Saturday 17 August 2019

अघोर साधना मे मुंड का महत्व

।। अघोर में मुंड (कपाल, खोपड़ी,महाशंख) का महत्व।।

आज कल आपने देखा ही होता फेसबुक और अन्य मीडिया और कई फ़ोटो में तंत्र से जुड़े लोग और अघोरी साधक हाथ में मुंड  लिए दिखाई देते हे ,तो लोगो जिज्ञासा होती हे ।पर असल में  में मुंड को लेकर कई नियम होते हे ,वो सब को पता नहीं होता ।हर अघोरी या तंत्र साधक मुंड धारण नहीं कर सकता।और नहीं कोई उसे लेकर एक स्थान से दुशरे स्थान जा सकता हे ।1
1 मूण्डधारण वो ही साधक या अघोरी कर सकता हे जिसका सहस्त्रार्थ जागृत हो चूका हो।
2   मुंड हर किसी इन्शान  का धारण नहीं कर सकते ,न वो जला हुवा हो नहीं कही से खंडित हो।

3 आपने देखा होगा की एक अघोरी या तंत्र में निपुर्ण साधू का दाह संसकार नहीं होता उसकी समाधी लगती हे ।ऐसे ही साधक का मुंड नियम  के हिसाब से निकाल कर उसे संशोधित कर उसका संस्कार किया जाता हे ।उसके बाद उसका उपयोग किया जा सकता हे ।

4जेसे मंदिर की मूर्ति को लेकर आप हर जगह गुम नहीं सकते ।उसका प्राणप्रतिष्ठा करके आशन दिया जाता हे वेसे ही कोई भी साधक या अघोरी मूण्ड का दिखावा करने के लिए उसे लेकर नहीं घूम सकता पर अपने साधना स्थान पर उसकी प्राणप्रतिष्ठा करके मूण्ड को साधा जाता हे ।

5 एक साधक या अघोरी का ही मूण्ड इसलिए काम आता हे की उसका सहस्त्रार्थ पहले ही जागृत हो चूका हिता हे .और उस साधक ने जो पूर्व  साधनाए की होती हे उसका भी फल नए साधक को मददरूप होता हे ।

6 एक अघोरी अपनी साधना ओ का और सिद्धि ओ का संचय मूण्ड में करता हे और समय पर उसका प्रयोग करता हे ।

7  कोई भी साधक ,साधू ,अघोरी ,तांत्रिक मूण्ड का उपयोग लोगो को भयभित करने या दिखावा करने के लिए नहीं ,पर अपनी साधनाओ में सहायता के लिए प्रयोग कर सकता हे और उसे गोपनीय ही रखा जाता हे

8 अघोरी के लिए एक सिद्ध मूण्ड ही उसका सब कुछ होता हे ।जिसकी प्राणप्रतिष्ठा करके उसकी पूजा करता हे ।

8 किस्मत वाले होते हे वो अघोरी जिसको अपने गुरूजी का चरणकमल महाप्रशाद और मुण्ड मिलता हे असल में वो ही शिष्य उस अघोरी गुरूजी का वारिश होता हे ।

(पर आज कल आपने देखा ही होता की हर कोई एरा गेरा नथहु खेरा अपने आप को सिद्ध अघोरी या बड़ा तांत्रिक दिखाने की लिए किसी खंडित या जले हुवे टूटे हुवे मूण्ड का दिखावा करता हे। जो लोगो में अंधश्रद्धा फेलता हे और भयभीत करता हे )

।।अघोर में श्रद्धा हे पर अंधश्रद्धा को कोई स्थान नहीं हे।अघोर सरल होता हे भयंकर नहीं ।।

