Thursday 19 August 2021

त्रैलोक्य-विजय श्रीनृसिंह कवच


जय जय श्रीनरसिंह देव
त्रैलोक्य-विजय श्रीनृसिंह कवच
।। पूर्व-पीठिका : श्री नारद उवाच ।।
इन्द्रादि-देव-वृन्देश ! ईश्वर, जगत्-पते ! महा-विष्णोर्नृसिंहस्य, कवचं ब्रूहि मे प्रभो !
यस्य प्रपठनाद् विद्वांस्त्रैलोक्य-विजयी भवेत् ।।१
।। श्री प्रजापतिरुवाच ।।
श्रृणु नारद ! वक्ष्यामि, पुत्र-श्रेष्ठ, तपोधन ! कवचं नृसिंहस्य तु, त्रैलोक्य-विजयाभिधम् ।।
यस्य पठनाद् वाग्मी, त्रैलोक्य-विजयी भवेत् । स्रष्टाऽहं जगतां वत्स ! पठनाद् धारणाद् यतः ।।
लक्ष्मीर्जगत्-त्रयं पाति, संहर्ता च महेश्वरः । पठनाद् धारणाद् देवाः बभूवुश्च दिगीश्वराः ।।
ब्रह्म-मन्त्र-मयं वक्ष्ये, भ्रान्त्यादि-विनिवारकं । यस्य प्रसादाद् दुर्वासास्त्रैलोक्य-विजयी भवेत् ।।
पठनाद् धारणाद् यस्य, शास्ता च क्रोध-भैरवः ।।
त्रैलोक्य-विजयस्यास्य, कवचस्य प्रजापतिः । ऋषिश्छन्दश्च गायत्री, नृसिंहो देवता विभुः ।
क्ष्रौं वीजं, हुं शक्तिः, फट् कीलकं, ममाभीष्ट-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।।
।। मूल-पाठ ।।
विनियोगः- ॐ अस्य त्रैलोक्य-विजय-नाम श्रीनृसिंह-कवचस्य श्रीप्रजापतिः ऋषिः, गायत्री छन्दः, श्रीनृसिंहः देवता, क्ष्रौं वीजं, हुं शक्तिः, फट् कीलकं ममाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीप्रजापति-ऋषये नमः शिरसि, गायत्री-छन्दसे नमः मुखे, श्रीनृसिंह-देवतायै नमः हृदि, क्ष्रौं वीजाय नमः गुह्ये, हुं शक्तये नमः नाभौ, फट् कीलकाय नमः पादयोः ममाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।
ॐ उग्र-वीरं महा-विष्णुं, ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् । नृसिंहं भीषणं भद्रं, मृत्यु-मृत्युं नमाम्यहम् ।।१
क्ष्रौं वीजं मे शिरः पातु, चन्द्र-वर्णो महा-मनुः । कण्ठं पातु ध्रुवं क्ष्रौं हृद्, भगवते चक्षुषी मे ।
नरसिंहाय च ज्वाला-मालिने पातु कर्णकम् ।।२
दीप्त-दंष्ट्राय च तथाऽग्नि-नेत्राय च नासिकां । सर्व-रक्षोघ्नाय तथा, सर्व-भूत-हिताय च ।।३
सर्व-ज्वर-विनाशाय, दह-दह पद-द्वयम् । रक्ष-रक्ष वर्म-मन्त्रः, स्वाहा पातु मुखं मम ।।४
ॐ रामचन्द्राय नमः, पातु च हृदयं मम । क्लीं पायात् पार्श्व-युग्मं च, तारो नमः पदं ततः ।।५
नारायणाय नाभिं च, आं ह्रीं क्रों क्ष्रौं चैव हुं फट् । षडक्षरः कटिं पातु, ॐ नमो भगवतेऽयम् ।।६
वासुदेवाय च पृष्ठं, क्लीं कृष्णाय ऊरु-द्वयं । क्लीं कृष्णाय सदा पातु, जानुनी च मनूत्तमः ।।७
क्लीं ग्लौं क्लीं श्यामलाङ्गाय नमः पायात् पद-द्वयं । क्ष्रौं नृसिंहाय क्ष्रौं चैव, सर्वाङ्गे मे सदाऽवतु ।।८
।। फल-श्रुति ।।
इति ते कथितं वत्स ! सर्व-मन्त्रौघ-विग्रहं । तव स्नेहान्मया ख्यातं, प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ।।
गुरु-पूजां विधायाथ, गृह्णीयात् कवचं ततः । सर्व-पुण्य-युतो भूत्वा, सर्व-सिद्धि-युतो भवेत् ।।
शतमष्टोत्तरं चास्य, पुरश्चर्या-विधिः स्मृता । हवनादीन् दशांशेन, कृत्वा साधक-सत्तमः ।।
ततस्तु सिद्ध-कवचः, पुण्यात्मा मदनोपमः । स्पर्द्धामूद्धूय भवने, लक्ष्मीर्वाणि वसेत ततः ।।
पुष्पाञ्जल्यष्टकं दत्त्वा, मूलेनैव पठेत् सकृत् । अपि वर्ष-सहस्राणां, पूजायां फलमाप्नुयात् ।।
भूर्जे विलिख्य गुटिकां, स्वर्णस्थां धारयेद् यदि । कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ, नरसिंहो भवेत् स्वयम् ।।
योषिद्-वाम-भुजे चैव, पुरुषो दक्षिणे-करे । बिभृयात् कवचं पुण्यं, सर्व-सिद्धि-युतो भवेत् ।।
काक-वन्ध्या च या नारी, मृत-वत्सा च या भवेत् । जन्म-वन्ध्या नष्ट-पुत्रा, बहु-पुत्र-वती भवेत् ।।
कवचस्य प्रसादेन, जीवन्मुक्तो भवेन्नरः । त्रैलोक्यं क्षोभयेत् सदा, त्रैलोक्य-विजयी भवेत् ।।
भूत-प्रेत-पिशाचाश्च, राक्षसा दानवाश्च ये । तं दृष्ट्वा प्रपलायन्ते, देशाद् देशान्तरे ध्रुवम् ।।
यस्मिन् गृहे च कवचं, ग्रामे वा यदि तिष्ठति । तद्-देशं तु परित्यज्य, प्रयान्ति ह्यति-दूरतः ।।
।। इति ब्रह्म-संहितायां त्रैलोक्य-विजयं नाम नृसिंह-कवचम् ।।

‘पूर्व-पीठिका’ और ‘फल-श्रुति’ के अनुसार उक्त ‘श्रीनृसिंह कवच’ का १०८ पाठ करने से इसका ‘पुरश्चरण’ होता है । दशांश अर्थात् ११ पाठ द्वारा ‘हवन’ और एक-एक पाठ द्वारा ‘तर्पण’, ‘मार्जन’ कर एक ब्राह्मण को भोजन कराने से यह ‘कवच-स्तोत्र’ सिद्ध हो जाता है । तब इसका प्रयोग कर विविध प्रकार की कामनाओं की पूर्ति की जा सकती है । कामनाओं का उल्लेख ‘पूर्व-पीठिका’ और ‘फल-श्रुति’ में किया गया है । यहाँ दिये गये ‘यन्त्र’ को भोज-पत्र पर लिखकर ‘ताबीज’ के रुप में कण्ठ़ या भुजा में धारण करने से अनेक कामनाओं की पूर्ति होती है ।

Wednesday 18 August 2021

कुमारीस्तोत्रआनन्दभैरवी उवाच

कुमारीस्तोत्र
आनन्दभैरवी उवाच
आनन्दभैरवी ने कहा --- हे महाभैरव ! अब कुमारी की अत्यन्त दुर्लभ पूजा कहती हूँ । व्याधि वर्ग विहीन कन्या पूजन से साधक को भूमण्डल में शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है ॥१॥

हे वीरों के अधिपाधिप ! हे महादेव - ! अब उसका प्रकार सुनिए , कन्यापूजन के लिए ( शाक्त ) महापीठ अथवा देवालय समुचित स्थान माना गया है ॥२॥

सुन्दरी , परमानन्दवर्द्धिनी , जयदयिनी , कालरात्रिस्वरूपा एवं रक्ताङ्ग रञ्जिता कन्या श्री गौरी का स्वरूप हैं ॥३॥

चाहे वह कन्या देवकुल में उत्पन्न हो अथवा राक्षस कुल में , चाहे नरों के उत्तम कुल में , चाहे नटी कन्या , चाहे हीन जाति की कन्या , चाहे कापालिक की कन्या ही क्यों न हों । चाहे धोबी की कन्या , चाहे नापित की कन्या , गोपाल की कन्या , ब्राह्मण की कन्या , शूद्र की कन्या , वैश्य की कन्या , वैद्य की कन्या अथवा चाण्डालकन्या ही क्यों न हों , किं वा वे जिस किसी आश्रम में स्थित कन्या ही क्यों न हों , चाहे अपने सुहद् ‍ वर्ग की कन्या ही क्यों न हों , उन्हें प्रयत्न पूर्वक अपने घर लाकर अध्यात्म परायण

( शक्ति स्वरुपा ) मान कर उनका अत्यन्त आनन्दपूर्वक पूजन करना चाहिए ॥४ - ७॥

हे वरदान देने वाले ! हे देवेन्द्र ! हे परमानन्दसौन्दर्य ! हे कारणानन्दविग्रह ! अब क्रमशः सुनिए । जो शुद्ध भक्तिपूर्वक मेरी पूजा प्रतिदिन करते हैं , उन्हें अवश्य ही कुमारी पूजन कर उनको भोजन कराना चाहिए ॥८ - ९॥

