Tuesday 16 April 2019

सिद्ध शूलिनी दुर्गा-स्तुति दुःख दुशासन पत चीर हाथ ले, मो सँग करत अँधेर । कपटी कुटिल मैं दास तिहारो, तुझे सुनाऊँ टेर ।। मैय्या॰ ।।१ बुद्धि चकित थकित भए गाता, तुम ही भवानी मम दुःख-त्राता । चरण शरण तव छाँड़ि कित जाऊँ, सब जीवन दुःख निवेड़ ।।मैय्या॰ ।।२ भक्ति-हीन शक्ति के नैना, तुझ बिन तड़पत हैं दिन-रैना । लाज तिहारे हाथ सौंप दइ, दे दर्शन चढ़ शेर ।।मैय्या॰ ।।३ विधिः- उपर्युक्त रचना “शूलिनी-दुर्गा” की स्तुति है । विशेष सङ्कट-काल में भक्ति-पूर्वक सतत गायन करते रहने से तीन रात्रि में ‘संकट’ नष्ट होते है । भगवती षोडशी (श्री श्रीविद्या) का ध्यान कर, इस स्तुति की तीन आवृत्ति करते हुए स्तवन करने पर सद्यः ‘अर्थ-प्राप्ति’ ३ घण्टे में होती है । एक वर्ष तक नियमित रुप से इस स्तुति का गायन करने पर, माँ स्वयं स्वप्न में ‘मन्त्र-दीक्षा’ प्रदान करती है । ‘नव-रात्र’ में नित्य मध्य-रात्रि में श्रद्धा-पूर्वक इस स्तुति की १६ आवृत्ति गायन करने से ५ रात्रि के अन्दर स्वप्न में ‘माँ’ का साक्षात्कार होता है । प्रातः एवं सायं-काल नित्य नियमित रुप से भक्ति-पूर्वक ‘भैरवी-रागिनी’ में इस स्तुति का गायन करने से ‘आत्म-साक्षात्कार’ होता है ।...

॥ कालीकवचम् ॥ भैरव् उवाच - कालिका या महाविद्या कथिता भुवि दुर्लभा । तथापि हृदये शल्यमस्ति देवि कृपां कुरु ॥ १ ॥ कवचन्तु महादेवि कथयस्वानुकम्पया । यदि नो कथ्यते मातर्व्विमुञ्चामि तदा तनुं ॥ २ ॥ श्रीदेव्युवाच - शङ्कापि जायते वत्स तव स्नेहात् प्रकाशितं । न वक्तव्यं न द्रष्टव्यमतिगुह्यतरं महत् ॥ ३ ॥ कालिका जगतां माता शोकदुःखविनाशिनी । विशेषतः कलियुगे महापातकहारिणी ॥ ४ ॥ काली मे पुरतः पातु पृष्ठतश्च कपालिनी । कुल्ला मे दक्षिणे पातु कुरुकुल्ला तथोत्तरे ॥ ५ ॥ विरोधिनी शिरः पातु विप्रचित्ता तु चक्षुषी । उग्रा मे नासिकां पातु कर्णौ चोग्रप्रभा मता ॥ ६ ॥ वदनं पातु मे दीप्ता नीला च चिबुकं सदा । घना ग्रीवां सदा पातु बलाका बाहुयुग्मकं ॥ ७ ॥ मात्रा पातु करद्वन्द्वं वक्षोमुद्रा सदावतु । मिता पातु स्तनद्वन्द्वं योनिमण्डलदेवता ॥ ८ ॥ ब्राह्मी मे जठरं पातु नाभिं नारायणी तथा । ऊरु माहेश्वरी नित्यं चामुण्डा पातु लिञ्गकं ॥ ९ ॥ कौमारी च कटीं पातु तथैव जानुयुग्मकं । अपराजिता च पादौ मे वाराही पातु चाञ्गुलीन् ॥ १० ॥ सन्धिस्थानं नारसिंही पत्रस्था देवतावतु । रक्षाहीनन्तु यत्स्थानं वर्ज्जितं कवचेन तु ॥ ११ ॥ तत्सर्व्वं रक्ष मे देवि कालिके घोरदक्षिणे । ऊर्द्धमधस्तथा दिक्षु पातु देवी स्वयं वपुः ॥ १२ ॥ हिंस्रेभ्यः सर्व्वदा पातु साधकञ्च जलाधिकात् । दक्षिणाकालिका देवी व्यपकत्वे सदावतु ॥ १३ ॥ इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेद्देवदक्षिणां । न पूजाफलमाप्नोति विघ्नस्तस्य पदे पदे ॥ १४ ॥ कवचेनावृतो नित्यं यत्र तत्रैव गच्छति । तत्र तत्राभयं तस्य न क्षोभं विद्यते क्वचित् ॥ १५ ॥ इति कालीकुलसर्व्वस्वे कालीकवचं समाप्तम् ॥

…|| पंचमुखी हनुमान कवच || श्री गणेशाय नम: | ओम अस्य श्रीपंचमुख हनुम्त्कवचमंत्रस्य ब्रह्मा रूषि:| गायत्री छंद्:| पंचमुख विराट हनुमान देवता| र्हींह बीजम्| श्रीं शक्ति:| क्रौ कीलकम्| क्रूं कवचम्| क्रै अस्त्राय फ़ट्| इति दिग्बंध्:| श्री गरूड उवाच्|| अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि| श्रुणु सर्वांगसुंदर| यत्कृतं देवदेवेन ध्यानं हनुमत्: प्रियम्||१|| पंचकक्त्रं महाभीमं त्रिपंचनयनैर्युतम्| बाहुभिर्दशभिर्युक्तं सर्वकामार्थसिध्दिदम्||२|| पूर्वतु वानरं वक्त्रं कोटिसूर्यसमप्रभम्| दंष्ट्राकरालवदनं भ्रुकुटीकुटिलेक्षणम्||३|| अस्यैव दक्षिणं वक्त्रं नारसिंहं महाद्भुतम्| अत्युग्रतेजोवपुष्पंभीषणम