बंगाल मे मां तारा पीठ

बंगाल के इतिहास में अघोर परम्परा का प्रसिद्ध स्थल तारापीठ
    बंगाल के इतिहास में वीरभूमि जिला एक विख्यात जिला है। हिन्दुओं के ५१ शक्तिपीठों में से पाँच शक्ति पीठ वीरभूमि में ही हैं। इसी कड़ी में उनीस्वी शताब्दी में वीरभूमिकी पवित्रता साधक वामा खेपा ने एक बार फ़िर बढाई।   राजा दशरथ के कुल पुरोहित वशिष्ठ मुनि ने भी वीरभूमि से जुड़ कर इतिहास में इस भूमि की शान बढाई। इसलिए वीरभूमि जिला हिंदू वाम मर्गियों का महा तीर्थ बना। यहाँ पर स्थापित वशिष्ठ मुनि के सिंघासन पर अनेको साधको ने अपनी सिद्धिया प्राप्त की। जिनमें से प्रमुख महाराज राजा राम कृष्ण परमहंस, आनंदनाथ, मोक्ष्दानंद , वामा खेपा के नाम आते है।
      इस स्थान पर दक्ष यज्ञ विध्वंश के पश्चात मोहाविष्ट शिव जी के कंधों से शिव भार्या दाक्षायणी, सती की आँखें भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र ने काट कर गिराया था। यह शक्तिपीठ बन गया और इसीलिये इसे तारापीठ कहते हैं । मातृ रुप माँ तारा का यह स्थल तांत्रिकों, मांत्रिकों, शाक्तों, शैवों, कापालिकों, औघड़ों आदि सब में समान रुप से श्रद्धास्पद, पूजनीय माना जाता है ।
       शताब्दियों से साधकों, सिद्धों में प्रसिद्ध यह स्थल पश्चिम बँगाल के बीरभूम अँचल में रामपुर हाट रेलस्टेशन के पास द्वारका नदी के किनारे स्थित है । कोलकाता से तारापीठ की दूरी लगभग २६५ किलोमीटर है । यह स्थल रेलमार्ग एवं सड़क मार्ग दोनो से जुड़ा है । इस जगह द्वारका नदी का बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर है, जो कि भारत में सामान्यतः नहीं पाया जाता । नाम के अनुरुप यहाँ माँ तारा का एक मन्दिर है तथा पार्श्व में महाश्मशान है । द्वारका नदी इस महाश्मशान को चक्राकार घेरकर कच्छपपृष्ट बनाते हुए बहती है ।
    तारापीठ में देवी सती के नेत्र गिरे थे अत: इस स्थान को देवी तारा को नयन तारा भी कहा जाता है. तारापीठ का महात्म्य है कि यहां श्रद्धा-भक्ति के साथ देवी का ध्यान करके जो मुराद मांगा जाता है वह पूर्ण होता है. देवी तारा की सेवा आराधना से रोग से मुक्ति मिलती है. इस स्थान पर सकाम और निष्काम दोनों प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती है.

    यह स्थल तारा साधन के लिये जगत प्रसिद्ध रहा है । पुरातन काल में महर्षि वशिष्ठ जी इस तारापीठ में बहुत काल तक साधना किये थे और सिद्धि प्राप्त कर सफल काम हुए थे । उन्होने इस पीठ में माँ तारा का एक भव्य मन्दिर बनवाया था जो अब भूमिसात हो चुका है । कहते हैं वशिष्ठ जी कामाख्या धाम के निकट नीलाचल पर्वत पर दीर्घकाल तक संयम पूर्वक भगवती तारा की उपासना करते रहे थे , किन्तु भगवती तारा का अनुग्रह उन्हें प्राप्त न हो सका, कारण कि चीनाचार को छोड़कर अन्य साधना विधि से भगवती तारा प्रसन्न नहीं होतीं । एकमात्र बुद्ध ही भगवती तारा की उपासना और चीनाचार विधि जानते हैं । महर्षि वशिष्ठ , यह जानकर भगवान बुद्ध के समीप उपस्थित हुए और उनसे आराधना विधि एवं आचार का ज्ञान प्राप्तकर इस पीठ में आये थे । बौधों में बज्रयानी साधक इस विद्या के जानकार बतलाये जाते हैं । औघड़ों को भी इस विद्या की सटीक जानकारी है ।

