Wednesday 17 April 2019

पूजा के समय मंत्र बोलना जरूरी क्यों होता है? हिन्दू धर्म में पूजा करने को बहुत महत्व दिया जाता है। छोटे या बड़े किसी भी तरह के उत्सव या आयोजन के प्रारंभ से पहले पूजा या अनुष्ठान जरूर किया जाता है। पूजा या अनुष्ठान चाहे किसी भी देवता का हो बिना मंत्र जप के पूरा नहीं होता है। लेकिन बहुत कम लोग ये जानते हैं कि पूजन के समय मंत्र जप क्यों किया जाता है? दरअसल मंत्र एक ऐसा साधन है, जो मनुष्य की सोई हुई सुषुप्त शक्तियों को सक्रिय कर देता है। मंत्रों में अनेक प्रकार की शक्तियां निहित होती है, जिसके प्रभाव से देवी-देवताओं की शक्तियों का अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। रामचरित मानस में मंत्र जप को भक्ति का पांचवा प्रकार माना गया है। मंत्र जप से उत्पन्न शब्द शक्ति संकल्प बल तथा श्रद्धा बल से और अधिक शक्तिशाली होकर अंतरिक्ष में व्याप्त ईश्वरीय चेतना के संपर्क में आती है। जिसके फलस्वरूप मंत्र का चमत्कारिक प्रभाव साधक को सिद्धियों के रूप में मिलता है।शाप और वरदान इसी मंत्र शक्ति और शब्द शक्ति के मिश्रित परिणाम हैं। साधक का मंत्र उच्चारण जितना अधिक स्पष्ट होगा, मंत्र बल उतना ही प्रचंड होता जाएगा।वैज्ञानिकों का भी मानना है कि ध्वनि तरंगें ऊर्जा का ही एक रूप है। मंत्र में निहित बीजाक्षरों में उच्चारित ध्वनियों से शक्तिशाली विद्युत तरंगें उत्पन्न होती है जो चमत्कारी प्रभाव डालती हैं।

वीर बेताल साधना यह साधना रात्रि कालीन है स्थान एकांत होना चाहिए ! मंगलबार को यह साधना संपन की जा सकती है ! घर के अतिरिक्त इसे किसी प्राचीन एवं एकांत शिव मंदिर मे या तलब के किनारे निर्जन तट पर की जा सकती है ! पहनने के बस्त्र आसन और सामने विछाने के आसन सभी गहरे काले रंग के होने चाहिए ! साधना के बीच मे उठना माना है ! इसके लिए वीर बेताल यन्त्र और वीर बेताल माला का होना जरूरी है ! यन्त्र को साधक अपने सामने बिछे काले बस्त्र पर किसी ताम्र पात्र मे रख कर स्नान कराये और फिर पोछ कर पुनः उसी पात्र मे स्थापित कर दे ! सिन्दूर और चावल से पूजन करे और निम्न ध्यान उच्चारित करें !! फुं फुं फुल्लार शब्दो वसति फणिर्जायते यस्य कण्ठे डिम डिम डिन्नाति डिन्नम डमरू यस्य पाणों प्रकम्पम! तक तक तन्दाती तन्दात धीर्गति धीर्गति व्योमवार्मि सकल भय हरो भैरवो सः न पायात !! इसके बाद माला से १५ माला मंत्र जप करें यह ५ दिन की साधना है ! !! ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं वीर सिद्धिम दर्शय दर्शय फट !! साधना के बाद सामग्री नदी मे या शिव मंदिर मे विसर्जित कर दें साधना का काल और स्थान बदलना नहीं चाहिए