भयनाशनम्||४|| पश्चिमं गारुडं वक्त्रं वक्रतुण्डं महाबलम्| सर्वनागप्रशमनं विषभूतादिकृन्तनम्||५|| उत्तरं सौकरं वक्त्रं कृष्णं दिप्तं नभोपमम्| पातालसिंहवेतालज्वररोगादिकृन्तनम्| ऊर्ध्वं हयाननं घोरं दानवान्तकरं परम्| येन वक्त्रेण विप्रेन्द्र तारकाख्यमं महासुरम्||७|| जघानशरणं तस्यात्सर्वशत्रुहरं परम्| ध्यात्वा पंचमुखं रुद्रं हनुमन्तं दयानिधिम्||८|| खड्गं त्रिशुलं खट्वांगं पाशमंकुशपर्वतम्| मुष्टिं कौमोदकीं वृक्षं धारयन्तं कमण्डलुं||९|| भिन्दिपालं ज्ञानमुद्रा दशभिर्मुनिपुंगवम्| एतान्यायुधजालानि धारयन्तं भजाम्यहम्||१०|| प्रेतासनोपविष्टं तं सर्वाभरण्भुषितम्| दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानु लेपनम सर्वाश्चर्यमयं देवं हनुमद्विश्वतोमुखम्||११|| पंचास्यमच्युतमनेकविचित्रवर्णवक्त्रं शशांकशिखरं कपिराजवर्यम्| पीताम्बरादिमुकुटै रूप शोभितांगं पिंगाक्षमाद्यमनिशं मनसा स्मरामि||१२|| मर्कतेशं महोत्राहं सर्वशत्रुहरं परम्| शत्रुं संहर मां रक्ष श्री मन्नपदमुध्दर||१३|| ओम हरिमर्कट मर्केत मंत्रमिदं परिलिख्यति लिख्यति वामतले| यदि नश्यति नश्यति शत्रुकुलं यदि मुंच्यति मुंच्यति वामलता||१४|| ओम हरिमर्कटाय स्वाहा ओम नमो भगवते पंचवदनाय पूर्वकपिमुखाय सकलशत्रुसंहारकाय स्वाहा| ओम नमो भगवते पंचवदनाय दक्षिणमुखाय करालवदनाय नरसिंहाय सकलभूतप्रमथनाय स्वाया| ओम नमो भगवते पंचवदनाय पश्चिममुखाय गरूडाननाय सकलविषहराय स्वाहा| ओम नमो भगवते पंचवदनाय उत्तरमुखाय आदिवराहाय सकलसंपत्कराय स्वाहा| ओम नमो भगवते पंचवदनाय उर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय सकलजनवशकराय स्वाहा| ||ओम श्रीपंचमुखहनुमंताय आंजनेयाय नमो नम:||

हिन्दू धर्म में अनेक देवी देवताओं की मान्यता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीन प्रधान देवता हैं। दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती देवियाँ एवं इन्द्र, गणेश, वरुण, मरुत, अर्यमा, सूर्य, चन्द्र, भौम, बुद्ध, गुरु, शुक्र, शनि, अग्नि, प्रजापति आदि देवताओं का स्थान है। गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियाँ, गोवर्धन, चित्रकूट, विन्ध्याचल आदि पर्वत, तुलसी, पीपल आदि वृक्ष, गौ, बैल आदि पशु, गरुण, नीलकण्ठ आदि पक्षी, सर्प आदि कीड़े भी देवता कोटि में गिने जाते हैं। भूत, प्रेतों से कुछ ऊँची श्रेणी के देवता भैरव, क्षेत्रपाल, यज्ञ, ब्रह्मराक्षस, बैतास, कूष्मांडा, पीर, वली, औलिया आदि हैं। फिर ग्राम्य देवता और भूत, प्रेत, मसान, चुड़ैल आदि हैं। राम, कृष्ण, नृसिंह, बाराह, वामन आदि अवतारों को भी देवताओं की कोटि में गिना जा सकता है। इन देवताओं की संख्या तैंतीस कोटि बताई जाती है। कोटि के शब्द के दो अर्थ किये जाते हैं (1.) श्रेणी (2.) करोड़। तेतीस प्रकार के, तेतीस जाती के ये देवता हैं। जाति, श्रेणी या कोटि शब्द बहुवचन का बोधक है। इससे समझा जाता है कि हर कोटि में अनेकों देव होंगे और तेतीस कोटियों-श्रेणियों के देव तो सब मिलकर बहुत बड़ी संख्या में होंगे। कोटि शब्द का दूसरा अर्थ ‘करोड़’ है। उससे तैंतीस करोड़ देवताओं के अस्तित्व का पता चलता है। जो हो यह तो मानना ही पड़ेगा कि हिन्दू धर्म में देवों की बहुत बड़ी संख्या मानी जाती है। वेदों में भी तीस से ऊपर देवताओं का वर्णन मिलता है। देवताओं की इतनी बड़ी संख्या एक सत्य शोधक को बड़ी उलझन में डाल देती है। वह सोचता है कि इतने अगणित देवताओं के अस्तित्व का क्या तो प्रमाण है, और क्या उपयोग? इन देवताओं में अनेकों की तो ईश्वर से समता है। इस प्रकार ‘बहु ईश्वरवाद’ उपज खड़ा होता है। संसार के प्रायः सभी प्रमुख धर्म ‘एक ईश्वरवाद’ को मानते हैं। हिन्दू धर्म शास्त्रों में भी अनेकों