       वर्तमान मन्दिर बनने की कथा
" जयब्रत नाम के एक व्यापारी थे । उनका इस अँचल में लम्बाचौड़ा व्यापार फैला हुआ था । श्मशान होने के कारण तारापीठ का यह क्षेत्र सुनसान हुआ करता था । भय से लोग इधर कम ही आते थे । विशेष दिनों में इक्का दुक्का साधक इस ओर आते जाते दिख जाया करते थे । व्यापार के सिलसिले में जयब्रत को प्रायः इस क्षेत्र से गुजरना पड़ता था । एक बार जयब्रत को पास के गाँव में रात्रि विश्राम हेतू रुकना पड़ा । ब्राह्म मुहुर्त में जयब्रत को स्वप्न में माँ तारा के दर्शन हुए । माँ ने आदेश दिया कि श्मशान की परिधि में धरती के नीचे ब्रह्मशिला गड़ा हुआ है । उसे उखाड़ो और वहीं पर विधिपूर्वक प्राण प्रतिष्ठित करो । स्वप्न में प्राप्त आदेश के अनुसार जयब्रत ब्रह्मशिला उखड़वाया और वर्तमान मन्दिर का निर्माण कराकर माँ तारा की भव्य मूर्ति स्थापित किया ।"

मातृरुपा माँ तारा की मूर्ति दिव्य भाव लिये हुए है । माता ने अपने वाम बाजु में शिशु रुप में शिव जी को लिया हुआ है । शिव जी माता के वाम स्तन से दुग्धामृत का पान कर रहे हैं और माता के स्नेहसिक्त नयन अपलक शिशु शिव जी को निहार रहे हैं । कहते हैं समुद्र मँथन से निकले विष का देवाधिदेव भगवान शिव जी ने पान कर संसार की रक्षा की थी । इस विषपान के प्रभाव से भगवान शँकर को उग्र जलन एवं पीड़ा होने लगी । कोई उपाय न था । माता ने तब शिव जी को इस प्रकार अपना स्तनपान कराकर उन्हें कष्ट से त्राण दिलाया था । इसीलिये माँ को तारिणी भी कहते हैं।