चाहे सूर्य की पूजा , चाहे चन्द्रमा की पूजा , चाहे अग्नि की ही पूजा करने वाला क्यो न हो , सभी भावों में कन्या का पूजन प्रशस्त माना गया है । कन्या के पूजन से , कन्या से संभाषण से और कन्या के भोजन से मनुष्य का कल्याण होता है ॥१०॥

कन्या पूजन से मैं प्रसन्न होती हूँ क्योंकि उनमें देवता गुप्त रुप से निवास करते है । सभी लोकों के द्वारा पूजित , महान् तेजस्वी तथा ब्रह्मचारी मेरे पुत्र बाल भैरव देव की जो अभीष्ट हैं , वह कुमारी विविध प्रकार के दिव्य पूजन से देवों के द्वारा पूजित हैं ॥११ - १२॥

कुमारी कन्यका , सर्वज्ञा एवं जगदीश्वरी कही जाती हैं । सुरेश्वर ( = इन्द्र ) गण भी पूजा के लिए गुप्त रुप से निवास करने वाली भूमिस्वरूपा महादेवी भोजन आदि अभीष्ट से अर्घ्य और मालादि द्र्व्यों से सन्तुष्ट होकर प्रसन्न रहने वाली कन्या को समस्त लोक से लाकर उनका पूजन करते हैं ॥१३ - १४॥

कुमारी देवनायिका का रोना अर्थात् असन्तुष्ट होना , व्यर्थ , नहीं होता है अतः सभी श्रेष्ठ लोग सरस्वती स्वरूपा ( द्र० ६ . ९६ ) कन्या का पूजन करते हैं । शिव भक्त , विष्णु भक्त तथा अन्य देवता भक्त , किं बहुना , समस्त मनुष्यों द्वारा कन्या पूजित हुई हैं , इसलिए बुद्धिमान् साधक को कन्या का पूजन अवश्य करना चाहिए ॥१५ - १६॥

कन्या पूजन से साधक पूजा प्राप्त करता है , कन्या पूजन से श्री की प्राप्ति होती है , धन प्राप्त होता है और पृथ्वी मिलती है । कन्या पूजन से लक्ष्मी प्राप्त होती है , सरस्वती प्राप्त होती है , महान् तेज मिलता है और दस महाविद्यायें प्रसन्न होती हैं । किं बहुना समस्त देवता कन्या पूजन से प्रसन्न होते हैं , इसमें संशय नहीं ॥१७ - १८॥

कन्या पूजन से बाल भैरव ( श्री बटुक ) ब्रह्मा , इन्द्र , ब्रह्मवेता ब्राह्मण , रुद्र , देवगण , विष्णुरूप वैष्णव अवतार , द्विभुजा वाले वैष्णव जन , ( स्वारोचिषा आदि ) मनु से शोभित , अन्य दिक्पाल एवं देवता , अनेक विद्या से युत्त चराचर गुरु , कूटनीति से युक्त दानव और अपवर्ग मेंज स्थित रहने वाले जो जो जन हैं वे सभी संतुष्ट होते हैं , इसमें संशय नहीं ॥१९ - २१॥

हे देव ! यदि कन्या पूजन से मैं संतुष्ट होती हूँ तो अन्य लोगों की बाल ही क्या ? साधक कुमारी पूजन कर समस्त त्रैलोक्य को अपने वश में सकता है ॥२२॥

कन्या पूजन से शीघ्र ही महाशान्ति प्राप्त होती हैं , संपूर्ण पुण्य तथा समस्त फल प्राप्त होते हैं । तन्त्र और मन्त्र में कहे गये समस्त पुण्य क्षण मात्र में प्राप्त हो जाते हैं ॥२३॥

( कुमारी ) मन्त्र से संपुटित ( मन्त्र ) का जप करने से साधक समस्त सिद्धियों का ईश्वर बन जाता है । हे सुरसुन्दर ! जिन जिन विधानों के प्रकार को मैं कहती हूँ उसे अवश्य करना चाहिए । उसमें भेद बुद्धि कदापि न करे ॥२४ - २५॥

श्रीभैरव ने कहा --- हे शङ्करपूजिते ! हे मेरे कुल के समस्त भावों मैं प्रविष्ट कराने वाली ! हे भैरवि ! हे प्राणवल्लभे ! हे परमानन्द ! यदि मुझ आपका स्नेह पुञ्ज हो तो अब कुमारी के बीज मन्त्र के भेदों को मुझे बताइए ॥२४ - २६॥

आनन्दभैरवी ने कहा --- हे नाथ ! अब शाक्तों के हित के लिए कुमारी पूजन में प्रयोग किए जाने वाले महामन्त्र को मुझ से

सुनिए । ये महामन्त्र सिद्ध मन्त्र हैं इसमें संशय नहीं । इस मन्त्र की कृपा होने पर बुद्धिमान् साधक जीवन्मुक्त हो जाता है और अन्त में देवी पद को प्राप्त कर लेता है । हे आनन्दभैरव ! यह सत्य हैं ॥२७ - २८॥

इस लोक में अवश्य ही साधक को सुख संपत्ति प्राप्त होती है और यह मन्त्र मधुमती विद्या को प्रसन्न करने वाला है , हे शङ्कर ! ऐसा विश्वास करो ॥२९॥

वाग्भव ( ऐं ) से समस्त पुर क्षुब्ध हो जाता है । माया बीज ( हीं ) में आठ गुना फल होता है , श्रीबीज ( श्रीं ) से श्री की प्राप्ति तथा माया बीज से शत्रु का नाश होता है । भैरव बीज ( ? ) से देवताओं के समान खेचरता ( आकाश गमन ) प्राप्त होता है । हे नाथ ! वस्तुतः मैं ही सदा कुमारिका हूँ और आप सदैव कुमार हैं ॥३० - ३१॥

चाहे १०८ की संख्या में चाहे एक ही कन्या का पूजन करना चाहिए । ये कन्यायें पूजित होने पर सब प्रकार का फल देती हैं । किन्तुअ अपामानित होने पर जला देती हैं ॥३२॥

कुमारी साक्षात् योगिनी हैं । कुमारी साधाम् पर देवता ( महाशाक्ति स्वरुपा ) हैं । अतः कुमारी के सन्तुष्ट होने पर असुर , अष्टनाग , दुष्टग्रह , भूत , वेताल , गन्धर्व , डाकिनी , यक्ष , राक्षस तथा अन्य देवता , किं बहुना , हे भैरव ! समस्त भूः भुवः स्वः रुप त्रिलोकी समस्त पृथिव्यादि तत्त्व , चराचरात्मक समस्त ब्रह्माण्ड , ब्रह्मा , विष्णु , रुद्र एवं ईश्वर तथा सदाशिव आदि सभी देवगण कुमारी पूजन करने वाले साधक पर प्रसन्न हो जाते हैं ॥३३ - ३६॥

हे भैरव ! निधि अर्थात ९ संख्यक कुमारी का पूजन करना चाहिए । पाद्य , अर्घ्य धूप , कुंकुंम , शुभकारक चन्दन आदि पदार्थ भक्तिपूर्वक कुमारी को निवेदन करना चाहिए । पूजा के आदि में मध्य में अन्त में तीन प्रदक्षिणा करे । फिर सुवर्ण , रजत तथा मोती से संयुक्त दक्षिणा देनी चाहिए ॥३६ - ३८॥

विधि पूर्वक दक्षिणा देने के बाद क्रमशः कुमारियों का विवाह भी कर देना चाहिए । ऐसा करने से ब्रह्महत्या के पाप से छूट जाता है । पुण्य काल में जितनी ही कन्या का दान करता है , उसे भुक्ति मुक्ति , अन्य फल , सौभाग्य तथा सारी संपत्ति प्राप्त हो जाती है ॥३९ - ४०॥

कन्या दान करने वाला साधक त्रिनेत्र भगवान् सदाशिव का रुप धारण कर रुद्रलोक में निवास करता है । करोड़ों सहस्त्र तीर्थ का तथा सैकड़ों अश्वमेध यज्ञ का फल उसे प्राप्त हो जाता है ॥४१॥

जो कन्या का विवाह कर देता है शीघ्र ही उसके फल को साधक प्राप्त करता है । वह बालुका सागर में रहने वाले जितने बालू की संख्या होती है उतने हजार वर्षों तक एक एक कुल का उद्धार कर रुद्रलोक में पूजा प्राप्त करता है । हे भैरव ! इसलिए अपने उन उन इष्ट देवताओं की प्रीति के लिए बुद्धिमान् साधक कन्यादान कर मुक्ति प्राप्त करे ॥४२ - ४४॥

श्रेष्ठ साधक उन उन वर्ण वाली कन्याओं में उन उन देवताओं की बुद्धि कर ( द्र० . ५ , ९६ - १०० ) एवं दिये जाने वाले वर में शिव की बुद्धि कर तथा पूर्ण रूप से शिव का ध्यान कर कन्यादान करे अथवा सर्वांग सुन्दर , तेजोमय , यश , कान्त बाल भैरव रूप , बटुकेश महादेव का वर रुप में वरण करे ॥४४ - ४६॥

त्रैलोक्यसुन्दरी , नानालङ्कार से विभूषित , नम्राङ्गी श्रेष्ठ महाविद्या का प्रकाश देने वाली , मन्द मन्द हास्य करने वाली , महानन्द से परिपूर्ण ह्रदय वाली , कल्याणकारिणी , मङ्गल स्वरुपा , पूर्ण चन्द्रानना कन्या में बालरुपा ( त्रिपुर ) भैरवी का द्वादश पत्र कमल में ध्यान कर दान करने के लिए लावे और उन उन मन्त्रों से उनका दान भी करे ॥४७ - ४९॥

इस बात को सुन कर महावीर तथा मायारहित बालारूपी भैरव ने परमानन्द स्वरूपा महाभैरवी से पुनः जिज्ञासा की ॥४० - ५०॥