कुंजिका स्तोत्र’ और ‘बीसा यन्त्र’ ‘कुंजिका स्तोत्र’ और ‘बीसा यन्त्र’ का अनुभूत अनुष्ठान प्राण-प्रतिष्ठा करने के पर्व चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, दीपावली के तीन दिन (धन तेरस, चर्तुदशी, अमावस्या), रवि-पुष्य योग, रवि-मूल योग तथा महानवमी के दिन ‘रजत-यन्त्र’ की प्राण प्रतिष्ठा, पूजादि विधान करें। इनमे से जो समय आपको मिले, साधना प्रारम्भ करें। 41 दिन तक विधि-पूर्वक पूजादि करने से सिद्धि होती है। 42 वें दिन नहा-धोकर अष्टगन्ध (चन्दन, अगर, केशर, कुंकुम, गोरोचन, शिलारस, जटामांसी तथा कपूर) से स्वच्छ 41 यन्त्र बनाएँ। पहला यन्त्र अपने गले में धारण करें। बाकी आवश्यकतानुसार बाँट दें। प्राण-प्रतिष्ठा विधि सर्व-प्रथम किसी स्वर्णकार से 15 ग्राम का तीन इंच का चौकोर चाँदी का पत्र (यन्त्र) बनवाएँ। अनुष्ठान प्रारम्भ करने के दिन ब्राह्म-मुहूर्त्त में उठकर, स्नान करके सफेद धोती-कुरता पहनें। कुशा का आसन बिछाकर उसके ऊपर मृग-छाला बिछाएँ। यदि मृग छाला न मिले, तो कम्बल बिछाएँ, उसके ऊपर पूर्व को मुख कर बैठ जाएँ। अपने सामने लकड़ी का पाटा रखें। पाटे पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर एक थाली (स्टील की नहीं) रखें। थाली में पहले से बनवाए हुए चौकोर रजत-पत्र को रखें। रजत-पत्र पर अष्ट-गन्ध की स्याही से अनार या बिल्व-वृक्ष की टहनी की लेखनी के द्वारा ‘यन्त्र लिखें। पहले यन्त्र की रेखाएँ बनाएँ। रेखाएँ बनाकर बीच में ॐ लिखें। फिर मध्य में क्रमानुसार 7, 2, 3 व 8 लिखें। इसके बाद पहले खाने में 1, दूसरे में 9, तीसरे में 10, चैथे में 14, छठे में 6, सावें में 5, आठवें में 11 नवें में 4 लिखें। फिर यन्त्र के ऊपरी भाग पर ‘ॐ ऐं ॐ’ लिखें। तब यन्त्र की निचली तरफ ‘ॐ क्लीं ॐ’ लिखें। यन्त्र के उत्तर तरफ ‘ॐ श्रीं ॐ’ तथा दक्षिण की तरफ ‘ॐ क्लीं ॐ’ लिखें। प्राण-प्रतिष्ठा अब ‘यन्त्र’ की प्राण-प्रतिष्ठा करें। यथा- बाँयाँ हाथ हृदय पर रखें और दाएँ हाथ में पुष्प लेकर उससे ‘यन्त्र’ को छुएँ और निम्न प्राण-प्रतिष्ठा मन्त्र को पढ़े - “ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम प्राणाः इह प्राणाः, ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम सर्व इन्द्रियाणि इह सर्व इन्द्रयाणि, ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम वाङ्-मनश्चक्षु-श्रोत्र जिह्वा घ्राण प्राण इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।” ‘यन्त्र’ पूजन इसके बाद ‘रजत-यन्त्र’ के नीचे थाली पर एक पुष्प आसन के रूप में रखकर ‘यन्त्र’ को साक्षात् भगवती चण्डी स्वरूप मानकर पाद्यादि उपचारों से उनकी पूजा करें। प्रत्येक उपचार के साथ ‘समर्पयामि चन्डी यन्त्रे नमः’ वाक्य का उच्चारण करें। यथा- 1. पाद्यं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 2. अध्र्यं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 3. आचमनं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 4. गंगाजलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 5. दुग्धं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 6. घृतं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 7. तरू-पुष्पं (शहद) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 8. इक्षु-क्षारं (चीनी) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 9. पंचामृतं (दूध, दही, घी, शहद, गंगाजल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 10. गन्धम् (चन्दन) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 11. अक्षतान् समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 12 पुष्प-माला समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 13. मिष्ठान्न-द्रव्यं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 14. धूपं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 15. दीपं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 16. पूगी फलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 17 फलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 18. दक्षिणा समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 19. आरतीं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। तदन्तर यन्त्र पर पुष्प चढ़ाकर निम्न मन्त्र बोलें- पुष्पे देवा प्रसीदन्ति, पुष्पे देवाश्च संस्थिताः।। अब ‘सिद्ध कुंजिका स्तोत्र’ का पाठ कर यन्त्र को जागृत करें। यथा- ।।