अप्सरा और यक्षिणी वशीकरण कवच

अप्सरा और यक्षिणी वशीकरण कवच
इस नायिका कवच को यक्षिणी पुजा से पहले 1,5 या 7 बार जप किया जाना चाहिए। इस कवच के जप से किसी भी प्रकार की सुन्दरी साधना में विपरीत परिणाम प्राप्त नहीं होते और साधना में जल्द ही सिद्धि प्राप्त होती हैं। हम आशा करते हैं कि जब भी आप कोई भी यक्षिणी साधना करोगें तो इस कवच का जप अवश्य करोगें। इस कवच के जप से समस्त प्रकार की सिद्धियाँ देने वाली यक्षिणी साधक के नियंत्रण मे आ जाती हैं और साधक के सभी मनोरथो को पूर्ण करती हैं। यक्षिणी साधना से जुडा यह कवच अपने आप मे दुर्लभ हैं। इस कवच के जपने से यक्षिणीयों का वशीकरण होता हैं। तो क्या सोच रहे हैं आप........................
।। श्री उन्मत्त-भैरव उवाच ।।
श्रृणु कल्याणि ! मद्-वाक्यं, कवचं देव-दुर्लभं।यक्षिणी-नायिकानां तु, संक्षेपात् सिद्धि-दायकं ।।
ज्ञान-मात्रेण देवशि ! सिद्धिमाप्नोति निश्चितं।यक्षिणि स्वयमायाति, कवच-ज्ञान-मात्रतः ।।
सर्वत्र दुर्लभं देवि ! डामरेषु प्रकाशितं।पठनात् धारणान्मर्त्यो, यक्षिणी-वशमानयेत् ।।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीयक्षिणी-कवचस्य श्री गर्ग ऋषिः, गायत्री छन्दः, श्री अमुकी यक्षिणी देवता, साक्षात् सिद्धि-समृद्धयर्थे पाठे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यासः- श्रीगर्ग ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, श्री रतिप्रिया यक्षिणी देवतायै नमः हृदि, साक्षात् सिद्धि-समृद्धयर्थे पाठे विनियोगाय नमः सर्वांगे।
।। मूल पाठ ।।
शिरो मे यक्षिणी पातु, ललाटं यक्ष-कन्यका।
मुखं श्री धनदा पातु, कर्णौ मे कुल-नायिका ।।
चक्षुषी वरदा पातु, नासिकां भक्त-वत्सला।
केशाग्रं पिंगला पातु, धनदा श्रीमहेश्वरी ।।
स्कन्धौ कुलालपा पातु, गलं मे कमलानना।
किरातिनी सदा पातु, भुज-युग्मं जटेश्वरी ।।
विकृतास्या सदा पातु, महा-वज्र-प्रिया मम।
अस्त्र-हस्ता पातु नित्यं, पृष्ठमुदर-देशकम् ।।
भेरुण्डा माकरी देवी, हृदयं पातु सर्वदा।
अलंकारान्विता पातु, नितम्ब-स्थलं दया ।।
धार्मिका गुह्यदेशं मे, पाद-युग्मं सुरांगना।
शून्यागारे सदा पातु, मन्त्र-माता-स्वरुपिणी ।।
निष्कलंका सदा पातु, चाम्बुवत्यखिलं तनुं।
प्रान्तरे धनदा पातु, निज-बीज-प्रकाशिनी ।।
लक्ष्मी-बीजात्मिका पातु, खड्ग-हस्ता श्मशानके।
शून्यागारे नदी-तीरे, महा-यक्षेश-कन्यका।।
पातु मां वरदाख्या मे, सर्वांगं पातु मोहिनी।
महा-संकट-मध्ये तु, संग्रामे रिपु-सञ्चये ।।
क्रोध-रुपा सदा पातु, महा-देव निषेविका।
सर्वत्र सर्वदा पातु, भवानी कुल-दायिका ।।
इत्येतत् कवचं देवि ! महा-यक्षिणी-प्रीतिवं।
अस्यापि स्मरणादेव, राजत्वं लभतेऽचिरात्।।
पञ्च-वर्ष-सहस्राणि, स्थिरो भवति भू-तले।
वेद-ज्ञानी सर्व-शास्त्र-वेत्ता भवति निश्चितम्।अरण्ये सिद्धिमाप्नोति, महा-कवच-पाठतः।
यक्षिणी कुल-विद्या च, समायाति सु-सिद्धदा।।
अणिमा-लघिमा-प्राप्तिः सुख-सिद्धि-फलं लभेत्।
पठित्वा धारयित्वा च, निर्जनेऽरण्यमन्तरे।।
स्थित्वा जपेल्लक्ष-मन्त्र मिष्ट-सिद्धिं लभेन्निशि।
भार्या भवति सा देवी, महा-कवच-पाठतः।।
ग्रहणादेव सिद्धिः स्यान्, नात्र कार्या विचारणा ।।
।। हरि ॐ तत्सत ।।

शिव कवच

शिव कवचम्

अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्।
अकालमृत्यो: परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम्।।
अर्थात्:
जो भगवान् शंकर संतजनों को मोक्ष प्रदान करने के लिए अवन्तिकापुरी उज्जैन में अवतार धारण किए हैं, अकाल मृत्यु से बचने के लिए उन देवों के भी देव महाकाल नाम से विख्यात महादेव जी को मैं नमस्कार करता हूँ । नमस्कार करता हूँ ।

