Monday 23 August 2021

।।लक्ष्मी नृसिंह स्तोत्रम्।।

।।लक्ष्मी नृसिंह स्तोत्रम्।।
श्रीमत्पयोनिधिनिकेतन चक्रपाणे भोगीन्द्रभोगमणिरंजितपुण्यमूर्ते।
योगीश शाश्वतशरण्यभवाब्धिपोतलक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम॥1॥
ब्रम्हेन्द्र-रुद्र-मरुदर्क-किरीट-कोटि-संघट्टितांघ्रि-कमलामलकान्तिकान्त।
लक्ष्मीलसत्कुचसरोरुहराजहंस लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥2॥
संसारघोरगहने चरतो मुरारे मारोग्र-भीकर-मृगप्रवरार्दितस्य।
आर्तस्य मत्सर-निदाघ-निपीडितस्यलक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥3॥
संसारकूप-मतिघोरमगाधमूलं सम्प्राप्य दुःखशत-सर्पसमाकुलस्य।
दीनस्य देव कृपणापदमागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥4॥
संसार-सागर विशाल-करालकाल-नक्रग्रहग्रसन-निग्रह-विग्रहस्य।
व्यग्रस्य रागदसनोर्मिनिपीडितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहिकरावलम्बम्॥5॥
संसारवृक्ष-भवबीजमनन्तकर्म-शाखाशतं करणपत्रमनंगपुष्पम्।
आरुह्य दुःखफलित पततो दयालो लक्ष्मीनृसिंहम देहिकरावलम्बम्॥6॥
संसारसर्पघनवक्त्र-भयोग्रतीव्र-दंष्ट्राकरालविषदग्ध-विनष्टमूर्ते।
नागारिवाहन-सुधाब्धिनिवास-शौरे लक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥7॥
संसारदावदहनातुर-भीकरोरु-ज्वालावलीभिरतिदग्धतनुरुहस्य।
त्वत्पादपद्म-सरसीशरणागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥8॥
संसारजालपतितस्य जगन्निवास सर्वेन्द्रियार्थ-बडिशार्थझषोपमस्य।
प्रत्खण्डित-प्रचुरतालुक-मस्तकस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहिकरावलम्बम्॥9॥
सारभी-करकरीन्द्रकलाभिघात-निष्पिष्टमर्मवपुषः सकलार्तिनाश।
प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्यलक्ष्मीनृसिंहमम देहि करावलम्बम्॥10॥
अन्धस्य मे हृतविवेकमहाधनस्य चौरेः प्रभो बलि भिरिन्द्रियनामधेयै।
मोहान्धकूपकुहरे विनिपातितस्य लक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥11॥
लक्ष्मीपते कमलनाथ सुरेश विष्णो वैकुण्ठ कृष्ण मधुसूदन पुष्कराक्ष।
ब्रह्मण्य केशव जनार्दन वासुदेव देवेश देहि कृपणस्य करावलम्बम्॥12॥
यन्माययोर्जितवपुःप्रचुरप्रवाहमग्नाथमत्र निबहोरुकरावलम्बम्।
लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुवतेत स्तोत्र कृतं सुखकरं भुवि शंकरेण॥13॥
॥ इति श्रीमच्छंकराचार्याकृतं लक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
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||अथ श्री नृसिंहकवचस्तोत्रम् ||

||अथ श्री नृसिंहकवचस्तोत्रम् ||
नृसिंहकवचं वक्ष्ये प्रह्लादेनोदितं पुरा |
सर्वरक्षकरं पुण्यं सर्वोपद्रवनाशनम् ||१||
सर्व सम्पत्करं चैव स्वर्गमोक्षप्रदायकम् |
ध्यात्वा नृसिंहं देवेशं हेमसिंहासनस्थितम् ||२||
विवृतास्यं त्रिनयनं शरदिन्दुसमप्रभम् |
लक्ष्म्यालिङ्गितवामाङ्गम् विभूतिभिरुपाश्रितम् ||३||
चतुर्भुजं कोमलाङ्गं स्वर्णकुण्डलशोभितम् |
सरोजशोभितोरस्कं रत्नकेयूरमुद्रितम् ||४||
तप्त काञ्चनसंकाशं पीतनिर्मलवाससम् |
इन्द्रादिसुरमौलिष्ठः स्फुरन्माणिक्यदीप्तिभिः ||५||
विरजितपदद्वन्द्वम् च शङ्खचक्रादिहेतिभिः |
गरुत्मत्मा च विनयात् स्तूयमानम् मुदान्वितम् ||६||
स्व हृत्कमलसंवासं कृत्वा तु कवचं पठेत् |
नृसिंहो मे शिरः पातु लोकरक्षार्थसम्भवः ||७||
सर्वगेऽपि स्तम्भवासः फलं मे रक्षतु ध्वनिम् |
नृसिंहो मे दृशौ पातु सोमसूर्याग्निलोचनः ||८||
स्मृतं मे पातु नृहरिः मुनिवार्यस्तुतिप्रियः |
नासं मे सिंहनाशस्तु मुखं लक्ष्मीमुखप्रियः ||९||
सर्व विद्याधिपः पातु नृसिंहो रसनं मम |
वक्त्रं पात्विन्दुवदनं सदा प्रह्लादवन्दितः ||१०||
नृसिंहः पातु मे कण्ठं स्कन्धौ भूभृदनन्तकृत् |
दिव्यास्त्रशोभितभुजः नृसिंहः पातु मे भुजौ ||११||
करौ मे देववरदो नृसिंहः पातु सर्वतः |
हृदयं योगि साध्यश्च निवासं पातु मे हरिः ||१२||
मध्यं पातु हिरण्याक्ष वक्षःकुक्षिविदारणः |
नाभिं मे पातु नृहरिः स्वनाभिब्रह्मसंस्तुतः ||१३||
ब्रह्माण्ड कोटयः कट्यां यस्यासौ पातु मे कटिम् |
गुह्यं मे पातु गुह्यानां मन्त्राणां गुह्यरूपदृक् ||१४||
ऊरू मनोभवः पातु जानुनी नररूपदृक् |
जङ्घे पातु धराभर हर्ता योऽसौ नृकेशरी ||१५||
सुर राज्यप्रदः पातु पादौ मे नृहरीश्वरः |
सहस्रशीर्षापुरुषः पातु मे सर्वशस्तनुम् ||१६||
महोग्रः पूर्वतः पातु महावीराग्रजोऽग्नितः |
महाविष्णुर्दक्षिणे तु महाज्वलस्तु नैरृतः ||१७||
पश्चिमे पातु सर्वेशो दिशि मे सर्वतोमुखः |
नृसिंहः पातु वायव्यां सौम्यां भूषणविग्रहः ||१८||
ईशान्यां पातु भद्रो मे सर्वमङ्गलदायकः |
संसारभयतः पातु मृत्योर्मृत्युर्नृकेशई ||१९||
इदं नृसिंहकवचं प्रह्लादमुखमण्डितम् |
भक्तिमान् यः पठेन्नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते ||२०||
पुत्रवान् धनवान् लोके दीर्घायुरुपजायते |
कामयते यं यं कामं तं तं प्राप्नोत्यसंशयम् ||२१||
सर्वत्र जयमाप्नोति सर्वत्र विजयी भवेत् |
भूम्यन्तरीक्षदिव्यानां ग्रहाणां विनिवारणम् ||२२||
वृश्चिकोरगसम्भूत विषापहरणं परम् |
ब्रह्मराक्षसयक्षाणां दूरोत्सारणकारणम् ||२३||
भुजेवा तलपात्रे वा कवचं लिखितं शुभम् |
करमूले धृतं येन सिध्येयुः कर्मसिद्धयः ||२४||
देवासुर मनुष्येषु स्वं स्वमेव जयं लभेत् |
एकसन्ध्यं त्रिसन्ध्यं वा यः पठेन्नियतो नरः ||२५||
सर्व मङ्गलमाङ्गल्यं भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति |
द्वात्रिंशतिसहस्राणि पठेत् शुद्धात्मनां नृणाम् ||२६||
कवचस्यास्य मन्त्रस्य मन्त्रसिद्धिः प्रजायते |
अनेन मन्त्रराजेन कृत्वा भस्माभिर्मन्त्रानाम् ||२७||
तिलकं विन्यसेद्यस्तु तस्य ग्रहभयं हरेत् |
त्रिवारं जपमानस्तु दत्तं वार्याभिमन्त्र्य च ||२८||
प्रसयेद् यो नरो मन्त्रं नृसिंहध्यानमाचरेत् |
तस्य रोगः प्रणश्यन्ति ये च स्युः कुक्षिसम्भवाः ||२९||
गर्जन्तं गार्जयन्तं निजभुजपतलं स्फोटयन्तं हतन्तं
रूप्यन्तं तापयन्तं दिवि भुवि दितिजं क्षेपयन्तं क्षिपन्तम् |
क्रन्दन्तं रोषयन्तं दिशि दिशि सततं संहरन्तं भरन्तं
वीक्षन्तं पूर्णयन्तं करनिकरशतैर्दिव्यसिंहं नमामि ||३०||
||इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे प्रह्लादोक्तं श्रीनृसिंहकवचं सम्पूर्णम् ||