शिव उवाच।। श्रृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि, कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्। येन मन्त्र प्रभावेण, चण्डी जापः शुभो भवेत।। न कवचं नार्गला-स्तोत्रं, कीलकं न रहस्यकम्। न सूक्तं नापि ध्यानं च, न न्यासो न च वार्चनम्।। कुंजिका पाठ मात्रेण, दुर्गा पाठ फलं लभेत्। अति गुह्यतरं देवि ! देवानामपि दुलर्भम्।। मारणं मोहनं वष्यं स्तम्भनोव्च्चाटनादिकम्। पाठ मात्रेण संसिद्धयेत् कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्।। मन्त्र – ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।। नमस्ते रूद्र रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि। नमः कैटभ हारिण्यै, नमस्ते महिषार्दिनि।।1 नमस्ते शुम्भ हन्त्र्यै च, निशुम्भासुर घातिनि। जाग्रतं हि महादेवि जप ! सिद्धिं कुरूष्व मे।।2 ऐं-कारी सृष्टि-रूपायै, ह्रींकारी प्रतिपालिका। क्लींकारी काल-रूपिण्यै, बीजरूपे नमोऽस्तु ते।।3 चामुण्डा चण्डघाती च, यैकारी वरदायिनी। विच्चे नोऽभयदा नित्यं, नमस्ते मन्त्ररूपिणि।।4 धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नीः, वां वीं वागेश्वरी तथा। क्रां क्रीं श्रीं में शुभं कुरू, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा।।5 ॐॐॐ कार-रूपायै, ज्रां ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी। क्रां क्रीं क्रूं कालिकादेवि ! शां शीं शूं में शुभं कुरू।।6 ह्रूं ह्रूं ह्रूंकार रूपिण्यै, ज्रं ज्रं ज्रम्भाल नादिनी। भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे ! भवानि ते नमो नमः।।7 अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव। आविर्भव हं सं लं क्षं मयि जाग्रय जाग्रय त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरू कुरू स्वाहा। पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा।।8 म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुंजिकायै नमो नमः। सां सीं सप्तशती सिद्धिं, कुरूश्व जप-मात्रतः।।9 ।।फल श्रुति।। इदं तु कुंजिका स्तोत्रं मन्त्र-जागर्ति हेतवे। अभक्ते नैव दातव्यं, गोपितं रक्ष पार्वति।। यस्तु कुंजिकया देवि ! हीनां सप्तशती पठेत्। न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा।। फिर यन्त्र की तीन बार प्रदक्षिणा करते हुए यह मन्त्र बोलें- यानि कानि च पापानि, जन्मान्तर-कृतानि च। तानि तानि प्रणश्यन्ति, प्रदक्षिणं पदे पदे।। प्रदक्षिणा करने के बाद यन्त्र को पुनः नमस्कार करते हुए यह मन्त्र पढ़े- एतस्यास्त्वं प्रसादन, सर्व मान्यो भविष्यसि। सर्व रूप मयी देवी, सर्वदेवीमयं जगत्।। अतोऽहं विश्वरूपां तां, नमामि परमेश्वरीम्।। अन्त में हाथ जोड़कर क्षमा-प्रार्थना करें। यथा- अपराध सहस्त्राणि, क्रियन्तेऽहर्निषं मया। दासोऽयमिति मां मत्वा, क्षमस्व परमेश्वरि।। आवाहनं न जानामि, न जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव न जानामि, क्षम्यतां परमेश्वरि।। मन्त्र-हीनं क्रिया-हीनं, भक्ति-हीनं सुरेश्वरि ! यत् पूजितम् मया देवि ! परिपूर्णं तदस्तु मे।। अपराध शतं कृत्वा, जगदम्बेति चोच्चरेत्। या गतिः समवाप्नोति, न तां ब्रह्मादयः सुराः।। सापराधोऽस्मि शरणं, प्राप्यस्त्वां जगदम्बिके ! इदानीमनुकम्प्योऽहं, यथेच्छसि तथा कुरू।। अज्ञानाद् विस्मृतेर्भ्रान्त्या, यन्न्यूनमधिकं कृतम्। तत् सर्वं क्षम्यतां देवि ! प्रसीद परमेश्वरि ! कामेश्वरि जगन्मातः, सच्चिदानन्द-विग्रहे ! गृहाणार्चामिमां प्रीत्या, प्रसीद परमेश्वरि ! गुह्याति-गुह्य-गोप्त्री त्वं, गुहाणास्मत् कृतं जपम्। सिद्धिर्भवतु मे देवि ! त्वत् प्रसादात् सुरेश्वरि।।