।। अमोघ शिव कवच ।।

शिव कवच अत्यंत दुर्लभ परन्तु चमत्कारिक है, इसका प्रभाव अमोघ है। बड़ी से बड़ी मुसीबतों को समाप्त करने में सिद्धहस्त यह शिव कवच परम-कल्याणकारी है।

अथः विनियोग:
अस्य श्री शिव कवच स्त्रोत्र मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषि:, अनुष्टुप छंद:, श्री सदाशिव रुद्रो देवता, ह्रीं शक्ति:, रं कीलकम, श्रीं ह्रीं क्लीं बीजं, श्री सदाशिव प्रीत्यर्थे शिवकवच स्त्रोत्र जपे विनियोग:।

अथः न्यास: ( पहले सभी मंत्रो को बोलकर क्रम से करन्यास करे , तदुपरांत इन्ही मंत्रो से अंगन्यास करे )

अथः करन्यास:
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
ह्रां सर्वशक्तिधाम्ने इशानात्मने अन्गुष्ठाभ्याम नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
नं रिं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषातमने तर्जनीभ्याम नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
मं रूं अनादिशक्तिधाम्ने अधोरात्मने मध्यमाभ्याम नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
शिं रैं स्वतंत्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने अनामिकाभ्याम नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
वां रौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्योजातात्मने कनिष्ठिकाभ्याम नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
यं र: अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने करतल करपृष्ठाभ्याम नम:।

अथः अंगन्यास:
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
ह्रां सर्वशक्तिधाम्ने इशानात्मने हृदयाय नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
नं रिं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषातमने शिरसे स्वाहा।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
मं रूं अनादिशक्तिधाम्ने अधोरात्मने शिखायै वषट।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
शिं रैं स्वतंत्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने नेत्रत्रयाय वौषट।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
वां रौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्योजातात्मने कवचाय हुम।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
यं र: अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने अस्त्राय फट।

अथ दिग्बन्धन:

ॐ भूर्भुव: स्व:।

ध्यानम् :
कर्पुरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम।
सदा वसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि।।

श्री शिव कवचम् :

