताया। उस अनाहत संगीत को श्रवण करने का प्रयत्न करने से पूर्व भ्रमर-जप सध जाए तो आगे का मार्ग बहुत ही सुगम हो जाता है। चित्त को तुरंत एकाग्र करने का इससे श्रेष्ठ उपाय और कोई नहीं है। इस जप से साधक को आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है और उसके द्वारा वह स्वप‍रहित साधन कर सकता है। यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों में काम देता है। शांत समय में यह जप करना चाहिए। इस जप से यौगिक तन्द्रा बढ़ती जाती है और फिर उससे योगनिद्रा आती है। इस जप के सिद्ध होने से आंतरिक तेज बहुत बढ़ जाता है और दिव्य दर्शन होने लगते हैं, दिव्य जगत प्रत्यक्ष होने लगता है, इष्टदर्शन होते हैं, दृष्टांत होते हैं और तप का तेज प्राप्त होता है। कवि कुलतिलक कालिदास ने जो कहा है।
शमप्रधानेषु तपोधनेषु
गूढं हि दहात्मकमस्ति तेज:।
बहुत ही ठीक है- 'शमप्रधान त‍पस्वियों में (शत्रुओं को) जलाने वाला तेज छिपा हुआ रहता है।' 
11. मानस जप 
यह तो जप का प्राण ही है। इससे साधक का मन आनंदमय हो जाता है। इसमें मंत्र का उच्चार नहीं करना होता है। मन से ही मंत्रावृत्ति करनी होती है। नेत्र बंद रहते हैं। मंत्रार्थ का चिंतन ही इसमें मुख्‍य है। श्री मनु महाराज ने कहा है कि विधियज्ञ की अपेक्षा यह जप हजार गुना श्रेष्ठ है। भिन्न मंत्रों के भिन्न-भिन्न अक्षरार्थ और कूटार्थ होते हैं। उन्हें जानने से इष्टदेव के स्वरूप का बोध होता है। पहले इष्टदेव का सगुण ध्यान करके यह जप किया जाता है, पीछे निर्गुण स्वरूप का ज्ञान होता है। और तब उसका ध्यान करके जप किया जाता है। नादानुसंधान के साथ-साथ यह जप करने से बहुत अधिक उपायकारी होता है। केवल नादानुसंधान या केवल जप की अपेक्षा दोनों का योग अधिक अच्‍छा है। श्रीमदाद्य शंकराचार्य नादानुसंधान की महिमा कथन करते हुए कहते हैं- 'एकाग्र मन से स्वरूप चिंतन करते हुए दाहिने कान से अनाहत ध्वनि सुनाई देती है। भेरी, मृदंग, शंख आदि आहत नाद में ही जब मन रमता है तब अनाहत मधुर नाद की महिमा क्या बखानी जाए? चित्त जैसे-जैसे विषयों से उपराम होगा, वैसे-वैसे यह अनाहत नाद अधिकाधिक सुनाई देगा। नादाभ्यंतर ज्योति में जहां मन लीन हुआ, तहां फिर इस संसार में नहीं आना होता है अर्थात मोक्ष होता है।'
(प्रबोधसुधाकर 144-148) 'योगतारावली' में श्रीमदाद्य शंकराचार्य ने इसका वर्णन किया है। श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने 'ज्ञानेश्वरी' में इस साधन की बात कही है। अनेक संत-महात्मा इस साधन के द्वारा परम पद को प्राप्त हो गए। यह ऐसा साधन है कि अल्पायास से निजानंद प्राप्त होता है। नाद में बड़ी विचित्र शक्ति है। बाहर का सुमधुर संगीत सुनने से जो आनंद होता है, उसका अनुभव तो सभी को है, पर भीतर के इस संगीत का माधुर्य और आनंद ऐसा है कि तुरंत मनोलय होकर प्राणजय और वासनाक्षय होता है। 
इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुत:।
मारुतस्य लयो नाथ: स लयो नादमाश्रित:।।
(ह.प्र.) 