आनन्दभैरव ने कहा --- हे महाभैरवी ! हे प्रिये ! कुमारी कुलतत्त्व के ज्ञान के लिए मन्त्रार्थ , जपक्रम , यजनादि के प्रकार , भोजनादि का क्रम , होमादि की प्रक्रिया , प्रत्येक का स्तोत्र तथा कुमारी कवच क्रमशः हमें बताइए । जिस क्रम से कुमारी परदेवता महाविद्या निर्जन स्थान में साधक के आगे स्वयं प्रगट हो कर स्वयं महावाक्य का प्रतिपादन करें वह बलिका चारुनयना किस प्रकार और किस कारण से प्रसन्न होती हैं ? हे आनन्दभैरवी ! उस प्रकार को आप कहिए ॥५० - ५४॥

आनन्दभैरवी ने कहा --- हे शम्भो ! अब कुमारी कुल के मन्त्रों को कहती हूँ उन्हें सुनिए । जिसके जानने मात्र से उत्तम साधक धरणी पति हो जाता है । कुमारी यजन के प्रभावा से साधक गुरु रुप में प्रतिष्ठित हो जाता है ॥५४ - ५५॥

एक वर्षा वरा सन्ध्यादि नाम वाली कुमारियों से प्रारम्भ कर ( १६ वर्ष वाली अम्बिका ) स्वरुप कन्याओं के महामन्त्रों को और क्रमपूर्वक सभी के मन्त्रों के चैतन्य सिद्धि की सक्त्रिया को भी हे महाप्रभो ! श्रवण कीजिए ॥५६॥

श्रेष्ठ सुन्दरी नारी कुलोत्पन्न रत्नालङ्कार संयुक्त चूडी़ और वस्त्रादि से सुशोभित कन्या को लाकर वाग्भव ( ऐं ) बीज के सहित तत्तन्नाम से , हे नाथ ! जल प्रदान करे ॥५७ - ५८॥

उत्तम साधक उन उन कन्याओं में उन उन देवियों की भावना , करते हुये पूजन करे । जल प्रदान करने के बाद मायाबीज

’ हरी सन्ध्यायै नमः अर्घ्य समर्पयामि ’ इस मन्त्र से अर्घ्य प्रदान करे । पुनः माया बीज ’ हीं सन्ध्यायै नमः पुषाणि समर्पयानि ’ इस मन्त्र से कुमारी को पुष्प समर्पित करे ॥५९ - ६०॥

तदनन्तर सदाशिव के मन्त्र ( ॐ नमः शिवाय ) से उत्तम धूप दीप प्रदान कर षडङ्गमन्त्र से इस प्रकार न्यास करे ।

षडङ्गन्यास --- हे आनन्द रुप वाले ! हे महादेव ! उस षडङ्गन्यास के प्रकार को सुनिए । महातेजोमय शुभ्र स्वरुप का ध्यान कर ह्रदय पर दाहिना हाथ रखकर धीमान् ‍ साधक को मन्त्र पढा़ना चाहिए । हे शङ्कर ! अब उस मन्त्र को सुनिए । सर्वप्रथम वाग्भव ( ऐं ) उच्चारण कर माया ( ह्रीं ) लक्ष्मी बीज ( श्रीं ) कूर्च ( हूं ) का उच्चारण करे ॥६१ - ६३॥

फिर विसर्ग और विन्दु से युक्त प्रेत बीज ( हंसोः ) का उच्चारण कर ’ कुल कुमारिके ’ पद का उच्चारण करे । तदनन्तर ’ ह्रदयाय नमः ’ कहकर ह्रदय का स्पर्श करे । मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है - ’ ऐं ह्रीं श्रीं हूँ हंसोः कुलकुमारिके ह्रदयाय नमः ’ । इसके बाद शिरः स्थान में शुक्ल वर्ण सर्वमय बीज ( ॐ ) का ध्यान करे । वाग्भव से युक्त हकार , वाग्भव से युक्त वकार , फिर माया ( ह्रीं ), फिर लक्ष्मी ( श्रीं ), फिर वाग्भव ( ऐं ), फिर दो ठ अर्थात् वहिनजाया ( स्वाहा ) इतना उच्चारण कर शिरः प्रदेश में दाहिने हाथ से स्पर्श कर न्यास करे ॥६४ - ६७॥

तदनन्तर शिखा में काले अञ्जन के समूह के समान काले वर्ण का ध्यान कर ’ कुमारी कुल ’ की सिद्धि के लिए मन्त्र साधक इस मन्त्र से न्यास करे । प्रथम प्रणव ( ॐ ) का उच्चारण करे । उसके बाद वहिन सुन्दरी ( स्वाहा ) का उच्चारण करे । फिर ’ शिखायै वषट् ’ का उच्चारण कर शिखा स्थान में न्यास करे ॥६७ - ६९॥

विमर्श --- यथा --- ॐ स्वाहा शिखायै वषट्।

इसके बाद कवच के मध्य में ( दोनों बाहु ) में महाबलवान् अत्यन्त तेजस्वी , सुन्दर , सूर्योदयसे प्रथम होने वाले अरूण के समान लाल वर्ण का ध्यान कर वाग्भव ( ऐं ) का उच्चारण कर , फिर ’ कुल ’ शब्द , फिर ’ वागीश्वरि ’ पद , फिर ’ कवचाय ’ पद , तदनन्तर तारक ब्रह्मा ( हुं ) का उच्चारण कर दोनों बाहु में न्यास करें। यहाँ तक कवचन्यास के अक्षर समूह को कहा गया ॥६९ - ७१॥

विमर्श --- यथा --- ऐं कुल वागीश्वरि कवचाय हुँ ।

इसके बाद नेत्रत्रय में महाप्रभा वाले रक्त वर्ण के करोड़ों जवा मण्डल मण्डित महाबीज का जो करोड़ों सूर्य में विराजित है उसका ध्यान कर वाग्भव ( ऐं ) का उच्चारण कर फिर ’ कुलेश्वरि ’ पद फिर नेत्रत्रयाय वौषट् ’ का उच्चारण कर नेत्रत्रय का न्यास करे ॥७२ - ७४॥

विमर्श --- यथा --- ऐं कुलेश्वरि नेत्रत्रयाय वौषट् ।

फिर मन्त्रज्ञ साधक बायें हाथ पर दाहिने हाथ की मध्यमा और तर्जनी अंगुलियों से करोड़ों सूर्य की किरण समूहों के समान प्रभा वाले महाकाश में उत्पन्न महानग्र शब्द का ध्यान क्रा प्रथम माया बीज ( हीं ) फिर ’ अस्त्राय ’ पद . फिर पान्त ठान्त वर्ण ( फट् ‍ ) महामन्त्र कर उच्चारण दो ताली देवे ॥७४ - ७६॥

विमर्श --- यथा --- हीं अस्त्राया फट् ‍ ।

इसके बाद कुमारी के ह्रदयाकाश में परिवार का ध्यान कर मन्त्रज्ञ यत्नपूर्वक ध्यान कर भेषजरुप अमृत धारा से उनका पूजन करे । तदनन्तर बटुक भैरव का पूजन कर उनका तर्पण करे ॥७७ - ७८॥

क्रमशः देवताओं के साथ परिवा का पूजन कर , तदनन्तर वाग्भव ( ऐं ), फिर सिद्धजयाय ’ पद , फिर ’ पूर्व ’ पद , फिर ’ वक्त्राय नमः ’ से पूर्व मुख , इसके बाद वाग्भव ( ऐं ) उच्चारण कर ’ जयाय ’ शब्द , फिर चतुर्थ्यन्त उत्तरवक्त्र ( उत्तरवक्त्राय ), फिर नमः पद का उच्चारण कर उत्तर मुख का पूजन करे ॥७९ - ८१॥

विमर्श --- पूर्वमुख के लिए मन्त्र है - ऐं सिद्धजायाय पूर्ववक्त्राय नमः ’ । उत्तरमुख के लिए मन्त्र है - ’ ऐं जयाय उत्तरवक्त्राय नमः ’ ।

फिर वाग्भव ( ऐं ), माया ( हीं ) और श्रीबीज ( श्रीं ) का यत्नपूर्वक उच्चारण करे । कुब्जिके पश्चिम - वक्त्राय नमः ’ से पश्चिम वक्त्र पूजन करे । तदनन्तर बाग्भव ( ऐं ) का उच्चारण कर ’ कालिके ’ पद का उच्चारण कर ’ दक्षवक्त्राय ’ शब्द के अन्त में ’ नमः ’ शब्द का उचारण करे ॥८१ - ८२॥

विमर्श --- पश्चिममुख के लिए मन्त्र है -’ ऐं हीं श्रीं कुब्जिके पश्चिमवक्त्राय नमः ’ । दक्षिणमुख के लिए मन्त्र है - ऐं कालिके दक्षवक्त्राय नमः ’ ।

हे नाथ ! यहाँ तक हमने कुमारी मन्त्रों को कहा । हे कुलेश्वर ! इन मन्त्राक्षरों का उच्चारण कर उन उन मुखों का पूजन करे । फिर भास्कर , चन्द्रमा , दिक्पाल एवं सन्ध्यादि का पूजन करे ॥८३ - ८४॥

फिर वीरभद्रा , महाकाली , कुल में गमन करने वाली कौलिनी , अष्टादशभुजा काली तथा चतुर्वर्गा देवी का पूजन करे ॥८५॥