अभिवचन एक ईश्वर होने के समर्थन में भरे पड़े हैं। फिर यह अनेक ईश्वर कैसे? ईश्वर की ईश्वरता में साझेदारी का होना कुछ बुद्धि संगत प्रतीत नहीं होता। अनेक देवताओं का अपनी अपनी मर्जी से मनुष्यों पर शासन करना, शाप, वरदान देना, सजायता या विघ्न उपस्थित करना एक प्रकार से ईश्वरीय जगत की अराजकता है। कर्म फल के अविचल सिद्धान्त की परवा न करके भेट पूजा से प्रसन्न अप्रसन्न होकर शाप वरदान देने वाले देवता लोग एक प्रकार से ईश्वरीय शासक में चोर बाजार, घूसखोरी, डाकेजनी एवं अनाचार उत्पन्न करते हैं। इस अवाञ्छनीय स्थिति को सामने देखकर किसी भी सत्य शोधक का सिर चकराने लगता है। वह समझ नहीं पाता कि आखिर वह सब है क्या प्रपंच? देवता वाद पर सूक्ष्म रूप से विचार करने से प्रतीत होता है कि एक ही ईश्वर की अनेक शक्तियों के नाम अलग अलग हैं और उन नामों को ही देवता कहते हैं। जैसे सूर्य की किरणों में सात रंग हैं उन रंगों के हरा, पीला, लाल, नीला आदि अलग अलग नाम हैं। हरी किरणें, अल्ट्रा वायलेट किरणों, एक्स किरणें, बिल्डन किरणें आदि अनेकों प्रकार की किरणें हैं उनके कार्य और गुण अलग अलग होने के कारण उनके नाम भी अलग अलग हैं उनसे पर भी वे एक ही सूर्य की अंश हैं। अनेक किरणें होने पर भी सूर्य एक ही रहता है। इसी प्रकार एक ही ईश्वर की अनेक शक्तियाँ अपने गुण कर्म के अनुसार विविध देव नामों से पुकारी जाती हैं। मूलतः ईश्वर तो एक ही है। एक मात्र ईश्वर ही इस सृष्टि का निर्माता, पालन कर्ता और नाश करने वाला है। उस ईश्वर की जो शक्ति निर्माण एवं उत्पत्ति करती है उसे ब्रह्मा, जो पालन, विकास एवं शासन करती है वह विष्णु, जो जीर्णता, अवनति एवं संहार करती हैं उसे शंकर कहते हैं। दुष्टों को दण्ड देने वाली दुर्गा, सिद्धिदाता गणेश, ज्ञान दाता सरस्वती, श्री समृद्धि प्रदान करने वाली लक्ष्मी, जल बरसाने वाली इन्द्र, इसी प्रकार हनुमान आदि समझने चाहिये। जैसे एक ही मनुष्य के विविध अंगों को हाथ, पैर, नाक, कान, आँख आदि कहते हैं, इसी प्रकार ईश्वरीय सूक्ष्म शक्तियों के उनके गुणों के अनुसार विविध नाम हैं वही देवता हैं। कैवल्योपनिषद् कार ऋषि का कथन है- ‘स ब्रह्मा स विष्णुः स रुद्रस्स शिवस्सोऽक्षरस्स परमः स्वराट्। स इन्द्रस्स कालानिस्स चन्द्रमाः।’ अर्थात् वह परमात्मा ही ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, शिव, अक्षर, स्वराट्, इन्द्र, काल, अग्नि और चन्द्रमा है। इसी प्रकार ऋग्वेद मं0 1 सू0 164 मं0 46 में कहा गया है कि- ‘इन्द्र मित्रं वरुणमश्माहुरथों दिव्यस्य सुपर्णो गरुत्मान्। एवं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्रि यमं मातरिश्वान माहु।’ अर्थात् विद्वान् लोग ईश्वर को ही इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, गरुत्मान्, दिव्य, सुपर्ण, यम, मातरिश्वा नाम से पुकारते हैं। उस एक ईश्वर को ही अनेक नामों से कहते हैं। इनसे प्रगट होता है कि देवताओं का पृथक् पृथक् अस्तित्व नहीं है, ईश्वर का उसका गुणों के अनुसार देव वाची नामकरण किया है। जैसे-अग्नि-तेजस्वी। प्रजापति-प्रजा का पालन करने वाला। इन्द्र-ऐश्वर्यवान। ब्रह्मा-बनाने वाला। विष्णु-व्यापक। रुद्र-भयंकर। शिव-कल्याण करने वाला। मातरिश्वा-अत्यन्त बलवान। वायु-गतिवान। आदित्य-अविनाशी। मित्र-मित्रता रखने वाला। वरुण-ग्रहण करने योग्य। अर्यमा-न्यायवान्। सविता-उत्पादक। कुबेर-व्यापक। वसु-सब में बसने वाला। चन्द्र-आनन्द देने वाला मंगल-कल्याणकारी। बुध-ज्ञानस्वरूप। बृहस्पति-समस्त ब्रह्माँडों का स्वामी। शुक्र-पवित्र। शनिश्चर-सहज में प्राप्त होने वाला। राहु-निर्लिप्त। केतु-निर्दोष। निरंजन-कामना रहित। गणेश-प्रजा का स्वामी। धर्मराज-धर्म का