ॐ नमो भगवते सदा-शिवाय। त्र्यम्बक सदा-शिव।

नमस्ते-नमस्ते। ॐ ह्रीं ह्लीं लूं अः एं ऐं महा-घोरेशाय नमः।

ह्रीं ॐ ह्रौं शं नमो भगवते सदा-शिवाय।

सकल-तत्त्वात्मकाय, आनन्द-सन्दोहाय, सर्व-मन्त्र-
स्वरूपाय, सर्व-यंत्राधिष्ठिताय, सर्व-तंत्र-प्रेरकाय, सर्व-
तत्त्व-विदूराय,सर्-तत्त्वाधिष्ठिताय, ब्रह्म-रुद्रावतारिणे,
नील-कण्ठाय, पार्वती-मनोहर-प्रियाय, महा-रुद्राय, सोम-
सूर्याग्नि-लोचनाय, भस्मोद्-धूलित-विग्रहाय, अष्ट-गन्धादि-
गन्धोप-शोभिताय, शेषाधिप-मुकुट-भूषिताय, महा-मणि-मुकुट-
धारणाय, सर्पालंकाराय, माणिक्य-भूषणाय, सृष्टि-स्थिति-
प्रलय-काल-रौद्रावताराय, दक्षाध्वर-ध्वंसकाय, महा-काल-
भेदनाय, महा-कालाधि-कालोग्र-रुपाय, मूलाधारैक-निलयाय ।
तत्त्वातीताय, गंगा-धराय, महा-प्रपात-विष-भेदनाय, महा-
प्रलयान्त-नृत्याधिष्ठिताय, सर्व-देवाधि-देवाय, षडाश्रयाय,
सकल-वेदान्त-साराय, त्रि-वर्ग-साधनायानन्त-कोटि-
ब्रह्माण्ड-नायकायानन्त-वासुकि-तक्षक-कर्कोट-शङ्ख-
कुलिक-पद्म-महा-पद्मेत्यष्ट-महा-नाग-कुल-भूषणाय, प्रणव-
स्वरूपाय । ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः, हां हीं हूं हैं हौं हः ।
चिदाकाशायाकाश-दिक्स्वरूपाय, ग्रह-नक्षत्रादि-सर्व-
प्रपञ्च-मालिने, सकलाय, कलङ्क-रहिताय, सकल-लोकैक-
कर्त्रे, सकल-लोकैक-भर्त्रे, सकल-लोकैक-संहर्त्रे, सकल-
लोकैक-गुरवे, सकल-लोकैक-साक्षिणे, सकल-निगम-गुह्याय,
सकल-वेदान्त-पारगाय, सकल-लोकैक-वर-प्रदाय, सकल-
लोकैक-सर्वदाय, शर्मदाय, सकल-लोकैक-शंकराय ।
शशाङ्क-शेखराय, शाश्वत-निजावासाय, निराभासाय,
निराभयाय, निर्मलाय, निर्लोभाय, निर्मदाय, निश्चिन्ताय,
निरहङ्काराय, निरंकुशाय, निष्कलंकाय, निर्गुणाय,
निष्कामाय, निरुपप्लवाय, निरवद्याय, निरन्तराय,
निष्कारणाय, निरातङ्काय, निष्प्रपंचाय, निःसङ्गाय,
निर्द्वन्द्वाय, निराधाराय, नीरागाय, निष्क्रोधाय, निर्मलाय,
निष्पापाय, निर्भयाय, निर्विकल्पाय, निर्भेदाय, निष्क्रियाय,
निस्तुलाय, निःसंशयाय, निरञ्जनाय, निरुपम-विभवाय, नित्य-
शुद्ध-बुद्धि-परिपूर्ण-सच्चिदानन्दाद्वयाय, ॐ हसौं ॐ
हसौः ह्रीम सौं क्षमलक्लीं क्षमलइस्फ्रिं ऐं
क्लीं सौः क्षां क्षीं क्षूं क्षैं क्षौं क्षः ।
परम-शान्त-स्वरूपाय, सोहं-तेजोरूपाय, हंस-तेजोमयाय,
सच्चिदेकं ब्रह्म महा-मन्त्र-स्वरुपाय,
श्रीं ह्रीं क्लीं नमो भगवते विश्व-गुरवे, स्मरण-मात्र-
सन्तुष्टाय, महा-ज्ञान-प्रदाय, सच्चिदानन्दात्मने महा-
योगिने सर्व-काम-फल-प्रदाय, भव-बन्ध-प्रमोचनाय,
क्रों सकल-विभूतिदाय, क्रीं सर्व-विश्वाकर्षणाय ।
जय जय रुद्र, महा-रौद्र, वीर-भद्रावतार, महा-भैरव, काल-
भैरव, कल्पान्त-भैरव, कपाल-माला-धर, खट्वाङ्ग-खङ्ग-
चर्म-पाशाङ्कुश-डमरु-शूल-चाप-बाण-गदा-शक्ति-भिन्दिपाल-
तोमर-मुसल-मुद्-गर-पाश-परिघ-भुशुण्डी-शतघ्नी-ब्रह्मास्त्र-
पाशुपतास्त्रादि-महास्त्र-चक्रायुधाय ।
भीषण-कर-सहस्र-मुख-दंष्ट्रा-कराल-वदन-विकटाट्ट-हास-
विस्फारित ब्रह्माण्ड-मंडल नागेन्द्र-कुण्डल नागेन्द्र-हार
नागेन्द्र-वलय नागेन्द्र-चर्म-धर मृत्युञ्जय त्र्यम्बक
त्रिपुरान्तक विश्व-रूप विरूपाक्ष विश्वम्भर विश्वेश्वर वृषभ-
वाहन वृष-विभूषण, विश्वतोमुख ! सर्वतो रक्ष रक्ष, ज्वल
ज्वल प्रज्वल प्रज्वल स्फुर स्फुर आवेशय आवेशय, मम
हृदये प्रवेशय प्रवेशय, प्रस्फुर प्रस्फुर।
महा-मृत्युमप-मृत्यु-भयं नाशय-नाशय, चोर-भय-
मुत्सादयोत्सादय, विष-सर्प-भयं शमय शमय, चोरान् मारय
मारय, मम शत्रुनुच्चाट्योच्चाटय, मम क्रोधादि-सर्व-सूक्ष्म-
तमात् स्थूल-तम-पर्यन्त-स्थितान् शत्रूनुच्चाटय, त्रिशूलेन
विदारय विदारय, कुठारेण भिन्धि भिन्धि, खड्गेन
छिन्धि छिन्धि, खट्वांगेन विपोथय विपोथय, मुसलेन निष्पेषय
निष्पेषय, वाणैः सन्ताडय सन्ताडय, रक्षांसि भीषय भीषय,
अशेष-भूतानि विद्रावय विद्रावय, कूष्माण्ड-वेताल-मारीच-
गण-ब्रह्म-राक्षस-गणान् संत्रासय संत्रासय, सर्व-रोगादि-
महा-भयान्ममाभयं कुरु कुरु, वित्रस्तं मामाश्वासयाश्वासय,
नरक-महा-भयान्मामुद्धरोद्धर, सञ्जीवय सञ्जीवय, क्षुत्-
तृषा-ईर्ष्यादि-विकारेभ्यो मामाप्याययाप्यायय दुःखातुरं
मामानन्दयानन्दय शिवकवचेन मामाच्छादयाच्छादय।
मृत्युञ्जय त्र्यंबक सदाशिव ! नमस्ते नमस्ते, शं ह्रीं ॐ
ह्रों। ॐ अघोरेभ्यो थघोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः सवेॅभ्यःसवॅ सवेॅभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्र रूपेभ्यः।