अनेक प्रकार के भोज्यान्न से युक्त नैवेद्य आदि जैसे दूध , दही , पक्वान्न , पके हुये उत्तमोत्तम फल , तत्तत्कालों में उपयोग योग्य फल , शर्करा , मधुमिश्रित पञ्चतत्त्व ( पञ्चामृत ), अपना कल्याण बढा़ने वाला कुलद्रव्य और अनेक प्रकार के नानाविध नैवेद्य निवेदित करे । फिर अनेक प्रकार के सुगन्ध से मिश्रित शीतल जल लाकर बुद्धिमान् ‍ साधक उन कन्याओं को प्रदान करे ॥८६ - ८८॥

इसके बाद अपना हित करने वाला अत्यन्त दुर्लभ कुमारी का महामन्त्र अथवा अपने इष्टदेवता का मन्त्र जपने से साधक सभी सिद्धियों का ईश्वर बन जाता है । यदि प्राण वायु के धारण करने में समर्थ हो तो प्राणायाम करे । अन्त में निम्नलिखित कुमारी स्तोत्र का पाठ कर साष्टाङ्र प्रणाम करे ॥८९ - ९१॥

परम भाग्य को देने वाली कुल कामिनी को नमस्कार करता हूँ । कुमार साधकों के लिए आनन्द प्रदान करने वाली , समस्त सिद्धियों को देने वाली , आनन्द स्वरुपिणी कुमारी को नमस्कार करता हूँ ॥९२॥

ध्यान - मूँगा की गुटिका के समानद अत्यन्त स्वच्छ स्वरूप वाली स्वर्णमय परिधान से अलंकृत हीरे का आभूषण धारण करने वाली भुवनेश्वरी स्वरुपा कुमारी की मैं सेवा करता हूँ ॥९३॥

इस मन्त्र से न्यास कर तारिणी स्वरुपा कुमारी का पूजन करे । फिर साधकोत्तम शिव गणेश का पूजन कर उन्हें भी प्रणाम करे ॥९४॥

श्रीगायत्री-मन्त्र से रोग-ग्रह-शान्ति

श्रीगायत्री-मन्त्र से रोग-ग्रह-शान्ति
१॰ क्रूर से क्रूर ग्रह-शान्ति में, शमी-वृक्ष की लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े कर, गूलर-पाकर-पीपर-बरगद की समिधा के साथ ‘गायत्री-मन्त्र से १०८ आहुतियाँ देने से शान्ति मिलती है।

२॰ महान प्राण-संकट में कण्ठ-भर या जाँघ-भर जल में खड़े होकर नित्य १०८ बार गायत्री मन्त्र जपने से प्राण-रक्षा होती है।

३॰ घर के आँगन में चतुस्र यन्त्र बनाकर १ हजार बार गायत्री मन्त्र का जप कर यन्त्र के बीचो-बीच भूमि में शूल गाड़ने से भूत-पिशाच से रक्षा होती है।

४॰ शनिवार को पीपल के वृक्ष के नीचे गायत्री मन्त्र जपने से सभी प्रकार की ग्रह-बाधा से रक्षा होती है।

५॰ ‘गुरुचि’ के छोटे-छोटे टुकड़े कर गो-दुग्ध में डुबोकर नित्य १०८ बार गायत्री मन्त्र पढ़कर हवन करने से ‘मृत्यु-योग’ का निवारण होता है। यह मृत्युंजय-हवन’ है।

६॰ आम के पत्तों को गो-दुग्ध में डुबोकर ‘हवन’ करने से सभी प्रकार के ज्वर में लाभ होता है।

७॰ मीठा वच, गो-दुग्ध में मिलाकर हवन करने से ‘राज-रोग’ नष्ट होता है।

८॰ शंख-पुष्पी के पुष्पों से हवन करने से कुष्ठ-रोग का निवारण होता है।

९॰ गूलर की लकड़ी और फल से नित्य १०८ बार हवन करने से ‘उन्माद-रोग’ का निवारण होता है।

१०॰ ईख के रस में मधु मिलाकर हवन करने से ‘मधुमेह-रोग’ में लाभ होता है।

११॰ गाय के दही, दूध व घी से हवन करने से ‘बवासीर-रोग’ में लाभ होता है।

१२॰ बेंत की लकड़ी से हवन करने से विद्युत्पात और राष्ट्र-विप्लव की बाधाएँ दुर होती हैं।

१३॰ कुछ दिन नित्य १०८ बार गायत्री मन्त्र जपने के बाद जिस तरफ मिट्टी का ढेला फेंका जाएगा, उस तरफ से शत्रु, वायु, अग्नि-दोष दूर हो जाएगा।

१४॰ दुःखी होकर, आर्त्त भाव से मन्त्र जप कर कुशा पर फूँक मार कर शरीर का स्पर्श करने से सभी प्रकार के रोग, विष, भूत-भय नष्ट हो जाते हैं।

१५॰ १०८ बार गायत्री मन्त्र का जप कर जल का फूँक लगाने से भूतादि-दोष दूर होता है।

१६॰ गायत्री जपते हुए फूल का हवन करने से सर्व-सुख-प्राप्ति होती है।

१७॰ लाल कमल या चमेली फुल एवं शालि चावल से हवन करने से लक्ष्मी-प्राप्ति होती है।

१८॰ बिल्व -पुष्प, फल, घी, खीर की हवन-सामग्री बनाकर बेल के छोटे-छोटे टुकड़े कर, बिल्व की लकड़ी से हवन करने से भी लक्ष्मी-प्राप्ति होती है।

१९॰ शमी की लकड़ी में गो-घृत, जौ, गो-दुग्ध मिलाकर १०८ बार एक सप्ताह तक हवन करने से अकाल-मृत्यु योग दूर होता है।

२०॰ दूध-मधु-गाय के घी से ७ दिन तक १०८ बार हवन करने से अकाल-मृत्यु योग दूर होता है।

२१॰ बरगद की समिधा में बरगद की हरी टहनी पर गो-घृत, गो-दुग्ध से बनी खीर रखकर ७ दिन तक १०८ बार हवन करने से अकाल-मृत्यु योग दूर होता है।

२२॰ दिन-रात उपवास करते गुए गायत्री मन्त्र जप से यम पाश से मुक्ति मिलती है।

२३॰ मदार की लकड़ी में मदार का कोमल पत्र व गो-घृत मिलाकर हवन करने से विजय-प्राप्ति होती है।

२४॰ अपामार्ग, गाय का घी मिलाकर हवन करने से दमा रोग का निवारण होता है।

विशेषः- प्रयोग करने से पहले कुछ दिन नित्य १००८ या १०८ बार गायत्री मन्त्र का जप व हवन करना चाहिए।

Tuesday 17 August 2021

सनातन धर्म में श्री गणेश को आदि पंच देवों मेंं से एक देव और प्रथम पूज्य देव माना गया है।

ऊँ श्री गणेशाय नमः-
सनातन धर्म में श्री गणेश को आदि पंच देवों मेंं से एक देव और प्रथम पूज्य देव माना गया है। वहीं सप्ताह में इनका दिन बुधवार माना जाता है। दरअसल गजानन गणपति का ध्यान आते ही मन में स्वत: ही ऐसा अनुभव होने लगता है कि समस्त संकटों का नाश होने वाला है।
यूं तो भगवान शिव की तरह ही श्री गणेश जी भी बड़ी ही आसानी से प्रसन्न हो जाते हैं परन्तु कुछ मंत्र और तंत्र प्रयोग इस प्रक्रिया में बड़े चमत्कारी सिद्ध होते हैं और चुटकी बजाते अपना असर दिखाने लगते हैं। ऐसा ही एक मंत्र गणपति गायत्री मंत्र जिसे बहुत ही बड़े संकट के समय प्रयोग किया जाता है।
गणेश गायत्री मंत्र : ऐसे समझें
यह वास्तव में गायत्री मंत्र में ही गणेश जी के मंत्रों को जोड़कर बना हुआ है। आम तौर पर इसका प्रयोग किसी बड़े अनुष्ठान के समय ही किया जाता है अथवा तांत्रिक बड़ी विलक्षण सिद्धियां पाने की इच्छा से इस मंत्र का प्रयोग करते हैं।
इस मंत्र का प्रयोग बहुत ही साधारण है परन्तु इसे करते समय कुछ खास बातों का ध्यान रखना होता है, जिनकी पालना न करने पर यह लाभ के स्थान पर हानि भी दे सकता है। गणेश गायत्री मंत्र इस प्रकार है...
एकदंताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात्।।
महाकर्णाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात्।।
गजाननाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात्।।
ऐसे करें इस मंत्र का पाठ...
सुबह सूर्योदय से पूर्व जाग कर स्नान-ध्यान आदि से निवृत्त हो कर नए स्वच्छ वस्त्र पहनें। वस्त्र पीले या गेरुएं रंग के होने चाहिए। इसके बाद घर के पूजा कक्ष अथवा किसी मंदिर में एक आसन पर बैठ कर गणेश जी का आह्वान करें।
उनकी पूजा करें तथा सिंदूर, दर्वा, गंध, अक्षत (चावल), सुगंधित फूल, जनेऊ, सुपारी, पान, फल, प्रसाद आदि अर्पित करें। इसके बाद उपरोक्त गणेश गायत्री मंत्र का 21 बार जप करें। कुछ ही दिनों में आपको इसका असर दिखाई देगा और आपके सभी कष्ट दूर हो जाएंगे।
मंत्र के प्रयोग में ये सावधानियां हैं आवश्यक...
इस मंत्र के प्रयोग में ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य है। साथ ही मांस, मदिरा, अंडे, नशा आदि से पूरी तरह से दूर रहना होगा, अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि हो सकती है।
साथ ही इस मंत्र का प्रयोग से कोई भी बुरी इच्छा पूरी करने के लिए नहीं किया जा सकता वरना स्वयं पर कोई बहुत बड़ा संकट आ सकता है। वहीं यदि आप पर कोई बड़ी विपत्ति आ जाए तो उसे टालने के लिए ही इस मंत्र के प्रयोग का सहारा लिया जा सकता है।