स्वामी। यम-फलदाता। काल- समय रूप। शेष-उत्पत्ति और प्रलय से बचा हुआ। शंकर-कल्याण करने वाला। इसी प्रकार अन्य देवों के नामों का अर्थ ढूँढ़ा जाय तो वह परमात्मा का ही बोध कराता है। अब यह प्रश्न उठता है कि इन देवताओं की विविध प्रकार की आकृतियाँ क्यों हैं? आकृतियों की आवश्यकता किसी बात की कल्पना करने या स्मरण रखने के लिये आवश्यक है। किसी बात का विचार या ध्यान करने के लिये मस्तिष्क में एक आकृति अवश्य ही बनानी पड़ती है। यदि कोई मस्तिष्क इस प्रकार के मानसिक रोग से ग्रस्त हो कि मन में आकृतियों का चिन्तन न कर सके तो निश्चय ही वह किसी प्रकार का विचार भी न कर सकेगा। जो कीड़े मकोड़े आकृतियों की कल्पना नहीं कर पाते उनके मन में किसी प्रकार के भाव भी उत्पन्न नहीं होते। ईश्वर एवं उसकी शक्तियों के सम्बन्ध में विचार करने के लिये मनःलोक में स्वतः किसी न किसी प्रकार की आकृति उत्पन्न होती है। इन अदृश्य कारणों से उत्पन्न होने वाली सूक्ष्म आकृतियों का दिव्य दृष्टि से अवलोकन करने वाले योगी जनों ने उन ईश्वरीय शक्तियों की-देवी देवताओं की-आकृतियाँ निर्मित की हैं। चीन और जापान देश की भाषा लिपि में जो अक्षर हैं वे पेड़, पशु, पक्षी आदि की आकृति के आधार पर बनाये गये हैं। उन भाषाओं के निर्माताओं का आधार यह था कि जिस वस्तु को पुकारने के लिये जो शब्द प्रयोग होता था, उस शब्द को उस वस्तु की आकृति का बना दिया। इस प्रणाली में धीरे-धीरे विकास करके एक व्यवस्थित लिपि बना ली गई। देवनागरी लिपि का अक्षर विज्ञान शब्द की सूक्ष्म आकृतियों पर निर्भर है। किसी शब्द का उच्चारण होते ही आकाश में एक आकृति बनती है, उस आकृति को दिव्य दृष्टि से देखकर योगी जनों ने देवनागरी लिपि का निर्माण किया है। शरीर के मर्मस्थलों में जो सूक्ष्म ग्रन्थियाँ है उनके भीतरी रूप को देखकर षट्चक्रों का सिद्धान्त निर्धारित किया गया है। जो आधार चीनी भाषा की लिपि का है, जो आधार देवनागरी लिपि के अक्षरों का है, जो आधार षट्चक्रों की आकृति का है, उस आधार पर ही देवताओं की आकृतियाँ प्रस्तुत की गई हैं। जिन ईश्वरीय शक्तियों के स्पर्श से मनुष्य के अन्तः करण में जैसे संवेदन उत्पन्न होते हैं, सूक्ष्म शरीर की जैसी मुद्रा बनती है, उसी के आधार पर देवताओं की आकृतियाँ बना दी गई हैं। संहार पतन एवं नाश होते देख कर मनुष्य के मन में वैराग्य का भाव उत्पन्न होता है इसलिये शंकरजी का रूप वैरागी जैसा है। किसी चीज का उत्पादन होने पर वयोवृद्धों के समान हर मनुष्य अपना उत्तरदायित्व समझने लगता है, इसलिये ब्रह्माजी वृद्ध के रूप में हैं। चार वेद या चार दिशाएं ब्रह्मा जी के चार मुख हैं। पूर्णता प्रौढ़ता की अवस्था में मनुष्य रूपवान, सशक्त, सपत्नीक एवं विलास प्रिय होता है, सहस्रों सर्प सी विपरीत परिस्थितियाँ भी उस प्रौढ़ के अनुकूल बन जाती हैं। शेष शय्या शायी विष्णु के चित्र में हम इसी भाव की झाँकी देखते हैं। लक्ष्मी बड़ी सुन्दर और कमनीय लगती हैं उनका रूप वैसा ही है। ज्ञान में बुद्धि में सौम्यता एवं पवित्रता है, सरस्वती की मूर्ति को हम वैसी ही देखते हैं। क्रोध आने पर हमारी अन्तरात्मा विकराल रूप धारण करती है, उस विकरालता की आकृति ही दुर्गा है। विषय वासनाओं की मधुर मधुर अग्नि सुलगाने वाला देवता पुष्प वाणधारी कामदेव है। ज्ञान का देवता गणेश हाथी के समान गंभीर है, उसका पेट ओछा नहीं जिसमें कोई बात ठहरे नहीं, उसके बड़े पेट में अनेकों बातें पड़ी रहती हैं और बिना उचित अवसर आये प्रकट नहीं होती। “जिसके पास अकल होगी वह लड्डू खायेगा” इस कहावत को हम गणेश जी के साथ चरितार्थ होता देखते हैं। उनकी नाक लम्बी है अर्थात् प्रतिष्ठा ऊंची है। ईश्वर की ज्ञान शक्ति का महत्व