एक सरल प्रयोग यह प्रयोग किसी भी शत्रु दुयारा किए अभिचार जैसे अगर किसी शत्रु ने किसी पर तंत्र यंत्र मांत्रिक प्रयोग कर दिया है तो उस से निजात पाने के लिए यह एक अनुभूत प्रयोग है !तंत्र किसी भी व्यक्ति के जीवन को नष्ट भ्रष्ट कर देता है !और तरह तरह के अज्ञात वाधाए उस व्यक्ति के जीवन की दिशा ही बदल देते है !व्यक्ति इस से छुटकारा पाने के लिए कथित तांत्रिक लोगो के पास धके खाता है और आराम के नाम पे उसे ठगा जाता है !और वह अपना समय और पैसा दोनों गवा बैठता है !इस मंत्र को ग्रहण के दिन 108 वार जप कर सिद्ध कर ले माला कोई भी ले ले काले हकीक की बेहतर है और हो सके तो 5 माला कर ले नहीं तो 108 वार भी चल जाएगा !प्रयोग के वक़्त जब किसी के दुयारा किए प्रयोग को नष्ट करना हो तो एक शराब की प्याली और बतासे ले किसी चोराहे पे चले जाए जो निर्जन हो तो जायदा उचित है !बतासे और शराब की पियाली रख कर 21 वार मंत्र पढे और वहाँ से 7 कंकर उठा ले उन में से 4 कंकर चारो दिशायों में फेक दे और शेष तीन अपने पास ले आए जिस को वाधा हो एक एक कंकर पे 7 वार मंत्र पढ़ उसके शरीर से tuch करे मतलव छूया दे और इस प्रकार तीनों कंकर 7 -7 वार मंत्र पढ़ छूयाए और उन्हे दक्षिण दिशा की तरफ अपनी हद के बाहर फेक दे इस तरह उस पे किया गया प्रयोग का असर समापत हो जाएगा ! साबर मंत्र – ॐ उलटंत देव पलतंट काया उतर आवे बच्चा गुरु ने बुलाया बेग सत्यनाम आदेश गुरु का !!