।।लक्ष्मी नृसिंह स्तोत्रम्।।

।।लक्ष्मी नृसिंह स्तोत्रम्।।
श्रीमत्पयोनिधिनिकेतन चक्रपाणे भोगीन्द्रभोगमणिरंजितपुण्यमूर्ते।
योगीश शाश्वतशरण्यभवाब्धिपोतलक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम॥1॥
ब्रम्हेन्द्र-रुद्र-मरुदर्क-किरीट-कोटि-संघट्टितांघ्रि-कमलामलकान्तिकान्त।
लक्ष्मीलसत्कुचसरोरुहराजहंस लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥2॥
संसारघोरगहने चरतो मुरारे मारोग्र-भीकर-मृगप्रवरार्दितस्य।
आर्तस्य मत्सर-निदाघ-निपीडितस्यलक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥3॥
संसारकूप-मतिघोरमगाधमूलं सम्प्राप्य दुःखशत-सर्पसमाकुलस्य।
दीनस्य देव कृपणापदमागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥4॥
संसार-सागर विशाल-करालकाल-नक्रग्रहग्रसन-निग्रह-विग्रहस्य।
व्यग्रस्य रागदसनोर्मिनिपीडितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहिकरावलम्बम्॥5॥
संसारवृक्ष-भवबीजमनन्तकर्म-शाखाशतं करणपत्रमनंगपुष्पम्।
आरुह्य दुःखफलित पततो दयालो लक्ष्मीनृसिंहम देहिकरावलम्बम्॥6॥
संसारसर्पघनवक्त्र-भयोग्रतीव्र-दंष्ट्राकरालविषदग्ध-विनष्टमूर्ते।
नागारिवाहन-सुधाब्धिनिवास-शौरे लक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥7॥
संसारदावदहनातुर-भीकरोरु-ज्वालावलीभिरतिदग्धतनुरुहस्य।
त्वत्पादपद्म-सरसीशरणागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥8॥
संसारजालपतितस्य जगन्निवास सर्वेन्द्रियार्थ-बडिशार्थझषोपमस्य।
प्रत्खण्डित-प्रचुरतालुक-मस्तकस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहिकरावलम्बम्॥9॥
सारभी-करकरीन्द्रकलाभिघात-निष्पिष्टमर्मवपुषः सकलार्तिनाश।
प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्यलक्ष्मीनृसिंहमम देहि करावलम्बम्॥10॥
अन्धस्य मे हृतविवेकमहाधनस्य चौरेः प्रभो बलि भिरिन्द्रियनामधेयै।
मोहान्धकूपकुहरे विनिपातितस्य लक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥11॥
लक्ष्मीपते कमलनाथ सुरेश विष्णो वैकुण्ठ कृष्ण मधुसूदन पुष्कराक्ष।
ब्रह्मण्य केशव जनार्दन वासुदेव देवेश देहि कृपणस्य करावलम्बम्॥12॥
यन्माययोर्जितवपुःप्रचुरप्रवाहमग्नाथमत्र निबहोरुकरावलम्बम्।
लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुवतेत स्तोत्र कृतं सुखकरं भुवि शंकरेण॥13॥
॥ इति श्रीमच्छंकराचार्याकृतं लक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

।।श्री लक्ष्मी नृसिंह सर्वसिद्धिकर ऋणमोचन स्तोत्र।।

।।श्री लक्ष्मी नृसिंह सर्वसिद्धिकर ऋणमोचन स्तोत्र।।
देवकार्य सिध्यर्थं सभस्तंभं समुद् भवम।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।1।।
लक्ष्म्यालिन्गितं वामांगं, भक्ताम्ना वरदायकं।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।2।।
अन्त्रांलादरं शंखं, गदाचक्रयुध धरम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।3।।
स्मरणात् सर्व पापघ्नं वरदं मनोवाञ्छितं।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।4।।
सिहंनादेनाहतं, दारिद्र्यं बंद मोचनं।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।5।।
प्रल्हाद वरदं श्रीशं, धनः कोषः परिपुर्तये।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।6।।
क्रूरग्रह पीडा नाशं, कुरुते मंगलं शुभम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।7।।
वेदवेदांगं यद्न्येशं, रुद्र ब्रम्हादि वंदितम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।8।।
व्याधी दुखं परिहारं, समूल शत्रु निखं दनम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।9।।
विद्या विजय दायकं, पुत्र पोत्रादि वर्धनम्।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।10।।
भुक्ति मुक्ति प्रदायकं, सर्व सिद्धिकर नृणां।
श्री नृसिंह महावीरं नमामि ऋणमुक्तये ।।11।।
उर्ग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तम् सर्वतोमुखं।
नृसिंह भीषणं भद्रं मृत्य मृत्युं नमाम्यहम।।
य: पठेत् इंद् नित्यं संकट मुक्तये।
अरुणि विजयी नित्यं, धनं शीघ्रं माप्नुयात्।।
।।श्री शंकराचार्य विरचित सर्वसिद्धिकर ऋणमोचन स्तोत्र संपूर्णं।।

ये आठ सिद्ध मंत्र क्रमबद्ध दिये है l

ये आठ  सिद्ध मंत्र क्रमबद्ध दिये है l जिन लोगो का कार्य नही चलता नित्य परेशानी का सामना करना पडता हो व्यापार मे रूकावट आ गई हो शत्रुओं से सदा आशंका बनी रहती हो क्या  पता कब कौन शत्रु हमारा बूरा कर दे। इन तमाम परेशानीओं  से मुक्ति दिलाने मे ये मंत्र परम लाभकारी है।
जो व्यक्ति इन मंत्रों का २१-२१ बार जाप नियमित श्रद्धा पूर्वक करेगा । उसकी समस्त परेशानिया कुछ दिनों मे दुर हो जायेगी। मंत्र का जाप नहा धोकर सुबह एकांत कक्ष मे करना है।
मन्त्र:---.
 १:- ॐ पर मंत्र पर यंत्र बन्धय बन्धय मां रक्ष रक्ष हूं हूं हूं स्वाहा ।
                          
२:- ॐ ठं ठः परकृतान बन्धय बन्धय छेदय छेदय स्वाहा ।
                                        
३:-ॐ क्रौं ह्रौं वैरिकृत विकृतं नाशय नाशय उलटवेधं कुरू कुरू स्वाहा ।

४:- ॐ परकृतभिचारं घातक घातक ठः ठः स्वाहा हूं।

५:- ॐ नमो ह्रों पर विधा छिन्दि छिन्दि स्वाहा ।
                 
६:-ॐ शत्रु कृतान मंत्र यंत्र तंत्रान नाशय नाशय उद् बन्धन उद् बन्धन स्वाहा।

७:- ॐ नमः परमात्मने सर्वात्मने सर्वतो मां रक्ष रक्ष स्वाहा।

८:- ॐ ॐ ॐहुं हुं हुं अरिणा यत्कृतं कर्म तत्तस्यैव भवतु इति रूदाज्ञांपयति स्वाहा फट् ।