तंत्र मे वनस्पति यक्षिणियां साधना

वनस्पति यक्षिणियां
कुछ ऐसी यक्षिणियां भी होती हैं , जिनका वास किसी विशेष वनस्पति ( वृक्ष - पौधे ) पर होता है । उस वनस्पति का प्रयोग करते समय उस यक्षिणी का मंत्र जपने से विशेष लाभ प्राप्त होता है । वैसे भी वानस्पतिक यक्षिणी की साधना की जा सकती है । अन्य यक्षिणियों की भांति वे भी साधक की कामनाएं पूर्ण करती हैं ।

वानस्पतिक यक्षिणियों के मंत्र भी भिन्न हैं । कुछ बंदों के मंत्र भी प्राप्त होते हैं । इन यक्षिणियों की साधना में काल की प्रधानता है और स्थान का भी महत्त्व है ।

जिस ऋतु में जिस वनस्पति का विकास हो , वही ऋतु इनकी साधना में लेनी चाहिए । वसंत ऋतु को सर्वोत्तम माना गया है । दूसरा पक्ष श्रावण मास ( वर्षा ऋतु ) का है । स्थान की दृष्टि से एकांत अथवा सिद्धपीठ कामाख्या आदि उत्तम हैं । साधक को उक्त साध्य वनस्पति की छाया में निकट बैठकर उस यक्षिणी के दर्शन की उत्सुकता रखते हुए एक माह तक मंत्र - जप करने से सिद्धि प्राप्त होती हैं ।

साधना के पूर्व आषाढ़ की पूर्णिमा को क्षौरादि कर्म करके शुभ मुहूर्त्त में बिल्वपत्र के नीचे बैठकर शिव की षोडशोपचार पूजा करें और पूरे श्रावण मास में इसी प्रकार पूजा - जप के साथ प्रतिदिन कुबेर की पूजा करके निम्नलिखित कुबेर मंत्र का एक सौ आठ बार जप करें -

'' ॐ यक्षराज नमस्तुभ्यं शंकर प्रिय बांधव ।

एकां मे वशगां नित्यं यक्षिणी कुरु ते नमः ॥

इसके पश्चात् अभीष्ट यक्षिणी के मंत्र का जप करें । ब्रह्मचर्य और हविष्यान्न भक्षण आदि नियमों का पालन आवश्यक है । प्रतिदिन कुमारी - पूजन करें और जप के समय बलि नैवेद्य पास रखें । जब यक्षिणी मांगे , तब वह अर्पित करें । वर मांगने की कहने पर यथोचित वर मांगें । द्रव्य - प्राप्त होने पर उसे शुभ कार्य में भी व्यय करें ।

यह विषय अति रहस्यमय है । सबकी बलि सामग्री , जप - संख्या , जप - माला आदि भिन्न - भिन्न हैं । अतः साधक किसी योग्य गुरु की देख - रेख में पूरी विधि जानकर सधना करें , क्योंकि यक्षिणी देवियां अनेक रुप में दर्शन देती हैं उससे भय भी होता है । वानस्पतिक यक्षिणियों के वर्ग में प्रमुख नाम और उनके मंत्र इस प्रकार हैं -

बिल्व यक्षिणी - ॐ क्ली ह्रीं ऐं ॐ श्रीं महायक्षिण्यै सर्वेश्वर्यप्रदात्र्यै ॐ नमः श्रीं क्लीं ऐ आं स्वाहा ।

इस यक्षिणी की साधना से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ।

निर्गुण्डी यक्षिणी - ॐ ऐं सरस्वत्यै नमः ।

इस यक्षिणी की साधना से विद्या - लाभ होता है ।

अर्क यक्षिणी - ॐ ऐं महायक्षिण्यै सर्वकार्यसाधनं कुरु कुरु स्वाहा ।

सर्वकार्य साधन के निमित्त इस यक्षिणी की साधना करनी चाहिए ।

श्वेतगुंजा यक्षिणी - ॐ जगन्मात्रे नमः ।

इस यक्षिणी की साधना से अत्याधिक संतोष की प्राप्ति होती है ।

तुलसी यक्षिणी - ॐ क्लीं क्लीं नमः ।

राजसुख की प्राप्ति के लिए इस यक्षिणी की साधना की जाती है ।

कुश यक्षिणी - ॐ वाड्मयायै नमः ।

वाकसिद्धि हेतु इस यक्षिणी की साधना करें ।

पिप्पल यक्षिणी - ॐ ऐं क्लीं मे धनं कुरु कुरु स्वाहा ।

इस यक्षिणी की साधना से पुत्रादि की प्राप्ति होती है । जिनके कोई पुत्र न हो , उन्हें इस यक्षिणी की साधना करनी चाहिए ।

उदुम्बर यक्षिणी - ॐ ह्रीं श्रीं शारदायै नमः ।

विद्या की प्राप्ति के निमित्त इस यक्षिणी की साधना करें ।

अपामार्ग यक्षिणी - ॐ ह्रीं भारत्यै नमः ।

इस यक्षिणी की साधना करने से परम ज्ञान की प्राप्ति होती है ।

धात्री यक्षिणी - ऐं क्लीं नमः ।

इस यक्षिणी के मंत्र - जप और करने से साधना से जीवन की सभी अशुभताओं का निवारण हो जाता है ।

सहदेई यक्षिणी - ॐ नमो भगवति सहदेई सदबलदायिनी सदेववत् कुरु कुरु स्वाहा ।

इस यक्षिणी की साधना से धन - संपत्ति की प्राप्ति होती है । पहले के धन की वृद्धि होती है तथा मान - सम्मान आदि इस यक्षिणी की कृपा से सहज ही प्राप्त हो जाता है ।

बगलामुखी [ब्रह्मास्त्र विद्या ]महासाधना और प्रभाव


बगलामुखी [ब्रह्मास्त्र विद्या ]महासाधना और प्रभाव 
महाविद्या श्री बगलामुखी दश महाविद्या के अंतर्गत श्री कुल की महाविद्या है ,जिनकी पूजा साधना से सर्वाभीष्ट की प्राप्ति होती है ,,ग्रह दोष ,शत्रु बाधा ,रोग-शोक-दुष्ट प्रभाव ,वायव्य बाधा से मुक्ति मिलती है ,सर्वत्र विजय ,सम्मान ,ऐश्वर्य प्राप्त होता है ,वाद-विवाद ,मुकदमे में विजय मिलती है ,अधिकारी वर्ग वशीभूत होता है ,सामने वाले का वाक् स्तम्भन होता है और साधक को वाक् सिद्धि प्राप्त होती है ,,इनकी साधना से लौकिक और अलौकिक फलो की प्राप्ति होती है ,,
...........महाविद्या श्री बगलामुखी की साधना दक्शिनाम्नाय अथवा उर्ध्वाम्नाय से होती है ,,दक्सिनाम्नाय में इनकी दो भुजाये मानी जाती है और मंत्र में ह्ल्रिम बीज का प्रयोग होता है ,,उर्ध्वाम्नाय में इनकी चार भुजाये मानी जाती है और इनका स्वरुप ब्रह्मास्त्र स्वरूपिणी बगला का हो जाता है ,इस स्वरुप में ह्रीं बीज का प्रयोग होता है ,,.
.........बगलामुखी साधना में इनके मंत्र का सवा लाख जप ,दशांश हवन ,तर्पण ,मार्जन ,ब्राह्मण भोजन का विधान है इनकी साधना में सभी वस्तुए पीली ही उपयोग में लाने का विधान है यथा पीले फुल ,फल ,वस्त्र ,मिष्ठान्न आदि ,जप हल्दी की माला पर किया जाता है ,,.
........साधना के प्रारंभ के लिए सर्वोत्तम मुहूर्त कृष्ण चतुर्दशी और मंगलवार का संयोग होता है ,,किन्तु कृष्ण चतुर्दशी ,नवरात्र ,चतुर्थी ,नवमी [शनि-मंगल-भद्रा योग ]अथवा किसी शुभ मुहूर्त में साधना प्रारंभ की जा सकती है ,,अपने सामर्थ्य के अनुसार १५,२१,अथवा ४१ दिन में साधना पूर्ण की जा सकती है ,मंत्र संख्या प्रतिदिन बराबर होनी चाहिए ,साधना में शुचिता ,शुद्धता ,ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है ,.
...
..ब्रह्मास्त्र स्वरूपिणी बगला का पूर्ण मंत्र
""ओउम ह्रीं बगलामुखी सर्वदुष्ट|नाम वाचं मुखम पदम स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धि विनाशय ह्रीं ओउम स्वाहा ""
होता है ..
......जिस दिन साधना प्रारंभ करे सर्वप्रथम स्नानादि से निवृत्त हो आचमन-प्राणायाम -पवित्री करण के बाद बगलामुखी देवी का चित्र स्थापित करे ,एक २ फीट लंबे-चौड़े लकड़ी के तख्ते या चौकी पर पीला कपडा बिछाकर उस पर रंगे हुए पीले चावलों से बगलामुखी यन्त्र बनाए |बगलामुखी यन्त्र के सामने पीले गंधक की सात ढेरिया बनाकर प्रत्येक पर दो दो लौंग रखे ,,अब गणेश-
गौरी,नवग्रह,कलश,अर्ध्यपात्र स्थापित करे ,,शान्ति पाठ, संकल्प के बाद एक अखंड दीप [जो संकल्पित दिनों तक जलता रहेगा ]देवी के सामने रखे ,चौकी पर बने यन्त्र के सामने ताम्र-स्वर्ण या रजत पत्र पर बना बगलामुखी यंत्र स्थापित करे ,,अब भोजपत्र पर अपनी आवश्यकतानुसार अष्टगंध से कनेर की कलम से बगला यंत्र बनाकर चौकी पर रखे ,इसके बाद न्यासादीकर गुरु यंत्र , कलश,नवग्रह ,देवी पूजन ,यंत्रो की प्राण प्रतिष्ठा ,यंत्र पूजन ,आदि करे ,,इस प्रक्रिया में किसी जानकार की मदद ले सकते है किन्तु जप आप स्वयं करेगे
,,,पूजनोपरांत जप हल्दी की माला पर निश्चित संख्या में निश्चित दिनों तक होगा ,प्रतिदिन के पूजन में आप पंचोपचार या दशोपचार पूजन अपनी सामर्थ्य के अनुसार कर सकते है ,,प्रतिदिन जप के बाद दशांश जप महामृत्युंजय का करे ,जप रात्री में करे ,प्रथम दिन पूजन षोडशोपचार करे ,,निश्चित दिनों और संख्या तक जप होने पर हवंन प्रक्रिया पूर्ण करे ,हवन के बाद तर्पण-मार्जा-ब्राह्मण भोजन या दान करे,धातु यन्त्र को पूजा स्थान पर स्थापित कर भोजपत्र यंत्र को ताबीज में भर ले ,,अब साधना में त्रुटी के लिए क्षमा माँगते हुए विसर्जन करे ..अब आपकी साधना पूर्ण होती है ,,,कलाशादी को हटाकर शेष सामग्री बहते जल में प्रवाहित कर दे ,,..
.....अतिरिक्त भोजपत्र यंत्रो को ताबीज में भरकर आप जिसे भी प्रदान करेगे उसे बगला कृपा प्राप्त होगी ,उसके काम बनने लगेगे ,विजय -सफलता बढ़ जायेगी ,ग्रह दोष -दुष्प्रभाव समाप्त होगे ,,वायव्य बाधा से मुक्ति,मुकदमे में विजय,शत्रु-विरोधी की पराजय ,अधिकारी वर्ग का समर्थन ,विरोधी का वाक् स्तम्भन होगा ,ऐश्वर्य वृद्धि होगी ,सभी दोष समाप्त हो सुखी होगा, उसका कल्याण होगा ,,आपको उपरोक्त परिणाम स्वयमेव प्राप्त होगे ,,,,,,आप भविष्य में किसी शुभ मुहूर्त में बगला यंत्र भोजपत्र पर बनाकर पूजन कर २१०० जपादि कर ताबीज में भर जिसे भी प्रदान करेगे ,देवी कृपा उसको उपरोक्त फल प्राप्त होगे ,उसका कल्याण होगा ।
ओं रां रामाय नम:
श्री राम ज्योतिष सदन 
भारतीय वैदिक ज्योतिष एवं मंत्र यंत्र तंत्र परामर्शदाता 
दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा मोबाइल नंबर 97 6092 4411 यही हमारा WhatsApp नंबर भी है।
मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश

श्री भैरव स्वरूप

भैरव स्वरुप
इस जगत में सबसे ज्यादा जीव पर करूणा शिव करते है और शक्ति तो सनातनी माँ है इन दोनो में भेद नहीं है कारण दोनों माता पिता है,इस लिए करूणा,दया जो इनका स्वभाव है वह भैरव जी में विद्यमान है।सृष्टि में आसुरी शक्तियां बहुत उपद्रव करती है,उसमें भी अगर कोई विशेष साधना और भक्ति मार्ग पर चलता हो तो ये कई एक साथ साधक को कष्ट पहुँचाते है,इसलिए अगर भैरव कृपा हो जाए तो सभी आसुरी शक्ति को भैरव बाबा मार भगाते है,इसलिये ये साक्षात रक्षक है।
काल भैरव....(वाराणसी)
भूत बाधा हो या ग्रह बाधा,शत्रु भय हो रोग बाधा सभी को दूर कर भैरव कृपा प्रदान करते है।अष्ट भैरव प्रसिद्ध है परन्तु भैरव के कई अनेको रूप है सभी का महत्व है परन्तु बटुक सबसे प्यारे है।नित्य इनका ध्यान पूजन किया जाय तो सभी काम बन जाते है,जरूरत है हमें पूर्ण श्रद्धा से उन्हें पुकारने की,वे छोटे भोले शिव है ,दौड़ पड़ते है भक्त के रक्षा और कल्याण के लिए।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
पंडित आशु बहुगुणा 
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जो माता बहन समस्त प्रयत्नो के पश्चात भी संतानसुख से वंचित है उनके लिए "संतान प्राप्ति गणपति स्तोत्र" बहुतही लाभदायक है।

जो माता बहन समस्त प्रयत्नो के पश्चात भी संतान
सुख से वंचित है उनके लिए "संतान प्राप्ति गणपति स्तोत्र" बहुत
ही लाभदायक है। नि:संतान दंपति इसे अवश्य
आजमाये और श्री गणेशजी का आशिर्वाद
प्राप्त करे. आशा करते है की भगवान
श्री गणेशजी नि:संतान दंपति
की इच्छा पूर्ण करेगे.
स्तोत्र के अनुष्ठान की विधि:
- हर रोज प्रात: स्नान आदि से निवृत होकर गणेश
की प्रतिमा या तस्वीर के सामने पूर्व या
उत्तर की तरफ़ मुख रखकर स्वच्छ आसन पर बैठ
जाये. तत पश्चात गणेशजी का पंचोपचार विधि (चंदन,
पुष्प, धूप-दीप और नैवेध) द्वारा पूजन करे.फ़िर इस
स्तोत्र का ह्रदय से अनुष्ठान करे.
संतान प्राप्ति गणपति स्तोत्र :
" नमोस्तु गणनाथाय सिद्धिबुद्धि युताय च !
सर्व प्रदाय देवाय पुत्र वृद्धि प्रदाय च !!१!!
गुरुदराय गुरुवे गोप्त्त्रे गुह्या सिताय ते !
गोप्याय गोपिता शेष भुवनाथ चिदात्मने !!२!!
विश्वमूलाय भव्याय विश्वसृष्टि कराय ते !
नमो नमस्ते सत्याय सत्यपूर्णायशुन्डिने !!३!!
एक दन्ताय शुद्धाय सुमुबाय नमो नम: !
प्रपन्न जन पालाय प्रणातार्ति विनाशने !!४!!
शरणं भय देवेश सन्तति सुद्रढां कुरु !
भविष्यन्ति च ये पुत्रा मत्कुले गणनायक !!५!!
ते सर्वे तव पूजार्थ निरता: स्युर्वरोमत: !
पुत्र प्रदमिंद स्तोत्रं सर्व सिद्धि प्रदायकम !!६!! "
उपर्युक्त 'संतान प्राप्ति गणपति स्तोत्र' का भक्तिपूर्वक नित्य
पाठ करने से संतान प्राप्ति होती है पति-पत्नि को साथ
बैठकर इस स्तोत्र का प्रतिदिन अनुष्ठान करना चाहिये अथवा इस
स्तोत्र का प्रार्थना के रुप में भी पाठ किया जाये तो
भी फ़लदायी सिद्ध होगा।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
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श्रीगणेश जी मंत्र प्रयोग


श्री गणेश को सभी देवताओं में सबसे पहले प्रसन्न किया जाता है. श्री गणेश विध्न विनाशक है. श्री गणेश जी बुद्धि के देवता है, इनका उपवास रखने से मनोकामना की पूर्ति के साथ साथ बुद्धि का विकास व कार्यों में सिद्धि प्राप्त होती है. श्री गणेश को भोग में लडडू सबसे अधिक प्रिय है. इस चतुर्थी उपवास को करने वाले जन को चन्द्र दर्शन से बचना चाहिए।
ॐ ग्लां ग्लीं ग्लूं गं गणपतये नम : सिद्धिं मे देहि बुद्धिं
प्रकाशय ग्लूं गलीं ग्लां फट् स्वाहा||
विधि :- —-
इस मंत्र का जप करने वाला साधक सफेद वस्त्र धारण कर सफेद रंग के आसन पर बैठकर पूर्ववत् नियम का पालन करते हुए इस मंत्र का सात हजार जप करे| जप के समय दूब, चावल, सफेद चन्दन सूजी का लड्डू आदि रखे तथा जप काल में कपूर की धूप जलाये तो यह मंत्र ,सर्व मंत्रों को सिद्ध करने की ताकत (Power, शक्ति) प्रदान करता है|
ॐ रां रामाय नमः
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महाकाल तंत्र उद्धृत चतुर्भुज तीव्र महाकाल साधना

जय शिव शंकर शम्भू
महाकाल तंत्र उद्धृत चतुर्भुज तीव्र महाकाल साधना

गोपनीय तंत्र ग्रंथो मे महाकाल तंत्र का नाम प्रसिद्द है. ५० पटलो मे यह ग्रन्थ अपने आप मे अद्भुत है. जिसमे मुख्य रूप से महाकाल से सबंधित साधनाए, देवी साधनाए तथा तंत्र चिकित्सा के ऊपर लिखा गया है. यह ग्रन्थ मे निहित ज्यदातर साधनाए बौद्ध वज्रयान पद्धति पर ही आधारित है. मूल रूप से देखा जाए तो यह पद्धति भारतीय वाममार्ग पद्धति पर आधारित है. लेकिन समयानुसार इसमें परिवर्तन होता गया जो की तिब्बती लामाओ की शोध तथा अनुभवगम्य रहा होगा. भगवान महाकाल जिस प्रकार भारतीय साधना पद्धति मे एक उग्र देव के रूप मे प्रचलित है ठीक उसी प्रकार तिब्बती वज्रयानी साधना मे भी उनका स्थान उतना ही महत्वपूर्ण रहा है. वज्रयान मे महाकाल से सबंधित मंडल को ब्स्कांगग्सो कहा जाता है जिसमे कई उपासक एक साथ महाकाल की साधना मे प्रवृत होते है. लेकिन इस ग्रन्थ मे मंत्र तिब्बती भाषा मे न हो कर संस्कृत मे दिये है जो की इसका मूल आधार भारतीय पद्दति को ही दर्शाता है. खैर, भगवान महाकाल नित्यकल्याणमय है. महाकाल आदि शिव का ही रूप है