'श्रोत्रादि इन्द्रियों का स्वामी मन है, मन का स्वामी प्राणवायु है। प्राणवायु का स्वामी मनोलय है और मनोलय नाद के आसरे होता है।' 
सतत नादानुसंधान करने से मनोलय बन पड़ता है। आसन पर बैठकर, श्वासोच्छवास की क्रिया सावकाश करते हुए, अपने कान बंद करके अंतरदृष्टि करने से नाद सुनाई देता है। अभ्यास से बड़े नाद सुनाई देते हैं और उनमें मन रमता है। मंत्रार्थ का चिंतन, नाद का श्रवण और प्रकाश का अनुसंधान- ये तीन बातें साधनी पड़ती हैं। इस साधन के सिद्ध होने पर मन स्वरूप में लीन होता है, तब प्राण, नाद और प्रकाश भी लीन हो जाते हैं और अपार आनंद प्राप्त होता है। 
12. अखंड जप 
यह जप खासकर त्यागी पुरुषों के लिए है। शरीर यात्रा के लिए आवश्यक आहारादि का समय छोड़कर बाकी समय जपमय करना पड़ता है। कितना भी हो तो क्या, सतत जप से मन उचट ही जाता है, इसलिए इसमें यह विधि है कि जप से जब चित्त उचटे, तब थोड़ा समय ध्यान में लगाएं, फिर तत्वचिंतन करें और फिर जप करें। कहा है- 
जपाच्छ्रान्त: पुनर्ध्यायेद् ध्यानाच्छ्रान्त: पुनर्जपेत्।
जपध्यानपरिश्रान्त: आत्मानं च विचारयेत्।।
'जप करते-करते जब थक जाएं, तब ध्यान करें। ध्यान करते-करते थकें, तब फिर जप करें और जप तथा ध्यान से थकें, तब आत्मतत्व का विचार करें।'
'तज्जपस्तदर्थभावनम्' इस योगसूत्र के अनुसार मंत्रार्थ का विचार करके उस भावना के साथ मंत्रावृत्ति करें। तब जप बंद करके स्वरूपवाचक 'अजो नित्य:' इत्यादि शब्दों का विचार करते हुए स्वरूप ध्यान करें। तब ध्यान बंद करके तत्वचिंतन करें। आत्मविचार में ज्ञानविषयक ग्रंथावलोकन भी आ ही जाता है। उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता, शांकरभाष्य, श्रीमदाचार्य के स्वतंत्र ग्रंथ, अद्वैतसिद्धि, स्वाराज्यसिद्धि, नैष्कर्म्यसिद्धि, खंडन-खंडखाद्य, अष्टावक्र गीता, अवधूत गीता, योवासिष्ट आदि ग्रंथों का अवलोकन अवश्य करें। जो संस्कृत नहीं जानते, वे भाषा में ही इनके अनुवाद पढ़ें अथवा अपनी भाषा में संत-महात्माओं के जो तात्विक ग्रंथ हों, उन्हें देखें। आत्मानंद के साधनस्वरूप जो दो संपत्तियां हैं, उनके विषय में कहा गया है।
अत्यन्ताभावसम्पत्तौ ज्ञातुर्ज्ञेयस्य वस्तुन:।
युक्तया शास्त्रैर्यतन्ते ये ते तन्त्राभ्यासिन: स्थिता:।।
(यो.वा.) 
'ज्ञाता और ज्ञेय दोनों मिथ्‍या हैं। ऐसी स्थिर बुद्धि का स्थिर होना अभाव संपत्ति कहाता है और ज्ञाता और ज्ञेय रूप से भी उनकी प्रतीति का न होना अत्यंत अभाव संपत्ति कहाता है। इस प्रकार की संपत्ति के लिए जो लोग युक्ति और शास्त्र के द्वारा यत्नवान होते हैं, वे ही मनोनाश आदि के सच्चे अभ्यासी होते हैं।'
ये अभ्यास तीन प्रकार के होते हैं- ब्रह्माभ्यास, बोधाभ्यास और ज्ञानाभ्यास।
दृश्यासम्भवबोधेन रागद्वेषादि तानवे।
रतिर्नवोदिता यासौ ब्रह्माभ्यास: स उच्यते।।
(यो.वा.) 
दृश्य पदार्थों के असंभव होने के बोध से रागद्वेष क्षीण होते हैं, तब जो नवीन रति होती है, उसे ब्रह्माभ्यास कहते हैं। 
सर्गादावेव नोत्पन्नं दृश्यं नास्त्येव तत्सदा।
इदं जगदहं चेति बोधाभ्यासं विदु: परम्।।
(यो.वा.)