अपराजिता' श्री दुर्गादेवीका मारक रूप है ।

अपराजिता' श्री दुर्गादेवीका मारक रूप है । पूजन करनेसे देवीका यह रूप पृथ्वीतत्त्वके आधारसे भूगर्भसे प्रकट होकर, पृथ्वीके जीवोंके लिए कार्य करता है
दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन " दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे से पूर्व हर वर्ष शारदीय नवरात्र के समय मातृरूपिणी देवी नवधान्य सहित पृथ्वी पर अवतरित होती हैं-
शारदीय नवरात्र को ब्रह्मेत्सवम् के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन नौ दिनों के दौरान सात पर्वतों के राजा पृथक-पृथक बारह वाहनों की सवारी करते हैं तथा हर दिन एक नया अवतार लेते हैं।
अपराजितादेवीका पूजन
पूजास्थलपर अष्टदलकी आकृति बनाते हैं ।
इस अष्टदलका मध्यबिंदु `भूगर्भबिंदु' अर्थात देवीके `अपराजिता' रूपकी उत्पत्तिबिंदु का प्रतीक है, तथा अष्टदलके आठबिंदु, अष्टपाल देवताओंका प्रतीक है ।
इस अष्टदलके मध्यबिंदुपर `अपराजिता' देवीकी मूर्तिकी स्थापना कर उसका पूजन करते हैं ।
'अपराजिता' श्री दुर्गादेवीका मारक रूप है । पूजन करनेसे देवीका यह रूप पृथ्वीतत्त्वके आधारसे भूगर्भसे प्रकट होकर, पृथ्वीके जीवोंके लिए कार्य करता है । अष्टदलपर आरूढ हुआ यह त्रिशूलधारी रूप शिवके संयोगसे, दिक्पाल एवं ग्रामदेवताकी सहायतासे आसुरी शक्तियोंका नाश करता है ।
पूजनके उपरांत इस मंत्रका उच्चारण कर शत्रुनाश एवं सबके कल्याणके लिए प्रार्थना करते हैं ।
हारेण तु विचित्रेण भास्वत्कनकमेखला ।
अपराजिता भद्ररता करोतु विजयं मम ।।
इसका अर्थ है, गलेमें विचित्र हार एवं कमरपर जगमगाती स्वर्ण करधनी अर्थात मेखला धारण करनेवाली, भक्तोंके कल्याणके लिए सदैव तत्पर रहनेवाली, हे अपराजितादेवी ! मुझे विजयी कीजिए । कुछ स्थानोंपर अपराजितादेवीका पूजन सीमोल्लंघनके लिए जानेसे पूर्व भी करते हैं । शमीपत्र तेजका उत्तम संवर्धक है । इसलिए शमी वृक्षके निकट अपराजितादेवीका पूजन करनेसे शमीपत्रमें पूजनद्वारा प्रकट हुई शक्ति संजोई रहती है । शक्तितत्त्वसे शमीपत्रको घरमें रखनेसे इन तरंगोंका लाभ वर्षभर प्राप्त करना जीवोंके लिए संभव होता है । कुछ स्थानोंपर नवरात्रीकालमें रामलिलाका आयोजन किया जाता है । जिसमें प्रभु रामजीके जीवनपर आधारीत लोकनाट्य प्रस्तुत किया जाता है । दशहरेकी दिन तथा लोकनाट्यके अंतमें रावण एवं कंुभकर्णकी पटाखोंसे बनी बडी बडी प्रतिमाओंका दहन किया जाता है ।
दशहरेके दिन एकदूसरेको अश्मंतकके पत्ते सोनेके रूपमें क्यो देते है तथा शस्त्रपूजन के परिणाम
अपराजिता' शक्तितत्त्वकी उत्पत्ति पृथ्वीके भूगर्भबिंदु से होती है ।
अपराजिता देवीसे प्रार्थना कर देवीका आवाहन करनेपर भक्तकी प्रार्थनानुसार अष्टदलके मध्यमें स्थित भूगर्भबिंदुमें देवीतत्त्व कार्यरत होता है ।
उस समय उनके स्वागतके लिए अष्टपाल देवताओंका भी उस स्थानपर आगमन होता है । अपराजिताकी उत्पत्तिसे मारक तरंगें प्रक्षेपित होती हैं ।
अष्टपालों द्वारा अष्टदलकी आठबिंदुओंसे लालिमायुक्त प्रकाश-तरंगोंके माध्यमसे ये मारक तरंगें अष्टदिशाओंमें प्रक्षेपित होती हैं ।
सर्व आठों बिंदुओंसे शक्तिकी मारक तरंगोंका प्रक्षेपण होता है । ये तरंगें विशिष्ट कोनोंमें एकत्रित होकर, रज-तमात्मक शक्तिका नाश करती हैं । पृथ्वीपर सर्व जीव निर्विघ्न रूपसे जीवन जी सकें, इस हेतु वायुमंडलकी शुद्धि भी करती हैं । पूजनके उपरांत शमी अथवा अश्मंतक वृक्षोंके मूलके समीप की कुछ मिट्टी एवं उन वृक्षोंके पत्ते घर लाते हैं ।
दशहरेके दिन एक दूसरे को अश्मंतक के पत्ते सोनेके रूपमें देनेका कारण
विजयादशमीके दिन अश्मंतकके पत्ते सोनेके रूपमें देवताको अर्पित करते हैं । आपसी प्रेमभाव निर्माण करनेके लिए अश्मंतकके पत्ते शुभचिंतकोंको सोनेके रूपमें देकर उनके कल्याणकी प्रार्थना करते हैं । तदुपरांत ज्येष्ठोंको नमस्कार कर उनके आशीर्वाद प्राप्त करते हैं । अश्मंतकके पत्तोंमें ईश्वरीय तत्त्व आकृष्ट करनेकी क्षमता अधिक होती है । इन पत्तोंमें १० प्रतिशत रामतत्त्व एवं शिवतत्त्व भी विद्यमान होता है । ये पत्ते देनेसे पत्तोंद्वारा व्यक्तिको शिवकी शक्ति भी प्राप्त होती है । ये पत्ते व्यक्तिमें तेजतत्त्वकी सहायतासे क्षात्रवृत्तिका भी संवर्धन करते हैं।

शिव-सिद्ध कवच-स्तोत्र

शिव-कवच-स्तोत्र
जो इस ‘शिव-कवच’ को धारण करता है, वह देवताओं के भी द्वारा पूजित होता है । वह महान् पापों और क्षुद्र पापों के समूहों से छुटकारा पा जाता है तथा देहान्त होने पर ‘शिव-कवच’ के प्रभाव से मोक्ष को प्राप्त करता है ।

विनियोगः- 
ॐ अस्य श्रीशिव-कवच-स्तोत्र-मंत्रस्य श्री ब्रह्मा ऋषिः अनुष्टप् छन्दः। श्रीसदा-शिव-रुद्रो देवता। ह्रीं शक्तिः।
 रं कीलकम्। श्रीं ह्री क्लीं बीजम्। श्रीसदा-शिव-प्रीत्यर्थे शिव-कवच-स्तोत्र-पाठे विनियोगः।

ऋष्यादि-न्यासः- 
श्री ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टप् छन्दभ्यो नमः मुखे । श्रीसदा-शिव-रुद्रो देवतायै नमः हृदि । ह्रीं शक्तये नमः नाभौ । रं कीलकाय नमः पादयो । श्रीं ह्री क्लीं बीजाय नमः गुह्ये । श्रीसदा-शिव-प्रीत्यर्थे शिव-कवच-स्तोत्र-पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।

कर-न्यासः – 
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ ह्लां सर्व-शक्ति-धाम्ने ईशानात्मने अंगुष्ठाभ्यां नमः । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ नं रिं नित्य-तृप्ति-धाम्ने तत्पुरुषात्मने तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ मं रुं अनादि-शक्‍ति-धाम्ने अघोरात्मने मध्यामाभ्यां नमः ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ शिं रैं स्वतंत्र-शक्ति-धाम्ने वाम-देवात्मने अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ वां रौं अलुप्त-शक्ति-धाम्ने सद्यो जातात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नमः । 
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ यं रः अनादि-शक्ति-धाम्ने सर्वात्मने करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।

अङ्ग-न्यासः – 
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ ह्लां सर्व-शक्ति-धाम्ने ईशानात्मने हृदयाय नमः । 
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ नं रिं नित्य-तृप्ति-धाम्ने तत्पुरुषात्मने शिरसे स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ मं रुं अनादि-शक्‍ति-धाम्ने अघोरात्मने शिखायै वषट् ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ शिं रैं स्वतंत्र-शक्ति-धाम्ने वाम-देवात्मने कवचाय हुं ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ वां रौं अलुप्त-शक्ति-धाम्ने सद्यो जातात्मने नेत्र-त्रयाय वौषट् ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने 
ॐ यं रः अनादि-शक्ति-धाम्ने सर्वात्मने अस्त्राय फट् ।
                                          
॥ अथ ध्यानम् ॥
वज्र-दंष्ट्रं त्रि-नयनं काल-कण्ठमरिन्दमम् ।
 सहस्र-करमत्युग्रं वंदे शंभुमुमा-पतिम् ॥
                                                
।। मूल-पाठ ।। 
मां पातु देवोऽखिल-देवतात्मा, 
संसार-कूपे पतितं गंभीरे ।
तन्नाम-दिव्यं वर-मंत्र-मूलं, 
धुनोतु मे सर्वमघं ह्रदिस्थम् ॥ १ ॥

सर्वत्र मां रक्षतु 
विश्‍व-मूर्तिर्ज्योतिर्मयानन्द-घनश्‍चिदात्मा ।
अणोरणीयानुरु-शक्‍तिरेकः, 
स ईश्‍वरः पातु भयादशेषात् ॥ २ ॥

यो भू-स्वरूपेण बिभात विश्‍वं, 
पायात् स भूमेर्गिरिशोऽष्ट-मूर्तिः ।
योऽपां स्वरूपेण नृणां करोति, 
सञ्जीवनं सोऽवतु मां जलेभ्यः ॥ ३ ॥

कल्पावसाने भुवनानि दग्ध्वा, 
सर्वाणि यो नृत्यति भूरि-लीलः ।
स काल-रुद्रोऽवतु मां 
दवाग्नेर्वात्यादि-भीतेरखिलाच्च तापात् ॥ ४ ॥

प्रदीप्त-विद्युत् कनकावभासो, 
विद्या-वराभीति-कुठार-पाणिः ।
चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनेत्रः, 
प्राच्यां स्थितं रक्षतु मामजस्रम् ॥ ५ ॥