और अघोर पंथ मे महाकाल का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है. उग्र देवता की श्रेणी मे होने से इनकी साधनाए महत्तम तीक्ष्ण ही होती है. इस ग्रन्थ मे महाकाल के विविध मंत्रो को दिया गया है. जिसमे से एक रूप हे चतुर्भुज रूप. भगवान महाकाल स्मशानाधिस्थ बेठे है जिनकी चार भुजाए है. यह साधना मूल रूप से साधक मे आत्मिक शक्ति का विकास करती है तथा साधक मे साधना के विषयक मुख्य गुणों का विकास कराती है. जेसे की निर्भयता एवं एकाग्रता. इस चतुर्भुज महाकाल मंत्र को साधक सोमवार की रात्री मे ११.३० के बाद जपना शुरू करे. इससे पहले भगवान महाकाल का चित्र अपने सामने स्थापित करे और पूजन करे. उसके बाद रुद्राक्ष माला से निम्न चतुर्भुज महाकाल मंत्र का २१ माला जाप करे. यह क्रम अगले सोमवार तक जारी रहे. वस्त्र तथा आसान काले रंग का हो. दिशा उत्तर रहे.

ॐ ह्रीं ह्रीं हूं फट स्वाहा

इस मंत्र के प्रभाव से साधक को शरीर मे तापमान बढ़ता हुआ लग सकता है लेकिन चिंता की कोई बात नहीं है, इस साधना मे यह सफलता का ही एक लक्षण है।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
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सर्व सिद्धि प्रदायक प्रत्यक्ष दुर्गा सिद्धि प्रयोग


सर्व सिद्धि प्रदायक प्रत्यक्ष दुर्गा सिद्धि प्रयोग     

यह प्रयोग किसी भी दिन सम्पन्न किया जा सकता है । दुर्गा पूजा के लिए किसी भी प्रकार के मुहूर्त की आवश्यकता नहीँ रहती । 

देवी रहस्य तन्त्र के अनुसार-दुर्गा पूजा मेँ न तो कोई विशेष विधान है । न विध्न है और न कठिन आचार । प्रातः र्सूयोदय से र्पुव उठ कर साधक स्नान कर शुद्ध पीले वस्त्र धारण कर अपने पूजा स्थान को स्वच्छ करेँ । जल से धोकर स्थान शुद्धि और भूमि शुद्धि कर अपना आसन बिछाएं । आसन पर बैठ कर ध्यान करेँ और अपने चित को एकाग्र करेँ । कार्य सिद्धि साधना के संबंध मेँ पूरे विश्वाश के आधार पर कार्य करते हुए संकल्प लेँ ।  ..                                                          

   अपने सामने सिँह पर स्थित देवी का एक चित्र स्थापित करेँ और "श्री गणेशाय नमः" बोले फिर एक ओर घी का दीपक तथा दूसरी ओर धूप अगरबत्ती इत्यादि जयाएं ।

 अब बाएं हाथ मे जल लेकर दाएं हाथ से अपने मुख, शरीर इत्यादि पर छिडकते हुए निम्न मंत्रों के उच्चारण के साथ तत्व-न्यास सम्पन्न करते हुए, थोडा जल दोनो आखो मे लगा कर भूमि पर छोड देँ                                                 
ॐ आत्म तत्वाय नमः । ॐ ह्रीँ विद्या तत्वाय नमः । ॐ दुं शिव तत्वाय नमः । ॐ गुं गुरु तत्वाय नमः । ॐ ह्रीं शक्ति तत्वाय नमः । ॐ श्रीँ शक्ति तत्वाय नमः ।  

 सामने चौकी पर पीला वस्त्र बिछा कर उस पर पुष्प की पंखुडियोँ का आसन बनाएं तथा दुर्गा यंत्र को दुग्ध धारा से फिर जल धारा से धोकर साफ कपडे से पोछ कर ॥                                                             

ॐ ह्रीँ वज्रनख दंष्ट्रायुधाय महासिँहाय फट् ॥                                            

इस मंत्र का उच्चारण करते हुए दुर्गा यंत्र को पुष्प के आसन पर स्थापित कर अबीर, गुलाल, कुंकुंम, केशर, मौली, सिंन्दूर अर्पित करेँ । 

इसके  पश्चात् एक पुष्प माला देवी के चित्र पर चढाए तथा दूसरी माला इस देवी यंत्र के सामने रख देँ 
 अब दुर्गा की शक्तियो का पूजन कार्य सम्पन्न करेँ, सामने दुर्गा यंत्र के आगे 9 गोमती चक्र स्थापित करेँ । (गोमती चक्र के आभाव मे यंत्र पे ही) प्रत्येक चक्र के नीचे पुष्प की एक एक पंखुडी रखे तथा चावल को कुंकुंम से रंग कर मंत्र जप करते हुए इन 9 शक्तियो का जप करेँ ।                              
 
ॐ प्रभायै नमः । ॐ जयायै नमः । ॐ विशुद्धाय नमः । ॐ सुप्रभायै नमः  ॐ मायायै नमः । ॐ सूक्ष्मायै नमः । ॐ नन्दिन्यै नमः । ॐ विजयायै नमः । ॐ र्सव सिद्धिदायै नमः ।                                                        
अब गणेश पूजन कर देवी का पूजन सम्पन्न करेँ ।                                     

अपने हाथ मे धूप लेकर 21 बार धूप करेँ ।                                               

फिर दुर्गा अष्टाक्षर मंत्र का जप प्रारम्भ करेँ ।                                        

॥ ॐ ह्रीँ दुं दुर्गायै नमः ॥
   शारदा तिलक तंत्र शास्त्र
मे लिखा है कि शान्त ह्रदय से चित्त मे शान्ति तथा एकाग्रता रखते हुए साधक इस मंत्र की रोज 51 माला का जप 121 दिन उसी स्थान पर बैठ कर करेँ तो उसे साक्षात स्वरुप मेँ प्रगट होकर माँ अष्ट सिद्धि वरदान देती है । साधक को जो वर प्राप्त होता है, उस से साधक भैरव के समान हो जाता है । उसे अभय का वह स्वरुप प्राप्त हो जाता है कि उसके मन से भय पूण रुप से समाप्त हो जाता है । शरीर की व्याधियो का निवारण तथा दीर्धायु प्राप्ति के लिए भी यही र्सवश्रेष्ठ विधान है । प्रतिदिन पूजा के पश्चात साधक देवी की आरती तथा ताम्रपात्र मे जल को आचमनी मे लेकर ग्रहण करेँ तो उसके भीतर शक्ति का प्रादुर्भाव होता है ।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
पंडित आशु बहुगुणा 
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मुजफ्फरनगर UP

श्री गणपति देव प्रयोग


हिन्दू धर्मशास्त्रों में सुखी जीवन, दीर्घायु और धन सुख के लिए ही बुद्धिदाता श्री गणेश व मां लक्ष्मी की उपासना का महत्व है। इन खास पदार्थो की मूर्तियां अपार धनलाभ देने वाली मानी गई है।
हरिद्रा गणपति - हल्दी से बनी गणेश मूर्ति बहुत ही मंगलकारी मानी गई है। खासतौर पर इसे लक्ष्मी का रूप माना गया है। पुराणों के मुताबिक धनलक्ष्मी देने वाली सोने की गणेश प्रतिमा न होने पर उसकी जगह हल्दी से बनी गणेश प्रतिमा की पूजा का महत्व बताया गया है।
श्वेतार्क गणेश - सफेद आंकडे की जड़ में बनी गणेश की प्रतिमा अपार सुख-सौभाग्य देने वाली ही नहीं चमत्कारी रूप से मनचाहे फल देने वाली भी मानी गई है। रविवार या पुष्य नक्षत्र में मिली अंगूठे के आकार की इस गणेश मूर्ति की पूजा लक्ष्मी की प्रसन्नता के लिये बहुत ही शुभ है।
गोमय गणेश मूर्ति - हिन्दू धर्म परंपराओं में गो मातृशक्ति और पवित्र मानी गई है। यहां तक कि गाय के गोबर यानी गोमय में लक्ष्मी का वास माना गया है। यही कारण है कि गोमय से बनी गणेश मूर्ति की पूजा घर में अपार धन लाभ देने वाली मानी गई है।
काष्ठ या लकड़ी के गणेश - हिन्दू धर्म में अनेक पेड़-पौधे पूजनीय और पवित्र माने गए हैं। इसलिए प्राकृतिक रूप में लकड़ी धार्मिक दृष्टि से भी बहुत पवित्र मानी गई है। पवित्रता में ही लक्ष्मी का वास माना गया है। इसी कारण धार्मिक मान्यताओं में काष्ठ यानी लकड़ी से बने भगवान गणेश की मूर्ति को घर के बाहरी दरवाजे के ऊपरी हिस्से में स्थापित कर पूजने पर घर में मंगल होने के साथ ही श्री यानी लक्ष्मी का वास बना रहता है।