दिव्य दर्शी कवि ने गणेश के रूप में निर्मित कर दिया है। इसी प्रकार अनेकों देवों की आकृतियाँ विभिन्न कारणों से निर्मित की गई हैं। तेतीस कोटि के देवता माने जायं तो अनेकों क्षेत्र में काम करने वाली शक्तियाँ तेतीस हो सकती हैं। शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, धार्मिक, आर्थिक, पारिवारिक, वैज्ञानिक भौगोलिक आदि क्षेत्रों की श्रेणियों की गणना की जाय तो उनकी संख्या तेतीस से कम न होगी। उन कोटियों में परमात्मा की विविध शक्तियाँ काम करती हैं वे देव ही तो हैं। दूसरी बात यह है कि जिस समय देवतावाद का सिद्धान्त प्रयुक्त हुआ उस समय भारतवर्ष की जन संख्या 33 कोटि-तेतीस करोड़ थी। इस पुण्य भारत भूमि पर निवास करने वाले सभी लोगों के आचरण और विचार देवोपम थे। संसार भर में वे भू-सुर (पृथ्वी के देवता) कहकर पुकारे जाते थे। तीसरी बात यह है कि हर मनुष्य के अन्तःकरण में रहने वाला देवता अपने ढंग का आप ही होता है। जैसे किन्हीं दो व्यक्तियों की शक्ल सूरत आपस में पूर्ण रूप से नहीं मिलती वैसे ही सब मनुष्यों के अन्तःकरण भी एक से नहीं होते उनमें कुछ न कुछ अन्तर रहता ही है। इस भेद के कारण हर मनुष्य का विचार, विश्वास, श्रद्धा, निष्ठा के द्वारा बना हुआ अन्तःकरण रूपी देवता पृथक्-2 है। इस प्रकार तेतीस कोटि मनुष्यों के देवता भी तेतीस कोटि ही होते हैं। देवताओं की आकृतियाँ चित्रों के रूप में और मूर्तियों के रूप में हम देखते हैं। कागज पर अंकित किये गये चित्र अस्थायी होते हैं। पर पाषाण एवं धातुओं की मूर्तियाँ चिरस्थायी होती हैं। साधना विज्ञान के आचार्यों का अभिमत है कि ईश्वर की जिस शक्ति को अपने में अभिप्रेत करना हो उसका विचार, चिन्तन, ध्यान और धारण करना चाहिये। विचार शक्ति का चुम्बकत्व ही मनुष्य के पास एक ऐसा अस्त्र है जो अदृश्य लोक की सूक्ष्म शक्तियों को खींच कर लाता है। धनवान बनने के लिये धन का चिन्तन और विद्वान बनने के लिये विद्या का चिंतन आवश्यक है। संसार का जो भी मनुष्य जिस विषय में आगे बढ़ा है, पारंगत हुआ है, उसमें उसने एकाग्रता और आस्था उत्पन्न की है। इसका एक आध्यात्मिक उपाय यह है कि ईश्वर की उस शक्ति का चिन्तन किया जाय। चिन्तन के लिये आकृति की आवश्यकता है उस आकृति की मूर्ति या चित्र के आधार पर हमारी कल्पना आसानी से ग्रहण कर सकती है। इस साधन की सुविधा के लिये मूर्तियों का आविर्भाव हुआ है। धनवान बनने के लिये सबसे पहले धन के प्रति प्रगाढ़ प्रेमभाव होना चाहिये। बिना इसके धन कमाने की योजना अधूरी और असफल रहेगी। क्योंकि पूरी दिलचस्पी और रुचि के बिना कोई कार्य पूरी सफलता तक नहीं पहुँच सकता। धन के प्रति प्रगाढ़ प्रेम, विश्वास, आशा पाने के लिये आध्यात्मिक शास्त्र के अनुसार मार्ग यह है कि ईश्वर की धन शक्ति को-लक्ष्मी जी को-अपने मानस लोक में प्रमुख स्थान दिया जाय। चूँकि ईश्वर की धन शक्ति का रूप दिव्यदर्शियों ने लक्ष्मी जी जैसा निर्धारित किया है अतएव लक्ष्मी जी की आकृति गुण कर्म स्वभाव युक्त उनकी छाया मन में धारण की जाती है। इस ध्यान साधना में मूर्ति बड़ी सहायक होती है। लक्ष्मी जी की मूर्ति की उपासना करने से मानस लोक में धन के भाव उत्पन्न होते हैं और वे भाव ही अभीष्ट सफलता तक ले पहुँचते हैं। इस प्रकार लक्ष्मी जी की उपासना से श्री वृद्धि होने में सहायता मिलती है। यही बात गणेश, शिव, विष्णु, हनुमान, दुर्गा आदि देवताओं के संबन्ध में है। इष्ट देव चुनने का उद्देश्य भी यही है जीवन लक्ष नियुक्त करने को ही आध्यात्मिक भाषा में इष्ट देव चुनना कहा जाता है। अखाड़ों में, व्यायामशालाओं में, हनुमान जी की मूर्तियां दिखती हैं। व्यापारी लोग लक्ष्मी जी की उपासना करते हैं। साधु संन्यासी