कुठार-खेटांकुश-पाश-शूल-
कपाल-ढक्काक्ष-गुणान् दधानः ।
चतुर्मुखो नील-रुचिस्त्रिनेत्रः, 
पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥ ६ ॥

कुन्देन्दु-शङ्ख-स्फटिकावभासो, 
वेदाक्ष-माला वरदाभयांङ्कः ।
त्र्यक्षश्‍चतुर्वक्त्र उरु-प्रभावः, 
सद्योऽधिजातोऽवस्तु मां प्रतीच्याम् ॥ ७ ॥

वराक्ष-माला-भय-टङ्क-हस्तः, 
सरोज-किञ्जल्क-समान-वर्णः ।
त्रिलोचनश्‍चारु-चतुर्मुखो मां, 
पायादुदीच्या दिशि वाम-देवः ॥ ८ ॥

वेदाभ्येष्टांकुश-पाश-टङ्क-
कपाल-ढक्काक्षक-शूल-पाणिः ।
सित-द्युतिः पञ्चमुखोऽवताम् 
मामीशान-ऊर्ध्वं परम-प्रकाशः ॥ ९ ॥

मूर्धानमव्यान् मम चंद्र-मौलिर्भालं 
ममाव्यादथ भाल-नेत्रः ।
नेत्रे ममाव्याद् भग-नेत्र-हारी, 
नासां सदा रक्षतु विश्‍व-नाथः ॥ १० ॥

पायाच्छ्रुती मे श्रुति-गीत-कीर्तिः, 
कपोलमव्यात् सततं कपाली ।
वक्त्रं सदा रक्षतु पञ्चवक्त्रो, 
जिह्वां सदा रक्षतु वेद-जिह्वः ॥ ११ ॥

कण्ठं गिरीशोऽवतु नील-कण्ठः, 
पाणि-द्वयं पातु पिनाक-पाणिः ।
दोर्मूलमव्यान्मम धर्म-बाहुर्वक्ष-स्थलं 
दक्ष-मखान्तकोऽव्यात् ॥ १२ ॥

ममोदरं पातु गिरीन्द्र-धन्वा, 
मध्यं ममाव्यान्मदनान्त-कारी ।
हेरम्ब-तातो मम पातु नाभिं, 
पायात् कटिं धूर्जटिरीश्‍वरो मे ॥ १३ ॥

ऊरु-द्वयं पातु कुबेर-मित्रो, 
जानु-द्वयं मे जगदीश्‍वरोऽव्यात् ।
जङ्घा-युगं पुङ्गव-केतुरव्यात्, 
पादौ ममाव्यात् सुर-वन्द्य-पादः ॥ १४ ॥

महेश्‍वरः पातु दिनादि-यामे, 
मां मध्य-यामेऽवतु वाम-देवः ।
त्र्यम्बकः पातु तृतीय-यामे, 
वृष-ध्वजः पातु दिनांत्य-यामे ॥ १५ ॥

पायान्निशादौ शशि-शेखरो मां, 
गङ्गा-धरो रक्षतु मां निशीथे ।
गौरी-पतिः पातु निशावसाने, 
मृत्युञ्जयो रक्षतु सर्व-कालम् ॥ १६ ॥

अन्तः-स्थितं रक्षतु शङ्करो मां, 
स्थाणुः सदा पातु बहिः-स्थित माम् ।
तदन्तरे पातु पतिः पशूनां, 
सदा-शिवो रक्षतु मां समन्तात् ॥ १७ ॥

तिष्ठन्तमव्याद् ‍भुवनैकनाथः, 
पायाद्‍ व्रजन्तं प्रथमाधि-नाथः ।
वेदान्त-वेद्योऽवतु मां निषण्णं, 
मामव्ययः पातु शिवः शयानम् ॥ १८ ॥

मार्गेषु मां रक्षतु नील-कंठः, 
शैलादि-दुर्गेषु पुर-त्रयारिः ।
अरण्य-वासादि-महा-प्रवासे, 
पायान्मृग-व्याध उदार-शक्तिः ॥ १९ ॥

कल्पान्तकाटोप-पटु-प्रकोप-
स्फुटाट्ट-हासोच्चलिताण्ड-कोशः ।
घोरारि-सेनार्णव-दुर्निवार-महा-
भयाद् रक्षतु वीर-भद्रः ॥ २० ॥

पत्त्यश्‍व-मातङ्ग-रथावरूथ-सहस्र-
लक्षायुत-कोटि-भीषणम् ।
अक्षौहिणीनां शतमाततायिनाश्छिन्द्यान्मृडो 
घोर-कुठार-धारया ॥ २१ ॥

निहन्तु दस्यून् प्रलयानिलार्च्चिर्ज्ज्वलन् 
त्रिशूलं त्रिपुरांतकस्य ।
शार्दूल-सिंहर्क्ष-वृकादि-हिंस्रान् 
सन्त्रासयत्वीश-धनुः पिनाकः ॥ २२ ॥

दुःस्वप्न-दुःशकुन-दुर्गति-दौर्मनस्य-
दुर्भिक्ष-दुर्व्यसन-दुःसह-दुर्यशांसि ।
उत्पात-ताप-विष-भीतिमसद्‍-
गुहार्ति-व्याधींश्‍च नाशयतु मे जगतामधीशः ॥ २३ ॥

ॐ नमो भगवते सदा-शिवाय सकल-तत्त्वात्मकाय 
सर्व-मन्त्र-स्वरूपाय सर्व-यंत्राधिष्ठिताय सर्व-तंत्र-स्वरूपाय सर्व-तत्त्व-विदूराय ब्रह्म-रुद्रावतारिणे नील-कण्ठाय 
पार्वती-मनोहर-प्रियाय सोम-सूर्याग्नि-लोचनाय 
भस्मोद्‍-धूलित-विग्रहाय महा-मणि-मुकुट-धारणाय माणिक्य-भूषणाय सृष्टि-स्थिति-प्रलय-काल-रौद्रावताराय दक्षाध्वर-ध्वंसकाय महा-काल-भेदनाय मूलाधारैक-निलयाय तत्त्वातीताय गंगा-धराय सर्व-देवाधि-देवाय षडाश्रयाय वेदान्त-साराय ।

त्रि-वर्ग-साधनायानन्त-कोटि-ब्रह्माण्ड-नायकायानन्त-वासुकि-तक्षक-कर्कोट-शङ्‍ख-कुलिक-पद्म-महा-पद्मेत्यष्ट-महा-नाग-कुल-भूषणाय प्रणव-स्वरूपाय चिदाकाशाय आकाश-दिक्स्वरूपाय ग्रह-नक्षत्र-मालिने सकलाय कलङ्क-रहिताय सकल-लोकैक-कर्त्रे सकल-लोकैक-भर्त्रे सकल-लोकैक-संहर्त्रे सकल-लोकैक-गुरवे सकल-लोकैक-साक्षिणे सकल-लोकैक-वर-प्रदाय सकल-लोकैक-शङ्कराय शशाङ्क-शेखराय शाश्‍वत-निजावासाय निराभासाय निरामयाय निर्मलाय निर्लोभाय निर्मदाय निश्‍चिन्ताय निरहङ्काराय निरंकुशाय निष्कलंकाय निर्गुणाय निष्कामाय निरुपप्लवाय निरवद्याय निरन्तराय निष्कारणाय निरातङ्काय निष्प्रपंचाय निःसङ्गाय निर्द्वन्द्वाय निराधाराय नीरागाय निष्क्रोधाय निर्मलाय निष्पापाय निर्भयाय निर्विकल्पाय निर्भेदाय निष्क्रियाय निस्तुलाय निःसंशाय निरञ्जनाय निरुपम-विभवाय नित्य-शुद्ध-बुद्धि-परिपूर्ण-सच्चिदानन्दाद्वयाय परम-शान्त-स्वरूपाय तेजोरूपाय तेजोमयाय ।