तंत्र मे छिन्नमस्ताद्वादशनामस्तोत्रम् प्रयोग

छिन्नमस्ताद्वादशनामस्तोत्रम् 
              ।। ॐ हूं ॐ ।।
छिन्नग्रीवा छिन्नमस्ता छिन्नमुण्डधराऽक्षता ।
क्षोदक्षेमकरी स्वक्षा क्षोणीशाच्छादनक्षमा ॥ १॥
वैरोचनी वरारोहा बलिदानप्रहर्षिता ।
बलिपूजितपादाब्जा वासुदेवप्रपूजिता ॥ २॥
इति द्वादशनामानि छिन्नमस्ताप्रियाणि यः ।
स्मरेत्प्रातः समुत्थाय तस्य नश्यन्ति शत्रवः ॥ ३॥
इति छिन्नमस्ताद्वादशनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
अर्थात् - 
१) छिन्नग्रीवा - जिन्होंने अपने भक्तों के लिए अपना कंठ काट लिया है।
२) छिन्नमस्ता - जिन्होंने अपने भक्तों के लिए अपना मस्तक काट लिया है, अर्थात् अपना जीवन ही भक्तों के निमित्त अर्पित कर दिया है।
३) छिन्नमुण्डधरा - जो अपना मस्तक काटकर अपने बाएं हाथ मे धारण करती हैं।
४) अक्षता - जो पूर्ण है, जिनका कभी पराभव नही होता, जो सम्पूर्ण हैं। 
५) क्षोदक्षेमकरी - उपद्रव शांत करने में प्रवीण ।
६) स्वक्षा - सुंदर नेत्रो वाली।
७) क्षोणीशाच्छादनक्षमा - राजाओं का पालन-रक्षण करने वाली । 
८) वैरोचनी - इंद्र की पत्नी ( भगवान शंकर को उपनिषद में इंद्र कहा गया है अतः शंकर पत्नी भावार्थ लगायें)
९) वरारोहा - अत्यंत सुंदर वपु वाली 
१०) बलिदान प्रहर्षिता - भक्तो द्वारा अर्पित विभिन्न पूजन सामग्रियों, फल, मिष्ठान्न, नारियल, फूल आदि से प्रसन्न होने वाली।
११) बलिपूजितपादाब्जा - जिनके चरण कमलों में विभिन्न पदार्थ अर्पित किए जाते हैं या इन उत्तम।पदार्थों से पूजित चरण कमल वाली (फल, फूल, मिष्ठान्न, मेवा, रत्न, स्वर्ण आदि आदि) 
१२) वासुदेवप्रपूजिता - श्रीकृष्ण द्वारा पूजित व उपसित।
 जो भी साधक इन १२ नामो को प्रातःकाल उठते ही स्मरण करता है। उसके सभी शत्रुओं का नाश होता है। इन १२ नामो का निरंतर चिंतन करने वाले के सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
पंडित आशु बहुगुणा 
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तंत्र मे श्रीभैरवताण्डवस्तोत्रम्

श्रीभैरवताण्डवस्तोत्रम् 
श्रीगणेशाय नमः ।
श्रीउमामहेश्वराभ्यां नमः ।
श्रीगुरवे नमः ।
श्रीभैरवाय नमः ॥
अथ श्रीभैरवताण्डवस्तोत्रम् ।
ॐ चण्डं प्रतिचण्डं करधृतदण्डं कृतरिपुखण्डं सौख्यकरं
लोकं सुखयन्तं विलसितवन्तं प्रकटितदन्तं नृत्यकरम् ।
डमरुध्वनिशङ्खं तरलवतंसं मधुरहसन्तं लोकभरं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम् ॥ १॥
चर्चितसिन्दूरं रणभूविदूरं दुष्टविदूरं श्रीनिकरं
किङ्किणिगणरावं त्रिभुवनपावं खर्प्परसावं पुण्यभरम् ।
करुणामयवेशं सकलसुरेशं मुक्तसुकेशं पापहरं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ॥ २॥
कलिमलसंहारं मदनविहारं फणिपतिहारं शीघ्रकरं
कलुषं शमयन्तं परिभृतसन्तं मत्तदृगन्तं शुद्धतरम् ।
गतिनिन्दितकेशं नर्तनदेशं स्वच्छकशं सन्मुण्डकरं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं श्रीभैरववेशं कष्टहरम् ॥ ३॥
कठिनस्तनकुम्भं सुकृतं सुलभं कालीडिम्भं खड्गधरं
वृतभूतपिशाचं स्फुटमृदुवाचं स्निग्धसुकाचं भक्तभरम् ।
तनुभाजितशेषं विलमसुदेशं कष्टसुरेशं प्रीतिनरं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं श्रीभैरववेशं कष्टहरम् ॥ ४॥
ललिताननचन्द्रं सुमनवितन्द्रं बोधितमन्द्रं श्रेष्ठवरं
सुखिताखिललोकं परिगतशोकं शुद्धविलोकं पुष्टिकरम् ।
वरदाभयहारं तरलिततारं क्षुद्रविदारं तुष्टिकरं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ॥ ५॥
सकलायुधभारं विजनविहारं सुश्रविशारं भ्रष्टमलं
शरणागतपालं मृगमदभालं सञ्जितकालं स्वेष्टबलम् ।
पदनूपूरसिञ्जं त्रिनयनकञ्जं गुणिजनरञ्जन कुष्टहरं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ॥ ६॥
मर्दयितुसरावं प्रकटितभावं विश्वसुभावं ज्ञानपदं
रक्तांशुकजोषं परिकृततोषं नाशितदोषं सन्मतिदम् ।
कुटिलभ्रुकुटीकं ज्वरधननीकं विसरन्धीकं प्रेमभरं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ॥ ७॥
परिनिर्जितकामं विलसितवामं योगिजनाभं योगेशं
बहुमद्यपनाथं गीतसुगाथं कष्टसुनाथं वीरेशम् ।
कलयन्तमशेषं भृतजनदेशं नृत्यसुरेशं वीरेशं
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ॥ ८॥
इति श्रीभैरवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
ॐ रां रामाय नमः
श्री राम ज्योतिष सदन 
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मां काली प्रातः स्मरणस्तोत्रम्

मां काली प्रातः स्मरणस्तोत्रम् 
ॐ प्रातर्नमामि मनसा त्रिजगद्-विधात्रीं 
कल्याणदात्रीं कमलायताक्षीम् ।
कालीं कलानाथ-कलाभिरामां कादम्बिनी-मेचक-काय-कान्तिम् ॥ १॥
अर्थात् तीनों भुवनों की रचना करनेवाली, कल्याण की देनेवाली, कमल-सी सुन्दर आँखोंवाली, चन्द्रमा की कला से सुशोभित, सघन मेघ-सी साँवली काली को मैं प्रातःकाल मन से नमन करता हूँ ॥ १॥
जगत्प्रसूते द्रुहिणो यदर्च्चा-प्रसादतः 
पाति सुरारिहन्ता ।
अन्ते भवो हन्ति भव-प्रशान्त्यै 
तां कालिकां प्रातरहं भजामि ॥ २॥
संसार से शान्ति पाने के लिए प्रातःकाल मैं उस काली का भजन करता हूँ, जिसकी पूजा के बल से ब्रह्मा संसार की सृष्टि करते हैं, विष्णु उसका
पालन करते हैं और प्रलय-काल में रुद्र नाश करते हैं ॥ २॥
शुभाशुभैः कर्म-फलैरनेक-जन्मनि
 मे सञ्चरतो महेशि ।
माभूत् कदाचिदपि मे पशुभिश्च 
गोष्ठी दिवानिशं स्यात् कुल-मार्ग-सेवा ॥ ३॥
हे महेशि ! अच्छे-बुरे कर्मों के फल से अनेक जन्मों में घूमता हुआ मैं कभी भी पशुओं (अज्ञानियों) का संग न प्राप्त करूं और हमेशा मैं कुल-क्रम से ही तुम्हारी सेवा करता रहूँ ॥ ३॥
वामे प्रिया शाम्भव-मार्ग-निष्ठा
 पात्रं करे स्तोत्रमये मुखाब्जे ।
ध्यानं हृदब्जे गुरु-कौल-
सेवा स्युर्मे महाकालि ! तव प्रसादात् ॥ ४॥
हे महाकाली ! तुम्हारी कृपा से बायीं तरफ मनोनुकूला शक्ति, शिवजी के दिखलाये हुये मार्ग में श्रद्धा, हाथ में पात्र, मुखारविन्द में स्तुति, हृदय में ध्यान, गुरु और कौलों की सेवा, ये सब हों ॥ ४॥
श्रीकालि, मातः, परमेश्वरि !
 त्वां प्रातः समुत्थाय नमामि नित्यम् ।
दीनोऽस्म्यनाथोऽस्मि भवातुरोऽस्मि 
मां पाहि संसार-समुद्र-मग्नम् ॥ ५॥
हे काली ! हे मां ! हे परमेश्वरि ! नित्य मैं सबेरे उठ कर तुम्हें प्रणाम करता हूँ। मैं दीन हूँ, अनाथ हूँ, संसार से व्याकुल हूँ, संसार-रूपी सागर में डूबे हुए मेरी रक्षा करो ॥ ५॥
प्रातः-स्तवं यः पर-देवतायाः 
श्रीकालिकायाः शयनावसाने ।
नित्यं पठेत् तस्य 
मुखावलोकादानन्दकन्दाङ्कुरितं मनस्स्यात् ॥ ६॥
सोते से उठकर जो सबसे बडी देवता श्री कालिका के प्रातः-स्तव का पाठ करता है, उसका मुख देखने से मन में आनन्द जाग उठता है ॥ ६॥
इति श्रीकालीप्रातःस्मरणस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
ॐ रां रामाय नमः
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https://youtu.be/XfpY7YI9CHc

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