शिवजी का इष्ट रखते हैं। गृहस्थ लोग, विष्णु (राम, कृष्ण आदि अवतार) को भजते हैं। शक्ति के इच्छुक दुर्गा को पूजते हैं। स्थूल दृष्टि से देखने में यह देवता अनेकों मालूम पड़ते हैं, उपासकों की साधना में अन्तर दिखाई देता है पर वास्तव में कोई अन्तर है नहीं। मान लीजिये माता के कई बालक हैं एक बालक रोटी खाने के लिये रसोई घर में बैठा है, दूसरा धुले कपड़ों की माँग करता हुआ कपड़ों के बक्स के पास खड़ा है, तीसरा पैसे लेने के लिए माता का बटुआ टटोल रहा है, चौथा गोदी में चढ़ने के लिये मचल रहा है। बालकों की आकाँक्षाएं भिन्न हैं वे माता के उसी गुण पर सारा ध्यान लगाये बैठे हैं जिसकी उन्हें आवश्यकता है। गोदी के लिये मचलने वाले बालक के लिये माता एक मुलायम पालना, या बढ़िया घोड़ा है। पैसे चाहने वाले बालक के लिए वह एक चलती फिरती बैंक है, भोजन के इच्छुक के लिये वह एक हलवाई है, कपड़े चाहने वाले के लिये वह घरेलू दर्जी या धोबी है। चारों बालक अपनी इच्छा के अनुसार माता को पृथक-2 दृष्टि से देखते हैं, उससे पृथक-2 आशा करते हैं फिर भी माता एक ही है। यही बात विभिन्न देव पूजकों के बारे में कही जा सकती है। वस्तुतः इस विश्व में एक ही सत्ता हैं-परमात्मा एक ही है। उसके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं, तो भी मनुष्य अपने विचार एवं साधना की दृष्टि से उसकी शक्तियों को प्रथक-2 देवताओं के रूप में मान लेता है।

श्रीसूक्तम् आनन्दकर्दम चिक्लीत जातवेद - ऋषि श्री देवता , १ - ३ अनुष्टुप् ४ प्रस्तारपंक्ति ५ - ६ त्रिष्टुप् और १५ प्रस्तारपंक्ति छन्द हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्त्रजाम् । चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१॥ हे अग्निदेव । सुवर्ण के समान वर्णवाली , हरिणी के से रूपवाली , सोने - चाँदी की मालाओं वाली , चन्द्रमा के से प्रकाशवाली , स्वर्णमयी लक्ष्मीजी का आप मेरे कल्याणार्थ आह्वान करें । तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् । यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥२॥ हे शास्त्रयोने । आप कभी अलग न होने वाली उन लक्ष्मी जी का मेरे हितार्थ आह्वान करें जिनके आने पर मै स्वर्ण , गौ , घोडे एवं बान्धव प्राप्त करूँ । अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम् । श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥३॥ आगे घोडों , वाली , मध्य में रथवाली और हाथियों के चिग्घाढ से सबको प्रबुद्ध करने वाली क्रीडा करती हुई लक्ष्मी जी का मैं आह्वान करता हूँ । वे लक्ष्मी देवी मुझे अपनाएं । कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् । पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥४॥ चिन्मयी , मन्दहास वाली , सुवर्ण जैसे आवरणवाली , दयामयी , ज्योति रूपा , स्वयं तृप्त एवं जनों को तृप्त करती हुई , कमल पर बैठी कमल के वर्णवाली उन लक्ष्मी जी का मैं यहाँ आह्वान करता हूँ । चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदारम् । तां पद्मनेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ॥५॥ मैं चन्द्रमा से आह्लादवाली , अत्यधिक कान्ति वाली , लोक में यश के प्रतापवाली , देवताओं से सेविता उन उदार हृदया लक्ष्मी जी की शरण प्राप्त करता हूँ । हे देवि । मैं तुम्हारी शरण ग्रहण करता हूँ ताकि मेरी दरिद्रता का नाश हो । आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्व : । तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मी : ॥६॥ सूर्य से तेजवाली देवि । मंगलकारी बिल्व वृक्ष तुम्हारे तप से उत्पन्न हुआ है उसके फल अपने प्रभाव से मेरे अज्ञान का , विघ्नों का और दैत्य का नाश करें । उपैतु मां देवसख : कीर्तिश्च मणिना सहा । प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु में ॥