जय जय रुद्र महा-रौद्र महावतार महा-भैरव काल-भैरव कपाल-माला-धर खट्वाङ्ग-खङ्ग-चर्म-पाशाङ्कुश-डमरु-शूल-चाप-बाण-गदा-शक्ति-भिन्दिपाल-तोमर-मुसल-मुद्-गर-पाश-परिघ-भुशुण्डी-शतघ्नी-चक्राद्यायुध भीषण-कर-सहस्र-मुख-दंष्ट्रा-कराल-वदन-विकटाट्ट-हास-विस्फारित ब्रह्माण्ड-मंडल नागेन्द्र-कुण्डल नागेन्द्र-वलय नागेन्द्र-चर्म-धर मृत्युञ्जय त्र्यम्बक त्रिपुरान्तक विश्‍व-रूप विरूपाक्ष विश्‍वेश्वर वृषभ-वाहन विश्वतोमुख !
सर्वतो रक्ष, रक्ष । मा ज्वल ज्वल । महा-मृत्युमप-मृत्यु-भयं नाशय-नाशय- ! चोर-भय-मुत्सादयोत्सादय । विष-सर्प-भयं शमय शमय । चोरान् मारय मारय । 
मम शत्रुनुच्चाट्योच्चाटय । त्रिशूलेन विदारय विदारय । कुठारेण भिन्धि भिन्धि । खड्‌गेन छिन्धि छिन्धि । खट्‍वांगेन विपोथय विपोथय । मुसलेन निष्पेषय निष्पेषय । वाणैः सन्ताडय सन्ताडय । रक्षांसि भीषय भीषय । अशेष-भूतानि विद्रावय विद्रावय । कूष्माण्ड-वेताल-मारी-गण-ब्रह्म-राक्षस-गणान्‌ संत्रासय संत्रासय । ममाभयं कुरु कुरु वित्रस्तं मामाश्‍वासयाश्‍वासय । नरक-महा-भयान्मामुद्धरोद्धर सञ्जीवय सञ्जीवय क्षुत्तृड्‌भ्यां मामाप्याययाप्याय दुःखातुरं मामानन्दयानन्दय शिवकवचेन मामाच्छादयाच्छादय मृत्युञ्जय त्र्यंबक सदाशिव ! नमस्ते नमस्ते नमस्ते ।
 
 ।।इति श्रीस्कंदपुराणे एकाशीतिसाहस्रयां तृतीये ब्रह्मोत्तर-खण्डे अमोघ-शिव-कवचं समाप्तम् ।। 

ऋषभ ऋषि कहतें हैं  – मैंने यह वर-दायक शिव का जो कवच कहा है, समस्त प्राणियों की सब बाधाओं को शान्त करने वाला है और रहस्यों से भरा है । जो मनुष्य इस उत्तम ‘शिव-कवच’ को सदा धारण करता है, उसे भगवान् शम्भु के अनुग्रह से कोई भी भय नहीं होता । चाहे कम आयुवाला हो, चाहे मृत्यु सन्निकट हो अथवा चाहे महान् रोग से पीड़ित हो, इस कवच के प्रताप से वह तुरन्त सुख को प्राप्त करता है और दीर्घ आयु वाला होता है । सभी प्रकार की दरिद्रताओं को यह शान्त करता है और सब प्रकार से कल्याण करता है । "जो इस ‘शिव-कवच’ को धारण करता है, वह देवताओं के भी द्वारा पूजित होता है । वह महान् पापों और क्षुद्र पापों के समूहों से छुटकारा पा जाता है तथा देहान्त होने पर ‘शिव-कवच’ के प्रभाव से मोक्ष को प्राप्त करता है ।" हे वत्स ! तुम भी श्रद्धा के साथ मेरे द्वारा दिए गए इस उत्तम ‘शिव-कवच’ को धारण करो । इससे शीघ्र ही निश्चय-पूर्वक तुम्हारा कल्याण होगा ।।संकलित।।
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श्री रामदुर्ग सिद्ध स्तोत्रम्

श्री रामदुर्ग स्तोत्रम् 
ॐ अस्य श्रीरामदुर्गस्तोत्रमन्त्रस्य कौशिकऋषिरनुष्टुप्छन्दः
श्रीरामो देवता रां बीजं नमः शक्ति ।
रामाय कीलकम् श्रीरामप्रसादसिद्धिद्वारा मम सर्वतो
रक्षापूर्वकनानाप्रयोगसिध्यर्थे श्रीरामदुर्गमन्त्रस्य पाठे विनियोगः ।
ॐ ऐं क्लीं ह्रीं रीं चों ह्रीं रीं चों ह्रीं श्रीं आं क्रौं
ॐ नमोभगवते रामाय मम सर्वाभीष्टं साधय साधय फट् स्वाहा ॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ रामाय नमः ॥
ॐ नमो भगवते रामाय मम प्राच्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल निर्धनं
सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ १॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं ॐ लं लक्ष्मणाय नमः ॥
ॐ नमो भगवते लक्ष्मणाय मम याम्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
मां रक्ष रक्ष सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ २॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ भं भरताय नमः ।
ॐ नमो भगवते भरताय मम प्रतीच्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ३॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ शं शत्रुघ्नाय नमः ।
ॐ नमो भगवते शत्रुघ्नाय मम उदीच्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ४॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ जानक्यै नमः ।
ॐ नमो भगवते मे ऐशान्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ५॥

ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ सुं सुग्रीवाय नमः ।
ॐ नमो भगवते सुग्रीवाय ममाग्नेय्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ६॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ विं विभीषणाय नमः ।
ॐ नमो भगवते विभीषणाय मम नैरृत्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ७॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ वं वायुसुताय नमः ।
ॐ नमो भगवते वायुसुताय मम वायव्यां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ८॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ मं महावीरविष्णवे नमः ।
ॐ नमो भगवते महाविष्णवे मम ऊर्ध्वं ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ९॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ नृं नृसिंहाय नमः ।
ॐ नमो भगवते नृसिंहाय मम मध्ये ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ १०॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ वं वामनाय नमः ।
ॐ नमो भगवते वामनाय मम अधो ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ ११॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं ॐ कं केशवाय नमः ।
ॐ नमोभगवते केशवाय मम सर्वतः ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ १२॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ मं मर्कटनायकाय नमः ।
ॐ नमो भगवते मर्कटनायकाय मम सर्वदा ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ १३॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ कं कपिनाथाय कपिपुङ्गवाय नमः ।
ॐ नमो भगवते कपिपुङ्गवाय मम चतुर्द्वारं सदा ज्वल ज्वल
प्रज्वल प्रज्वल निर्धनं सधनं साधय साधय मां रक्ष रक्ष
सर्वदुष्टेभ्यो हूं फट् स्वाहा ॥ १४॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं रां रीं चों ह्रीं श्रीं आं क्रौं
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ नमो भगवते रामाय सर्वाभीष्टं साधय साधय
हूं फट् स्वाहा ॥ १५॥

इति श्रीरामदुर्गस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

ॐ रां रामाय नमः
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व्यापार बंधन मुक्ति मंत्र।


व्यापार बंधन मुक्ति मंत्र।  
जल जोगनी जलयारी हनुमंत वीर नरसिंह वीर भेरव वीर बेताल वीर
अतताल जोगी पतताल सतताल
खोल पाताल सात सुर बाजे के खोल दस दरवाजे खोल 
खोल मेरे व्यापार पर लगा हुआ बंदिश का ताला
ना खोले तो
राजा रामचंद्र की दवाई
सीता माता की दुहाई
माता महाकाली  दुहाई
फुरो मंत्र ईश्वर वाचा
मेरे गुरु का वचन सांचा

जिस भाई का व्यापार तंत्र के माध्यम से बंधा हुआ हो।
वह भाई इस मंत्र को सात बार पढ़ कर पढ़कर
जल को सिद्ध करके अपनी दुकान में अंदर से बाहर की तरफ जल के छींटे मारे
इस प्रयोग को 7 दिन करने पर व्यापार का तांत्रिक बंधन
समाप्त हो जाता है
यह मंत्र स्वयं सिद्ध है
इस मंत्र को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती
इस मंत्र का प्रयोग साधारण मानव भी कर सकता है।
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व्यवसायिक समस्या निवारण के लिए प्रयोग

व्यवसायिक समस्या निवारण के लिए:-
यदि आपके कारोबार में अनावश्यक अवरोध हो, कारोबार चल नहीं रहा हो, कभी घी घणा तो कभी मुट्ठी चना की दशा बनी रहती हो तो ऐसी अवस्था में शनि अमावस्या के इस पावन अवसर पर इस उपाय को शुरू करके देखें, और लगातार 43 दिन तक करें। अवश्य ही लाभ होगा।
एक काला कपडा लें। उडद के आटे में गुड मिले सात लड्डू, 11 बताशे, 11 नींबू, 11 साबुत सूखी लाल मिर्च, 11 साबुत नमक की डली, 11 लौंग, 11 काली मिर्च, 11 लोहे की कील और 11 चुटकी सिंदूर इन सबको कपडे में बांधकर पोटली बना दें। पोटली के ऊपर काजल की 11 बिंदी लगा दें। तत्पश्चात अपने सामने रख दें। ओम् आरती भंजनाय नम: मंत्र की 108 बार जाप करें इसके साथ ही पांच माला ओम् प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:। तत्पश्चात यह सामग्री लेकर मुख्य दरवाजे के चौखट के बीचोबीच खडे हो जाएं। इस पोटली को अपने ऊपर से 11 बार उसार करके किसी मंदिर या चौराहे पर रखकर आ जाएं।
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आगम ग्रंथों में स्पष्ट लिखा है कि --- भस्म, त्रिपुंड एवं रुद्राक्षमाला धारण किये बगैर भगवान सदाशिव व् आदी शक्ति पराम्बा की पूजा उतनी फलदायिनी नहीं होती|