स्वर्णप्रभा यक्षिणी, स्वर्णप्रभा नाम जहाँ सुमरों तहाँ हाज़िर होवे , स्वर्णप्रभा भवानी कारज सिद्ध करे, जो मेरी बुलाई हाज़िर ना होवे तो, महादेव जी - माँ गौरी की आन, महाराजा राजाधिराज कुबेर की आन, जो मेरा कारज सिद्ध ना करे तो, लोना चमारी की कुंडी भंगी के नरक कुण्ड में पडे, रूद्र के नेत्रों से अग्नि की ज्वाला कहरे, लटा टूट भूमि पर परे, शब्द साँचा पिण्ड कांचा, फुरो मंत्र गुरु गोरखनाथ वाचा, सत्यनाम आदेश गुरु को.

सिद्धि के लक्षण मंत्र सिद्धि होने से साधक में जो लक्षण प्रकट होते हैं उनके विषय में शास्त्रकारोंने कहा है- “हृदये ग्रन्थि भेदश्च सर्व्वाय व वर्द्धनम्। आनन्दा श्रुणि पुलको देहावेशः कुलेश्वरी॥ गद्गदोक्तश्च सहसा जायते नात्रसंशयः॥” (तंत्र सार) अर्थात्- “जप के समय हृदय ग्रन्थि भेद, समस्तअवयवों की वृद्धि, देहावेश और गदगद कण्ठ भाषण आदि भक्ति के चिन्ह प्रकट होते हैं, इसमें सन्देह नहीं। और भी अनेक प्रकार के चिन्ह प्रकट होते हैं।”मंत्र के सिद्ध होने का सबसे मुख्य लक्षण तोयही है कि साधक के मनोरथ की पूर्ति हो जाय। साधक की जिस समय जो अभिलाषा हो वह तुरंत पूर्ण होती दिखलाई दे तो समझ लेना चाहिये किमंत्र सिद्धि हुई है। मंत्र के सिद्ध होने से मृत्यु भय का निराकरण, देवता दर्शन, देवता के साथ वार्तालाप, मंत्र की भयंकर शब्द सुनाई पड़ना आदि लक्षण भी दिखलाई पड़ते हैं।“सकृदुच्चरितेऽप्येवं मंत्रे चैतन्य संयुते। दृष्यन्ते प्रत्यया यत्र पारपर्य्य तदुच्यते॥(तंत्रसार)“ अर्थात्- “चैतन्य को संयुक्त करके मंत्र का एक बार उच्चारण करने से ही ऊपर बतलाये भावोंका विकास हो जाता है।”जिस साधक को मंत्र की सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो जाती है वह देवता का दर्शन कर सकता है, मृत्यु का निवारण कर सकता है, परकाया प्रवेश कर सकता है, चाहे जिस स्थान में प्रवेश कर सकता है, आकाश मार्ग में उड़ सकता है, खेचरी देवियों के साथ मिलकर उनकी बातचीत सुन सकता है। ऐसा साधक पृथ्वी के अनेक स्तरों को भेद कर भूमि के नीचे के पदार्थों को देख सकता है। ऐसे महापुरुष की कीर्ति चारों दिशाओं में व्याप्त हो जाती है, उसे वाहन, भूषण आदि समस्त सामग्री प्राप्त होने लगती हैं और वह बहुत समय तक जीवित रह सकता है। वह राजा और अधिकारी वर्ग को प्रभावित कर सकता है और सब तरह के चमत्कारी कार्य करके सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है। ऐसे सत्पुरुष की दृष्टि पड़ते ही अनेक प्रकार की व्याधियाँ और विषों का निवारण हो जाता है। वह सर्व शास्त्रों में पारंगत होकर चार प्रकार का पाण्डित्य प्राप्त करता है। वह विषय भोग के प्रति वैराग्य धारण करके केवल मुक्ति की ही कामना करता है। उसमें सर्व प्रकार की परित्याग की भावना और सबको वश में करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। वह अष्टाँग योग का अभ्यास कर सकता है, विषय भोग की इच्छा से दूर रहता है, सर्व प्राणियों के प्रति दया रखता है और सर्वज्ञता की शक्ति को प्राप्त करता है। सब प्रकार का साँसारिक वैभव, पारिवारिक सुख और लोक में यश उसे मंत्र-सिद्धि की प्रथम अवस्था में ही प्राप्त हो जाते हैं।तात्पर्य यह है कि योग सिद्धि और मंत्र सिद्धि में कोई भेद नहीं हैं, दोनों प्रकार के साधनों का उद्देश्य एक ही है, केवल साधन मार्ग में अन्तर रहता है। वास्तव में जो साधक जिस किसी विधि से मंत्र की पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर लेता है तो उसके प्रभाव से वह स्वयं शिव तुल्य हो जाता है। कहा हैं- “सिद्ध मन्त्रस्तु यः साक्षात् स शिवो नात्र संशय।” मंत्र साधक को शास्त्र में बतलाई किसी भी पद्धति का अवलम्बन करके मंत्र सिद्धि प्राप्त करनी चाहिये और जीवन्मुक्त होकर शिव सायुज्य अथवा निर्माण मुक्ति प्राप्त करना अपना लक्ष्य रखना चाहिये। युगावतार भगवान रामकृष्ण परमहंस ने ऐसी स्थिति प्राप्त कर ली थी, उन्होंने अपने अनुभव या अन्य साधकों को बतलाया था- “कलियुग में मंत्र जप अथवा अपने किसी इष्ट देव का जप करने से सब प्रकार की इच्छायें पूर्ण होती हैं। एकाग्र चित्त, मन और प्राण को एक करके जप करना चाहिये, इष्ट देव के नाम रूपी मंत्र का जप करते-करते समुद्र में डूब जाओ, बस तुम भव सागर से पार हो जाओगे।

भैरव वशीकरण मन्त्र भैरव वशीकरण मन्त्र १॰ “ॐनमो रुद्राय, कपिलाय, भैरवाय, त्रिलोक-नाथाय, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।” विधिः- सर्व-प्रथम किसी रविवार को गुग्गुल, धूप, दीपक सहित उपर्युक्त मन्त्र का पन्द्रह हजार जप कर उसे सिद्ध करे। फिर आवश्यकतानुसार इस मन्त्र का १०८ बार जप कर एक लौंग को अभिमन्त्रित लौंग को, जिसे वशीभूत करना हो, उसे खिलाए। २॰ “ॐ नमो काला गोरा भैरुं वीर, पर-नारी सूँ देही सीर। गुड़ परिदीयी गोरख जाणी, गुद्दी पकड़ दे भैंरु आणी, गुड़, रक्त का धरि ग्रास, कदे न छोड़े मेरा पाश। जीवत सवै देवरो, मूआ सेवै मसाण। पकड़ पलना ल्यावे। काला भैंरु न लावै, तो अक्षर देवी कालिका की आण। फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा।” विधिः- २१,००० जप। आवश्यकता पड़ने पर २१ बार गुड़ को अभिमन्त्रित कर साध्य को खिलाए। ३॰ “ॐ भ्रां भ्रां भूँ भैरवाय स्वाहा। ॐ भं भं भं अमुक-मोहनाय स्वाहा।” विधिः- उक्त मन्त्र को सात बार पढ़कर पीपल के पत्ते को अभिमन्त्रित करे। फिर मन्त्र को उस पत्ते पर लिखकर, जिसका वशीकरण करना हो, उसके घर में फेंक देवे। या घर के पिछवाड़े गाड़ दे। यही क्रिया ‘छितवन’ या ‘फुरहठ’ के पत्ते द्वारा भी हो सकती है।

https://youtu.be/XfpY7YI9CHc

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