सृष्टि के आदि में यह जगत उत्पन्न ही नहीं हुआ। इसलिए वह यह जगत और अहं (मैं) हैं ही नहीं, ऐसा जो बोध होता है, उसे ज्ञाता लोग बोधाभ्यास कहते हैं। 
तच्चिन्तनं तत्कथनमन्योन्यं तत्वबोधनम्।
एतदेकपरत्वं च ज्ञानाभ्यासं विदुर्बुधा:।।
(यो.वा.) 
उसी तत्व का चिंतन करना, उसी का कथन करना, परस्पर उसी का बोध करना और उसी के परायण होकर रहना, इसको बुधजन ज्ञानाभ्यास के नाम से जानते हैं।
अभ्यास अर्थात आत्मचिंतन का यह सामान्य स्वरूप है। ये तीनों उपाय अर्थात जप, ध्यान और तत्वचिंतन सतत करना ही अखंड जप है। सतत 12 वर्षपर्यंत ऐसा जप हो, तब उसे तप कहते हैं। इससे महासिद्धि प्राप्त होती है। गोस्वामी तुलसीदास, समर्थ गुरु रामदास आदि अनेक संतों ने ऐसा तप किया था। 
13. अजपा जप 
यह सहज जप है और सावधान रहने वाले से ही बनता है। किसी भी तरह से यह जप किया जा सकता है। अनुभवी महात्माओं में यह जप देखने में आता है। इसके लिए माला का कुछ काम नहीं। श्वाछोच्छवास की क्रिया बराबर हो ही रही है, उसी के साथ मंत्रावृत्ति की जा सकती है। अभ्यास से मंत्रार्थ भावना दृढ़ हुई रहती है, सो उसका स्मरण होता है। इसी रीति से सहस्रों संख्‍या में जप होता रहता है। इस विषय में एक महात्मा कहते हैं। 
राम हमारा जप करे, हम बैठे आराम। 
14. प्रदक्षिणा जप
इस जप में हाथ में रुद्राक्ष या तुलसी की माला लेकर वट, औदुम्बर या पीपल-वृक्ष की अथवा ज्योतिर्लिंगादि के मंदिर की या किसी सिद्धपुरुष की, मन में ब्रह्म भावना करके, मंत्र कहते हुए परिक्रमा करनी होती है। इससे भी सिद्धि प्राप्त होती है- मनोरथ पूर्ण होता है। 
यहां तक मंत्र जप के कुछ प्रकार, विस्तार भय से संक्षेप में ही निवेदन किए। अब यह देखें कि जपयोग कैसा है- योग से इसका कैसा साम्य है। योग के यम-नियमादि 8 अंग होते हैं। ये आठों अंग जप में आ जाते हैं। 
(1) यम
 यह बाह्येन्द्रियों का निग्रह अर्थात 'दम' है। आसन पर बैठना, दृष्टि को स्थिर करना यह सब यम ही है। 
(2) नियम
 यह अंतरिन्द्रियों का निग्रह अर्थात् 'शम्' है। मन को एकाग्र करना इत्यादि से इसका साधन इसमें होता है। 
(3) स्थिरता
 से सुखपूर्वक विशिष्ट रीति से बैठने को आसन कहते हैं। जप में पद्मासन आदि लगाना ही पड़ता है।
(4) प्राणायाम
विशिष्ट रीति से श्वासोच्छवास की क्रिया करना प्राणायाम है। जप में यह करना ही पड़ता है। 
(5) प्रत्याहार
 शब्दादि विषयों की ओर मन जाता है, वहां से उसे लौटकर अंतरमुख करना प्रत्याहार है, सो इसमें करना पड़ता है। 
(6) धारणा
 एक ही स्थान में दृष्टि को स्थिर करना जप में आवश्यक है। 
(7) ध्यान
 ध्येय पर चित्त की एकाग्रता जप में होनी ही चाहिए। 
(8) समाधि
 ध्येय के साथ तदाकारता जप में आवश्यक ही है। तात्पर्य, अष्टांग योग जप में आ जाता है, इसीलिए इसे जपयोग कहते हैं। कर्म, उपासना, ज्ञान और योग के मुख्य-मुख्य अंग जपयोग में हैं इसलिए यह मुख्य साधन है। यह योग सदा सर्वदा सर्वत्र सबके लिए है। इस समय तो इससे बढ़कर कोई साधन ही नहीं। 


https://youtu.be/XfpY7YI9CHc

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