हर हर महादेव।।

तंत्र मंत्र टोटके


तंत्र, तांत्रिक या टोने-टोटके का नाम सुनते ही हर आदमी के मन में एक जिज्ञासा उठती है कि आखिर यह तंत्र होता क्या है? तंत्र केवल अनिष्ट कार्यों के लिए ही नहीं होता बल्कि यह एक तरह की ऐसी विद्या है जो व्यक्ति के शरीर को अनुशासित बनाती है, शरीर पर खुद का नियंत्रण बढ़ाती है।

मोटे तौर पर देखा जाए तो तंत्र की परिभाषा बहुत सीधी और सरल है। सामान्य शब्दों में कहें तो तंत्र शब्द का अर्थ तन यानी शरीर से जुड़ा है। ऐसी सिद्धियां जिन्हें पाने के लिए पहले तन को साधना पड़े या ऐसी सिद्धियां जिन्हें शरीर की साधना से पाया जाए, उसे तंत्र कहते हैं। तंत्र एक तरह से शरीर की साधना है। एक ऐसी साधना प्रणाली, जिसमें केंद्र शरीर होता है। तंत्र शास्त्र का प्रारंभ भगवान शिव को माना गया है। शिव और शक्ति ही तंत्र शास्त्र के अधिष्ठाता देवता हैं। शिव और शक्ति की साधना के बिना तंत्र सिद्धि को हासिल नहीं किया जा सकता है।

तंत्र शास्त्र के बारे में अज्ञानता ही इसके डर का कारण हैं। दरअसल तंत्र कोई एक प्रणाली नहीं है, तंत्र शास्त्र में भी कई पंथ और शैलियां होती हैं। तंत्र शास्त्र वेदों के समय से हमारे धर्म का अभिन्न अंग रहा है। वेदों में भी इसका उल्लेख है और कुछ ऐसे मंत्र भी हैं जो पारलौकिक शक्तियों से संबंधित हैं इसलिए कहा जा सकता है कि तंत्र वैदिक कालीन है।