आगम ग्रंथों में स्पष्ट लिखा है कि --- भस्म, त्रिपुंड एवं रुद्राक्षमाला धारण किये बगैर भगवान सदाशिव व् आदी शक्ति पराम्बा की पूजा उतनी फलदायिनी नहीं होती|
 इसीलिए देवी व् शिवभक्त भस्म, त्रिपुंड और  मस्तक पर सिन्दूर का टीका व् रुद्राक्ष माला धारण करते हैं| यह कथा ब्रह्मचर्य और वैराग्य की महिमा को भी प्रकाशित करती है| 
त्रिपुण्ड शिव व् सिन्दूर का टीका भगवती का चिन्ह अंकित करती है 
भस्मलेप को अग्नि-स्नान माना जाता है| यामल तंत्र के अनुसार सात प्रकार के स्नानों में अग्नि-स्नान सर्वश्रेष्ठ ह| 
भस्म देह की गन्दगी को दूर करता है| भगवान शिव ने अपने लिए आग्नेय स्नान को चुन रखा है| शैवागम के तन्त्र ग्रंथों में इस विषय पर एक बड़ा विलक्षण बर्णन है जो ज्ञान की पराकाष्ठा है|

 "भ" और "स्म" इनका अर्थ अलग अलग है| "स्म" क्रिया स्वरुप भूतकाल को दर्शाता है| 'भ'कार शब्द की व्याख्या भगवान शिव पार्वती जी को करते हैं - "भकारम् श्रुणु चार्वंगी स्वयं परमकुंडली| महामोक्षप्रदं वर्ण तरुणादित्य संप्रभं ||

 त्रिशक्तिसहितं वर्ण विविन्दुं सहितं प्रिये| आत्मादि तत्त्वसंयुक्तं भकारं प्रणमाम्यह्म्||" महादेवी को संबोधित करते हुए महादेव कहते हैं कि हे (चारू+अंगी) सुन्दर देह धारिणी, 'भ'कार 'परमकुंडली' है| यह महामोक्षदायी है जो सूर्य की तरह तेजोद्दीप्त है|इसमें तीनों देवों की शक्तियां निहित हैं । यहाँ 'परमकुंडली' का अर्थ बताना अति आवश्यक है|मूलाधार से आज्ञाचक्र तक का मार्ग अपरा सुषुम्ना है| जब कुण्डलिनी महाशक्ति गुरुकृपा से आज्ञाचक्र को भेद कर सहस्त्रार में प्रवेश करती है तब वह मार्ग उत्तरा सुषुम्ना है| अपरा सुषुम्ना में कुण्डलिनी जागती है, और उत्तरा सुषुम्ना के मार्ग में यह "परमकुंडली" कहलाती है| महादेव 'भ'कार द्वारा उस महामोक्षदायी परमकुण्डली की ओर संकेत करते हुए ज्ञानी साधकों की दृष्टि आकर्षित करते हुए उन्हें कुंडली जागृत कर के उत्तरा सुषुम्ना की ओर बढने की प्रेरणा देते हैं कि वे शिवमय हो जाएँ| जो निराकार ब्रह्म शिव है य शून्य (शिव लिंग ) है उनिके इछा से स्रष्टि की रचना और पालन हुवा है और उनिकी इछा से स्रष्टि का अंत भी है सृष्टि का जब अंत होता है तो शेष कुछ नहीं बचता जो कुछ बचता ही नहीं जो अंतिम सृष्टि का स्वरूप होगा उसीको भस्म कहा जाता है जब लकड़ी (संसार )की अंकुर (जन्म से ) अनेक रूप लेता है और जब लकड़ी को आग लगता है तो जलकर राख बनजाता है राख में भी कुछ शेष रहता है और उस राख भी न रहते हुवे भस्म (शून्य) बनता है और वह भष्म जो शरीर रहित शिव (निराकार ब्रहम ) इस भस्म को धारण करता है | इस कारण शिव को भस्म प्रिय है और वो भी त्रिपुंड (प्राण ,शारीर , और अहंकार ) रहितहोता है निर्लिप्त जो भस्म कुछ नहीं वही शिव (जो निशुन्य है )धारण करता है जहा जो भाव , जीव ,और शिव का ऐक्य है वही लिंग है और उस लिंग को गुण त्रय, भाव त्रय और प्राण त्रय रहित भस्म ( निराकार ब्रह्म ) शिव को लेपन किया जाता है | भस्म अर्थार्त जो शेष होता है जो अपने , गुण, रूप ,रंग पंचत्व को खोकर जो शेष है वही भस्म है वह भस्म शिव प्रिय है इस कारण शिव स्मशान में है जहां सब कुछ अंत होता है और वही भस्म बनता है | महादेव शिवजी का न आदि है न ही अंत। शास्त्रों में शिवजी के स्वरूप के संबंध कई महत्वपूर्ण बातें बताई गई हैं। इनका स्वरूप सभी देवी-देवताओं से बिल्कुल भिन्न है। जहां सभी देवी-देवता दिव्य आभूषण और वस्त्रादि धारण करते हैं वहीं शिवजी ऐसा कुछ भी धारण नहीं करते, वे शरीर पर भस्म रमाते हैं, उनके आभूषण भी विचित्र हैं। धार्मिक मान्यता यह है कि शिव को मृत्यु का स्वामी माना गया है और शिवजी शव के जलने के बाद बची भस्म को अपने शरीर पर धारण करते हैं। इस प्रकार शिवजी भस्म लगाकर हमें यह संदेश देते हैं कि यह हमारा यह शरीर नश्वर है और एक दिन इसी भस्म की तरह मिट्टी में विलिन हो जाएगा। अत: हमें इस नश्वर शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। कोई व्यक्ति कितना भी सुंदर क्यों न हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर इसी तरह भस्म बन जाएगा। अत: हमें किसी भी प्रकार का घमंड नहीं करना चाहिए। भगवान् शिव सन्देश देते हैं कि – मृत्यु के पश्चात् देह जलाने से सबकुछ नष्ट नहीं होता। भस्म शेष रह जाती है,जो हमारी आत्मा की प्रतीक बनती है—जो नश्वर है, शाश्वत है। यह भस्म प्रदर्शित करती है कि संसार में सबकुछ नश्वर है, केवल भस्म अर्थात् आत्मा ही अमर, अजर और अविनाशी है! अतएव, भस्म (आत्मा) ही सत्य है, शेष सब मिथ्या, भ्रम और नश्वर। इसीलिए भगवान् शिव शरीर पर भस्म धारण किये हुए सर्ष्ण देते है,जिसका तात्पर्य है कि वे भस्म अर्थात्, आत्मा को अंगीकार करते हैं, और संसार के शेष भौतिक तत्त्व उनके लिये निरर्थक हैं, अनावश्यक हैं। शिव को मनोरम वेशभूषा और अलंकारों की आवश्यकता भी नहीं है। वे तो औघड़ बाबा हैं। जटाजूट धारी, गले में लिपटे नाग और रुद्राक्ष की मालाएं, शरीर पर बाघम्बर, चिता की भस्म लगाए एवं हाथ में त्रिशूल पकड़े हुए वे सारे विश्व को अपनी पद्चाप तथा डमरू की कर्णभेदी ध्वनि से नचाते रहते हैं। इसीलिए उन्हें नटराज की संज्ञा भी दी गई है। उनकी वेशभूषा से 'जीवन' और 'मृत्यु' का बोध होता है। शीश पर गंगा और चन्द्र –जीवन एवं कला के द्योतम हैं। शरीर पर चिता की भस्म मृत्यु की प्रतीक है। यह जीवन गंगा की धारा की भांति चलते हुए अन्त में मृत्यु सागर में लीन हो जाता है। दरअसल भस्म शिव का एक रहस्य भी है, जो आदि से प्रारंभ होकर अनंत तक की यात्रा अभिव्यक्त करता है,क्योंकि भस्म ही हमें यह याद दिलाती है कि जीवन क्षणिक है। वैज्ञानिक नजरिए से देखा जाए तो इसका कारण बहुत सीधा सा है। भस्म शरीर पर आवरण का काम करती है। यह कपड़ों जितनी ही उपयोगी होती है। भस्म बारीक लेकिन कठोर होती है जो हमारे शरीर की त्वचा के उन रोम छिद्रों को भर देती है जिससे हम सर्दी या गर्मी महसूस करते हैं। अगर दार्शनिक पक्ष से देखें तो संन्यास का अर्थ है संसार से अलग परमात्मा और प्रकृति के सान्निध्य में रहना। संसारी चीजों को छोड़कर प्राकृतिक साधनों का उपयोग करना। भस्म उन्हीं प्राकृतिक साधनों में शुमार है जो कहीं भी आसानी से उपलब्ध हो सकती है। भस्म का दार्शनिक अर्थ भी हैं और वैज्ञानिक महत्व भी है। शैव संप्रदाय के सन्यासियों में भस्म का विशेष महत्व है। श्चिताभस्मालेप: सृगपि नृकरोटिपरिकर: आदिशंकराचार्य ने शिवपञ्चाक्षर स्तोत्र में कहा है। भस्मागराकायमहेश्वराय। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा सृष्टिकर्ता, विष्णु पालनकर्ता तथा शिव संहारकर्ता हैं। मृत्यु जो शाश्वत सत्य है। उसके ही स्वामी शिव हैं इसलिए कहते भी है सत्यं शिवं सुंदरम्। अर्थात् सत्य शिव के समान सुंदर है।संसार में सत्य केवल मृत्यु ही है और उसके ईश्वर भगवान शिव हैं। शिव का शरीर पर भस्म लपेटने का दार्शनिक अर्थ यही है कि यह शरीर जिस पर हम गर्व करते हैं, जिसकी सुरक्षा का इतना इंतजाम करते हैं। इस भस्म के समान ही तो हो जाएगा। भगवान शिव पर भस्म चढ़ाना एवं भस्म का त्रिपुंड बनाना कोटि महायज्ञ करने के सामान होता है। साथ साथ उस भस्म कों साधक अपने मस्तक एवं अनेक अंगों पर लगते हैं तो उसके अलग अलग फल प्राप्त होते हैं। भस्म दो प्रकार के होते हैं: १. महा भस्म २. स्वल्प भस्म...महा भस्म शिवजी का मुख्य स्वरुप है। पर स्वल्प भस्म की अनेक शाखाएं हैं स्त्रोत, स्मार्त और लौकिक भस्म अत्यंत प्रसिद्द स्वल्प भस्म की शाखाएं हैं। जो भस्म वेद की रीति से धारण की जाती हैं उसे स्त्रोत भस्म कहा जाता है, जो भस्म स्मृति अथवा पुरानो की रीति से धारण की जाती है उसे स्मार्त कहते हैं। जो भस्म सांसारिक अग्नि से उत्पन्न होती है और धारण की जाती है उसे लौकिक कहा जाता है। भ और स्म दो अक्षरों का योग है भस्म भ यानि भरत्स्नम यानि विनस्टकरना। स्म यानि देस्त्रॉयस्मा यानि स्मरण ,याद। जब दुर्गुणों का नाश होता है तब उस परम तत्व (परमेश्वर शिव का हम स्मरण करते हैं),उसकी याद आती है। भस्म को विभूति भी कहा जाता है । . शिव का भस्म रमाने के पीछे कुछ वैज्ञानिक तथा आध्यामित्क कारण भी हैं।भस्म की एक विशेषता होती है कि यह शरीर के रोम छिद्रों को बंद कर देती है। इसका मुख्य गुण है कि इसको शरीर पर लगाने से गर्मी में गर्मी और सर्दी में सर्दी नहीं लगती। भस्मी त्वचा संबंधी रोगों में भी दवा का काम करती है। भस्मी धारण करने वाले शिव यह संदेश भी देते हैं कि परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको ढ़ालना मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है। जलते कंडे में जड़ी-बूटी और कपूर-गुगल की मात्रा डाली जाती है कि यह भस्म सेहत की दृष्टि से उपयुक्त होती है। श्रौत, स्मार्त और लौकिक ऐसे तीन प्रकार की भस्म कही जाती है। श्रुति की विधि से यज्ञ किया हो वह भस्म श्रौत है, स्मृति की विधि से यज्ञ किया हो वह स्मार्त भस्म है तथा कण्डे को जलाकर भस्म तैयार की हो वह लौकिक भस्म है। विरजा हवन की भस्म सर्वोत्कृष्ट मानी है। भस्म से विभूषित भक्त को देखकर देवता भी प्रसन्न होते हैं। हमें शिव के सभी मंत्रों, श्लोकों और स्त्रोतों में भस्म का वर्णन पढ़ने को मिल जाता है। जैसे आदिशंकराचार्य ने शिवपञ्चाक्षर स्तोत्र में कहा है- श्चिताभस्मालेप: सृगपि नृकरोटिपरिकर: या 'भस्मांगराकाय महेश्वराय'। त्रिपुंड की तीन रेखाएं हैं, भृकुटी के अंत में मस्तक पर मध्यमा आदि तीन अंगुलियों से भक्ति पूर्वक भस्म का त्रिपुंड लगाने से भक्ति मुक्ति मिलती है। इसे शिव तिलक भी कहते हैं। यह शरीर की तीन नाड़‍ियों इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का भी प्रतिनिधित्व करती हैं। इसे लगाने से ना सिर्फ आत्मा को परम शांति मिलती है बल्कि सेहत की दृष्टि से भी चमत्कारिक लाभ देती है। तीन रेखाओं के क्रमशः नौ देवता हैं। वे सब अंगों में हैं इसलिए सब अंगों में भस्म स्नान का वर्णन है। प्रथम रेखा के देवता महादेव हैं। वे 'अ' कार, गार्हपत्य अग्नि-भू रजोगुण, ऋग्वेद, क्रियाशक्ति, पृथ्वी, धर्म, प्रातः सवन हैं। दूसरी रेखा के देवता महेश्वर हैं जो 'उ' कार दक्षिणाग्नि आकाश, सत्वगुण, यजुर्वेद माध्यन्दिन सवन इच्छाशक्ति, अन्तरात्मा हैं। तीसरी रेखा के देवता शिव हैं वे 'म' कार आह्वानीय अग्नि परात्मारूप तमोगुण स्वर्गरूप, ज्ञानशक्ति, सामवेद और तृतीय सावन हैं।इन तीन देवताओं को नमस्कार करके शुद्ध होकर त्रिपुण्ड धारण करने से सब देवता प्रसन्न होते हैं।
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विविध गणपतियोंके नाम इस प्रकार है।