७॥ हे महादेव सखा कुबेर ! मुझे मणि के साथ कीर्ति भी प्राप्त हो । मैं इस राष्ट्र में पैदा हुआ हूँ । इसलिए यह मुझे कीर्ति और धन दें । क्षुप्तिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् । अभूतिमसमृद्धिञ्च सर्वान्निर्णुद में गृहात् ॥८॥ भूख - प्यास से मलीन हुई , और लक्ष्मी जी की अग्रजा अलक्ष्मी का मैं नाश करता हूँ । अनैश्वर्य और अभाव इन सबको मेरे घर से दूर करो । गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् । ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥९॥ मैं सम्पूर्ण प्राणियों की अधीश्वरी उन लक्ष्मी जी का यहाँ आह्वान करता हूँ जो गन्धमयी टुर्निवारा , नित्य सम्पन्न एवं उपले आदि से भरी - पुरी हैं । मनस : काममाकूतिं वाच : सत्यमशीमहि । पशूना रूपमन्नस्य मयि श्री : श्रयतां यश : ॥१०॥ हमें मन की कामनाओं का संकल्प , वाणी का सत्य तथा अन्न और पशुओं का स्वत्व प्राप्त हो । यश और श्री मुझ में निवास करें । कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम । श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥११॥ श्री जी कर्दम को पाकर पुत्रवती हैं । हे कर्दम । आप मेरे यहाँ उत्पन्न हों और कमलों की मालावाली माँ श्री जी को मेरे कुल में निवास कराएं । आप : सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस में गृहे । नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥१२॥ हे चिक्लीत । आप मेरे घर में निवास करें । मेरे यहाँ जल से स्नेह युक्त पदार्थों का सृजन हो । और आप अपनी माता श्री जी को मेरे कुल में निवास कराएं । आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिंगलां पद्ममालिनीम् । चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१३॥ हे जातवेद । आप स्नेहमयी , पुष्टिकारिणी , पुष्टिरूपा , पीतवर्णा , कमल मालिनी , आह्लादिनी , सुवर्णमयी लक्ष्मी जी का मेरे लिए आह्वान करें । आर्द्रां यष्करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् । सूर्यां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१४॥ हे जातवेद । आप स्नेहमयी , यश बढाने वाली , पूजनीया , सुन्दर वर्णवाली , स्वर्ण मालिनी , तेजोमयी और स्वर्णमयी लक्ष्मी जी का मेरे लिए आह्वान करें । तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् । यस्यां हिरण्यं प्रभूतिं गावो दास्योऽश्वान्विन्देयं पुरुषानहम् ॥१५॥ हे जातवेद । स्थिर रहने वाली उन लक्ष्मी जी का मेरे लिए आह्वान करें जिनके आने पर मैं सुवर्ण , समृद्धि , गाएं , दासियाँ , घोडे और जन प्राप्त करूँ । य : शुचि : प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् । सूक्तं पंचदशर्चं च श्रीकाम : सततं जपेत् ॥१६॥ जिसे श्री जी की इच्छा हो वह पवित्र और संयत होकर प्रतिदिन घीं से हवन करें और श्रीसुक्त की पन्द्रह ऋचाओं का निरन्तर जप करें ।

गायत्री मन्त्र गायत्री मन्त्र १ . ॐ तत् पुरुषाय विद्महे , वक्र तुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात । ( गणेश गायत्री ) २ . ॐ नारायणाय विद्महे , वासुदेवाय धीमही तन्नो विष्णु प्रचोदयात् । ( विष्णु गायत्री ) ३ . ॐ तत् पुरुषाय विद्महे , महादेवाय धीमहि तन्नौ रुद्र प्रचोदयात् । ( शिव गायत्री ) ४ . ॐ दाशरथाय विद्महे , सीता वल्लभायै धीमहि तन्नौ राम : प्रचोदयात् । ( राम गायत्री ) ५ . ॐ जनक नन्दनी विद्महे भूमिजाय धीमहि तन्नौ सीता प्रचोदयात् । ( सीता गायत्री ) ६ . ॐ रामदूताय विद्महे , कपि राजाय धीमहि तन्नौ हनुमान प्रचोदयात् । ( हनुमत गायत्री ) ७ . ॐ अंजनी सुताय विद्महे वायु पुत्राय धीमहि तन्नौ हनुमत् प्रचोदयात् । ( हनुमान गायत्री ) ८ . ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नौ कृष्ण प्रचोदयात् । ( कृष्ण गायत्री ) ९ . ॐ वृष भानुजाय विद्महे , कृष्ण प्रियायी धीमहि तन्नौ राधा प्रचोदयात् । ( राधा गायत्री ) १० . ॐ दाशरथाय विद्महे उर्मिला प्रियाये धीमही तन्नो लक्ष्मण प्रचोदयात् । ( लक्ष्मण गायत्री ) ११ . ॐ भागीरथाय विद्महे ब्रह्म पुत्री धीमहि तन्नौ गंगा प्रचोदयात् । ( गंगा गायत्री ) १२ . ॐ कात्यायीनीच विद्महे कन्या कुमारीय धीमहि तन्नौ दूर्गा प्रचोदयात् । ( दुर्गा गायत्री ) १३ . ॐ महादेवीञ्च विद्महे , विष्णु प्रियायी धीमहि तन्नौ लक्ष्मी प्रचोदयात् । १४ . ॐ पाञ्च जन्याय विद्महे पावमानाय धीमहि तन्नौ शंख प्रचोदयात् । ( शंख गायत्री ) ॐ नमस्ते वास्तु पुरुष : भू शय्या भिरत् प्रभोमम् गृहे धन धान्यादि समृद्धिकुरु सर्वदा । १५ . ॐ भुजगेशाय विद्महे सर्प राजाय धीमहि तन्नौ वास्तो प्रचोदयात् ॥

मोती शंख मोती शंख एक बहुत ही दुर्लभ प्रजाति का शंख माना जाता है। तंत्र शास्त्र के अनुसार यह शंख बहुत ही चमत्कारी होता है। दिखने में बहुत ही सुंदर होता है। मोती जैसी चमकीली आभा के कारण इसे मोती शंख कहते हैं। जिस प्रकार पूजन शंख को विष्णु और दक्षिणावर्ती शंख को लक्ष्मी स्वरुप माना जाता है। उसी प्रकार मोती शंख को सौभाग्य लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। - गृह कलह नाश और घर में सकारात्मक ऊर्जा बढ़ाने के लिए इसे एक ताम्बे के पात्र में जल भरकर उसके बीचों बीच घर के ईशान कोण या ब्रह्मस्थल में स्थापित करे। - यदि गुरु पुष्य योग में मोती शंख को कारखाने में स्थापित किया जाए तो कारखाने में तेजी से आर्थिक उन्नति होती है। - मोती शंख में जल भरकर लक्ष्मी के चित्र के साथ रखा जाए तो लक्ष्मी प्रसन्न होती है। - किसी शुभ नक्षत्र या दीपावली में मोती शंख को घर में स्थापित कर रोज श्री महालक्ष्मै नम: 108 बार बोलकर 1-1 चावल का दाना शंख में भरते रहें। इस प्रकार 11 दिन तक करें। बाद में शंख और चावल एक लाल कपड़े की पोटली बनाकर तिजोरी या रूपये गहने आदि रखने के स्थान पर रख दें। यह प्रयोग करने से आर्थिक तंगी समाप्त हो जाती है। - अक्षय तृतीया पर एक लाल कपड़े में मोती शंख , गोमती चक्र, लघु नारियल, पीली कौड़ी और चाँदी के सिक्के का माँ लक्ष्मी के सामने पूजन कर 21 पाठ श्री सूक्त का करे और पोटली बना कर मन्दिर में स्थापित कर दें। पोटली खोले बिना नित्य ऊपर से ही धूप दीप करें। थोड़े ही दिनों में आर्थिक समस्या समाप्त होने लगेगी। - यदि व्यापार में घाटा हो रहा है तो एक मोती शंख धन स्थान पर रखने से व्यापार में वृद्धि होती है। - रात्रि में इसमें जल भरकर रख दें और सुबह उससे चेहरे पर मसाज करने से चेहरे के दाग धब्बे खत्म हो जाते हैं और चेहरा कांतियुक्त हो जाता है। - देशी चिकित्सा पद्धति में इससे नाद करने से फेफड़े और हृदय रोग में लाभ होना बताया गया है। - अन्नभण्डार में स्थापित करने पर वो सदैव परिपूर्ण रहता है। - इसमें बीज भरकर पूजा कर अगले दिन खेत में बोने से फसल अछि होती है। ऐसा भी एक प्रयोग सामने आया है। - रोगी व्यक्ति को इसमें रखा जल पिलाने से वो शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करता है। जय श्री राम ------ आपका दैवज्ञश्री पंडित आशु बहुगुणा । पुत्र श्री ज्योतिर्विद पंडित टीकाराम बहुगुणा । मोबाईल न0॰है (9760924411) इसी नंबर पर और दोपहर-12.00 –बजे से शाम -07.00 -के मध्य ही संपर्क करें। मुजफ्फरनगर ॰उ0॰प्र0.•

https://youtu.be/XfpY7YI9CHc

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