मंत्र साधनाओं एवं तंत्र के क्षेत्र में आज लोगों में रूचि बड़ी है, परन्तु फिर भी समाज में तंत्र के नाम से अभी भी भय व्याप्त है| यह पूर्ण शुद्ध सात्विक प्रक्रिया है, विद्या है| यह विडम्बना रही है, कि भारतीय ज्ञान का यह उज्ज्वलतम पक्ष अर्थात तंत्र से समाज भयभीत है|

समाज में आज बहुत ही ऐसे व्यक्ति मिलेंगे जो भौतिक चिन्तन से ऊपर उठाकर साधनात्मक जीवन जीने की ललक रखते हैं| मात्र दैनिक पूजा या अर्चना से ही प्रसन्न हो जाते हैं, परन्तु उनमें दुर्लभ साधनाओं के प्रति बिल्कुल कोई लालसा नहीं है| पूजा एक अलग चीज है, साधना एक बिल्कुल अलग चीज है|

साधना केवल वही दे सकता है जो गुरु है| आज गाँव, नुक्कड़ में कई पुजारी मिल जायेंगे, पंडित मिल जायेंगे पर वे गुरु नहीं हो सकते, उनमें कोई साधनात्मक बल नहीं होता है| वह पूजा, कर्मकांड मात्र एक ढकोसला है जिसमें समाज आज पुरी तरह फंसा है| यही कारण है कि व्यक्ति जीवन भर मन्दिर जाते हैं, सत्य नारायण की कथा तो कराते हैं, यज्ञ भी कराते हैं, परन्तु उन्हें न तो किसी प्रकार की कोई साधनात्मक अनुभूति होती है और न ही किसी देवी या देवता के दर्शन ही होते हैं फिर भी वे स्वयं साधना के क्षेत्र में पदार्पण नहीं करते| यदि व्यक्ति इन्हें जीवन में स्थान दें, तो वह सब कुछ स्वयं ही प्राप्त कर सकता है|
तंत्र में मुख्यत ६ कार्य आते है...

१. वशीकरण: किसी निश्चित व्यक्ति से को अपने अनुकूल कर लेना और अपने इच्छित कार्य करवाना वशीकरण में आता है ।
२. मोहन : व्यक्तियों के पुरे समूह को अपने अनुकूल करना मोहन तंत्र के अन्तरगत आता है ।
३. विद्वेषण : किन्ही २ व्यक्तियों के बीच में भयंकर झगडा करवाना की वह दोनों आपस में मरने मारने को उतारू हो जाए ।
४. उच्चाटन : शत्रु का किसी विशेष कार्य से इस प्रकार मोह भंग कर देना की वह कार्य छोड़ दे उच्चाटन तंत्र के अन्तरगत माना गया है ।
५. स्तम्भन : शत्रुओ की बुद्धि, बल को को इस प्रकार से भ्रष्ट कर देना की वेह समझ ही ना पाए की क्या करना है और क्या नहीं ।
६. मारन : शत्रु को मार देना या मृत्यु तुल्ये कष्ट देना मारन में आता है ।

जय श्री राम -----
श्रीराम ज्योतिष सदन।
दैवज्ञ पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र दैवज्ञ श्री पंडित टीकाराम बहुगुणा
भारतीय वैदिक ज्योतिष और मंत्र विशेषज्ञ एवं रत्न परामशॅ दाता- और मंत्र अनुष्ठान के द्ववारा सभी सम्सयाओ का समाधान किया जाता है। क्या आप निशुल्क परामर्श चाहते हैं ? तो आप मुझसे सम्पकॅ ना करे । मोबाईल न0॰है। (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.श्रीराम ज्योतिष सदन ।

https://youtu.be/XfpY7YI9CHc

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