विविध गणपतियोंके नाम इस प्रकार है।
श्रीतत्वनिधि ग्रन्थमें कर्णाटकके महाराजा मुम्मडि कृष्णराज ओटयरने ३२ गणपतियोंके नाम रुपोंका निर्देश इस प्रकार किया है ।
१-बालगणपति-रक्तवर्ण, चतुर्हस्त
२-तरुणगणपति-रक्तवर्ण, अष्टहस्त
३-भक्तगणपति-श्वेतवर्ण, चतुर्हस्त 
४-वीरगणपति-रक्तवर्ण, दशभुज 
५-शक्तिगणपति-सिन्धुरवर्ण, चतुर्भुज 
६-द्विजगणपति-शुभ्रवर्ण, चतुर्भुज 
७-सिद्धगणपति-पिङ्गलवर्ण, चतुर्भुज 
८-उच्छिष्टगणपति-नीलवर्ण, चतुर्भुज 
९-विघ्नगणपति-स्वर्णवर्ण, दशभुज
१०-क्षिप्रगणपति-रक्तवर्ण, चतुर्हस्त
११-हेरम्बगणपति-गौरवर्ण, अष्टहस्त, पञ्चमातङ्गमुख सिंहवाहन 
१२-लक्ष्मीगणपति-गौरवर्ण, दशभुज 
१३-महागणपति-रक्तवर्ण, त्रिनेत्र, दशभुज
१४-विजयगणपि-रक्तवर्ण, चतुर्हस्त 
१५-नृतगणपति-पीतवर्ण, चतुर्हस्त 
१६-ऊर्ध्वगणपति-कनकवर्ण षडभुज
१७-एकाक्षरगणरति-रक्तवर्ण चतुर्भुज 
१८-वरगणपति-रक्तवर्ण चतुर्हस्त
१९-त्र्यक्षरगणपति-स्वर्णवर्ण चतुर्बाहु 
२०-क्षिप्रप्रसादगणपति-रक्तचन्दनाङ्कित षडभुज 
२१-हरिद्रागणपति-हरिद्रावर्ण चतुर्भुज 
२२-एकदन्तगणपति - श्यामवर्ण चतुर्भुज 
२३-सृष्टिगणपति-रक्तवर्ण चतुर्भुज 
२४-उद्ण्डगणपति-रक्तवर्ण द्वादशभुज 
२५-ॠणमोचनगणपति-शुक्लवर्ण चतुर्भुज 
२६-ढुण्ढिगणपति-रक्तवर्ण चतुर्भुज 
२७-द्विमुखगणपति - हरिद्वर्ण चतुर्भुज 
२८-त्रिमुखगणपति-रक्तवर्ण षडभुज 
२९-सिंहगणपति-श्वेतवर्ण अष्टभुज
३०-योगगणपति-रक्तवर्ण, चतुर्भुज 
३१-दुर्गागणपति-कनकवर्ण अष्टहस्त 
३२-संकष्टहरगणपति-रक्तवर्ण चतुर्भुज
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स्वस्तिक क्यों बनाया जाता है। शुभ काम से पहले


स्वस्तिक क्यों बनाया जाता हैं शुभ काम से पहले
बहुत ही सुन्दर प्रश्न हम सब के लिए उपयोगी हैं
                  
 स्वस्तिक का मतलब होता हैं दस दिशाओ की पूजा।

अगर आप स्वस्तिक बनाते हैं तो दशो दिशाओ के अधिपति देवताओ की पूजा हो जाती हैं।

इसीलिए स्वस्तिक सदैव सीधा बनाना चाहिए उसकी रेखाओ को टेड़ा नहीं करना चाहिए और न ही कोने काटने चाहिए।
                   
 
दस दिशाओ मैं से दो दिशाओ का नाम हैं आकाश और पाताल इन दोनों दिशाओ की पूजा के लिए 4 बिंदिया लगाईं जाती है।  

2 बिंदिया ऊपर आकाश के लिए और 2 निचे पाताल के लिए                  

बाकि दिशाओ की पूजा स्वस्तिक की लकीरो से हो जाती हैं इसलिए लकीरो को टेढ़ा नहीं करना चाहिए और कोने भी नहीं काटना चाहिए ।                  
 
अगर प्रत्येक घर के बाहर मुख्य द्वार के ऊपर पौने सात इंच का स्वस्तिक बनाकर उसके थोडा ऊपर 978 लिख दिया जाए तो घर मैं किसी तरह की विपति , तंत्र मन्त्र टोटके इत्यादि का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता ।

 घी मैं सिंदूर घोलकर उससे स्वस्तिक बनाये और ये संख्या लिखे।।यही संख्या अगर लाल या ऑरेंज पके कलर से या रेडियम से आप अपने पास कोई वाहन हो जैसे कार,एक्टिवा,बाइक इत्यादि पर लिख ले तो ये कभी दुर्घटना का शिकार नहीं होते।
          ।। करिये और देखिये ।।
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श्री शरभेश्वर-शालुव -पक्षिराज चिंतामणि शाबर-मंत्र

*श्री शरभेश्वर-शालुव -पक्षिराज चिंतामणि शाबर-मंत्र*
ॐ सत नमो आदेश गुरुजी को आदेश आदेश
चेला सुने गुरु फ़रमाय 
सिंह दहाड़े घर में जंगल में ना जाये ,
घर को फोरे , घर को तोरे , घर में नर को खाय
जिसने पाला उसी का जीजा साले से घबराय।
आधा हिरना आधा घोडा गऊ का रूप बनाय
एकानन में दुई चुग्गा , सो पक्षी रूप हो जाय।
चार टांग नीचे देखूं , चार तो गगन सुहाय।
फूंक मार जल-भूंज जाय ,काली-दुर्गा खाय।
जंघा पे बैठा यमराज महाबली , मार के हार बनाय।
भों भों बैठे भैरू बाबा , नाग गले लिपटाय।
एक झपट्टा मार के पक्षी , सिंह को ले उड़ जाय।
देख देख जंगल के राजा पक्षी से घबराय।
ॐ खें खां खं फट प्राण ले लो प्राण ले लो घर के लोग चिल्लाय।
ॐ शरभ -शालुव -पक्षिराजाय नम:।
मेरी भक्ति , गुरु की शक्ति , फुरो मंत्र ईश्वरॊवाचा दुहाई महारुद्र की।
देख चेला पक्षी का तमाशा ॐ खें खां खं हुम् फट् स्वाहा ।
श्री नाथजी गुरुजी को आदेश आदेश आदेश

*नोट- जो गुरु से दीक्षित हों सिर्फ वही विधान करें अन्यथा बिना गुरु के पूर्ण विनाश निश्चित है।*

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ज्योतिष के परिप्रेक्ष्य में शाबर मन्त्र

ज्योतिष के परिप्रेक्ष्य में शाबर मन्त्र
शाबर मन्त्रों के सम्बन्ध में कुछ लोग यह कहते हैं कि उन्होंने शाबर-मन्त्र ‘जप’ कया, किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ । वास्तव में ‘मन्त्र-सिद्धि’ न हो, तो जप दो बार या तीन बार करना चाहिए । फिर भी मन्त्र-सिद्धि न हो, तो उसके लिए अन्य कारणों को खोजना चाहिए ।
मन्त्र-सिद्धि न होने के बहुत से कारण हैं । एक कारण ग्रहों की दशा है । ‘ज्योतिष-विद्या’ के अनुसार ग्रहों की दशा ज्ञात करें । शाबर मन्त्र का जप किया जाए, तो साधना में सिद्धि अवश्य मिलती है । जिन लोगों को मन्त्र-साधना में निष्फलता मिली है, उनके लिए तो ज्योतिष विद्या का अवलम्बन उपयोगी है जी, साथ ही जो लोग मन्त्र साधना करने के लिए उत्सुक हैं, वे भी ज्योतिष विद्या का अवलम्बन लेकर यदि साधना प्रारम्भ करें, तो उन्हें विशेष सफलता प्राप्त हो सकती है ।
अस्तु, साधना-काल में जन्म-लग्न-चक्र के अनुसार कौन ग्रह अनुकूल है या कौन ग्रह प्रतिकूल है, यह जानना बहुत महत्त्व-पूर्ण है । साधना को यदि कर्म समझा जाए, तो जन्म-चक्र का दशम स्थान उसकी सफलता या असफलता का सूचक है । प्रायः ज्योतिषी नवम-स्थान को मुख्य मानकर साधना की सिद्धि या असिद्धि या उसका बलाबल नियत करते हैं । साधना में चूँकि कर्म अभिप्रेत है, अतः जन्म-चक्र का दशम स्थान का विचार उचित होगा । वैसे कुछ लोग पञ्चम स्थान को भी महत्त्व देते हैं ।
ज्योतिष के नियमानुसार साधक के जन्म-चक्र के नवम स्थान में जिस ग्रह का प्रभाव होता है, वैसी ही प्रकृति वह धारण करता है । इससे यह ज्ञात होता है कि साधक की प्रकृति सात्त्विक होगी या राजसिक या तामसिक ।
जन्म चक्र में यदि ‘गुरु, बुध, मंगल’ एक साथ होते हैं, तो साधक सगुण उपासना में प्रवृत्त होता है । जन्म चक्र में गुरु के साथ यदि बुध है, तो साधक सात्त्विक देवी-देवताओं की उपासना में प्रवृत्त होता है । ऐसे ही यदि दशमेश नवम स्थान में होता है, तो साधक सात्त्विक – देवोपासक बनता है ।
जन्म चक्र के आधार पर सात्त्विक उपासना के मुख्य-मुख्य योग इस प्रकार हैं -
१॰ दशमेश उच्च हो और साथ में बुध और शुक्र हो ।
२॰ लग्नेश दशम स्थान में हो ।
३॰ दशमेश नवम स्थान में हो और पाप-दृष्टि से रहित हो ।
४॰ दशमेश दशम स्थान या केन्द्र में हो ।
५॰ दशमेश बुध हो तथा गुरु बलवान और चन्द्र तृतीय हो ।
६॰ दशमेश व लग्न की युति हो ।
७॰ दशमेश व लग्नेश का स्वामी एक ही हो ।
८॰ दशमेश यदि शनि है, तो साधक तामसी बुद्धिवाला होता हुआ भी उच्च साधक व तपस्वी बनता है । यदि शनि राहु के साथ हो, तो रुचि तामसिक उपासना में अधिक लगेगी ।
९॰ सूर्य, शुक्र अथवा चन्द्र यदि दशमेश हो, तो जातक दूसरे की सहायता से ही उपासक बनता है ।
१०॰ पञ्चम स्थान परमात्मा से प्रेम का सूचक होता है । पञ्चम और नवम स्थान यदि शुभ लक्षणों से युक्त होते है, तो जातक अति सफल उपासक बनता है ।
११॰ पञ्चम स्थान में पुरुष ग्रहों का यदि प्रभाव रहता है, तो जातक पुरुष देव-देवताओं का उपासक बनता है । यदि स्त्री ग्रहों का विशेष प्रभाव होता है, तो जातक स्त्री-देवता या देवी की उपासना में रुचि रखता है । पञ्चम स्थान में सूर्य की स्थिति से यह ज्ञात होता है कि जातक शक्ति का कैसा उपासक बन सकता है ।
१२॰ नवम स्थान में या नवम स्थान के ऊपर मंगल की दृष्टि होती है, तो जातक भगवान् शिव की उपासना करता है । कुछ लोग मंगल को गनुमान् जी का स्वरुप मानते हैं । अतः इससे हनुमान् जी की उपासना बताते हैं । ऐसे ही कुछ लिगों का मत है कि गुरु-ग्रह के बल से शिव जी की उपासना में सफलता मिलती है । नवम स्थान में शनि होने से कुछ लोग तामसिक उपासनाओं में रुचि बताते हैं । नवम स्थान में शनि होने पर श्री हनुमान् जी का सफल उपासक बना जा सकता है ।
इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र में उपासना सम्बन्धी अनेक योग हैं ।
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https://youtu.be/XfpY7YI9CHc

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