Sunday 4 January 2015

।। नारायणास्त्रम् ।।

।। नारायणास्त्रम् ।।
हरिः ॐ नमो भगवते श्रीनारायणाय नमो नारायणाय विश्वमूर्तये नमः श्री पुरुषोत्तमाय पुष्पदृष्टिं प्रत्यक्षं वा परोक्षं अजीर्णं पञ्चविषूचिकां हन हन ऐकाहिकं द्वयाहिकं त्र्याहिकं चातुर्थिकं ज्वरं नाशय नाशय चतुरशितिवातानष्टादशकुष्ठान् अष्टादशक्षय रोगान् हन हन सर्वदोषान् भंजय भंजय तत्सर्वं नाशय नाशय आकर्षय आकर्षय शत्रून् शत्रून् मारय मारय उच्चाटयोच्चाटय विद्वेषय विदे्वेषय स्तंभय स्तंभय निवारय निवारय विघ्नैर्हन विघ्नैर्हन दह दह मथ मथ विध्वंसय विध्वंसय चक्रं गृहीत्वा शीघ्रमागच्छागच्छ चक्रेण हत्वा परविद्यां छेदय छेदय भेदय भेदय चतुःशीतानि विस्फोटय विस्फोटय अर्शवातशूलदृष्टि सर्पसिंहव्याघ्र द्विपदचतुष्पद पद बाह्यान्दिवि भुव्यन्तरिक्षे अन्येऽपि केचित् तान्द्वेषकान्सर्वान् हन हन विद्युन्मेघनदी पर्वताटवीसर्वस्थान रात्रिदिनपथचौरान् वशं कुरु कुरु हरिः ॐ नमो भगवते ह्रीं हुं फट् स्वाहा ठः ठं ठं ठः नमः ।।

।। विधानम् ।।
एषा विद्या महानाम्नी पुरा दत्ता मरुत्वते ।
असुराञ्जितवान्सर्वाञ्च्छ क्रस्तु बलदानवान् ।। १।।
यः पुमान्पठते भक्त्या वैष्णवो नियतात्मना ।
तस्य सर्वाणि सिद्धयन्ति यच्च दृष्टिगतं विषम् ।। २।।
अन्यदेहविषं चैव न देहे संक्रमेद्ध्रुवम् ।
संग्रामे धारयत्यङ्गे शत्रून्वै जयते क्षणात् ।। ३।।
अतः सद्यो जयस्तस्य विघ्नस्तस्य न जायते ।
किमत्र बहुनोक्तेन सर्वसौभाग्यसंपदः ।। ४।।
लभते नात्र संदेहो नान्यथा तु भवेदिति ।
गृहीतो यदि वा येन बलिना विविधैरपि ।। ५।।
शतिं समुष्णतां याति चोष्णं शीतलतां व्रजेत् ।
अन्यथां न भवेद्विद्यां यः पठेत्कथितां मया ।। ६।।
भूर्जपत्रे लिखेन्मंत्रं गोरोचनजलेन च ।
इमां विद्यां स्वके बद्धा सर्वरक्षां करोतु मे ।। ७।।
पुरुषस्याथवा स्त्रीणां हस्ते बद्धा विचेक्षणः ।
विद्रवंति हि विघ्नाश्च न भवंति कदाचनः ।। ८।।
न भयं तस्य कुर्वंति गगने भास्करादयः ।
भूतप्रेतपिशाचाश्च ग्रामग्राही तु डाकिनी ।। ९।।
शाकिनीषु महाघोरा वेतालाश्च महाबलाः ।
राक्षसाश्च महारौद्रा दानवा बलिनो हि ये ।। १०।।
असुराश्च सुराश्चैव अष्टयोनिश्च देवता ।
सर्वत्र स्तम्भिता तिष्ठेन्मन्त्रोच्चारणमात्रतः ।। ११।।
सर्वहत्याः प्रणश्यंति सर्व फलानि नित्यशः ।
सर्वे रोगा विनश्यंति विघ्नस्तस्य न बाधते ।। १२।।
उच्चाटनेऽपराह्णे तु संध्यायां मारणे तथा ।
शान्तिके चार्धरात्रे तु ततोऽर्थः सर्वकामिकः ।। १३।।
इदं मन्त्ररहस्यं च नारायणास्त्रमेव च ।
त्रिकालं जपते नित्यं जयं प्राप्नोति मानवः ।। १४।।
आयुरारोग्यमैश्वर्यं ज्ञानं विद्यां पराक्रमः ।
चिंतितार्थ सुखप्राप्तिं लभते नात्र संशयः ।। १५।।
।। इति नारायणास्त्रम् ।।

बजरंग बाण

 
भौतिक मनोकामनाओं की पुर्ति के लिये बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग 
अपने इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए मंगल अथवा शनिवार का दिन चुन लें। हनुमानजी का एक चित्र या मूर्ति जप करते समय सामने रख लें। ऊनी अथवा कुशासन बैठने के लिए प्रयोग करें। अनुष्ठान के लिये शुद्ध स्थान तथा शान्त वातावरण आवश्यक है। घर में यदि यह सुलभ न हो तो कहीं एकान्त स्थान अथवा एकान्त में स्थित हनुमानजी के मन्दिर में प्रयोग करें।
हनुमान जी के अनुष्ठान मे अथवा पूजा आदि में दीपदान का विशेष महत्त्व होता है। पाँच अनाजों (गेहूँ, चावल, मूँग, उड़द और काले तिल) को अनुष्ठान से पूर्व एक-एक मुट्ठी प्रमाण में लेकर शुद्ध गंगाजल में भिगो दें। अनुष्ठान वाले दिन इन अनाजों को पीसकर उनका दीया बनाएँ। बत्ती के लिए अपनी लम्बाई के बराबर कलावे का एक तार लें अथवा एक कच्चे सूत को लम्बाई के बराबर काटकर लाल रंग में रंग लें। इस धागे को पाँच बार मोड़ लें। इस प्रकार के धागे की बत्ती को सुगन्धित तिल के तेल में डालकर प्रयोग करें। समस्त पूजा काल में यह दिया जलता रहना चाहिए। हनुमानजी के लिये गूगुल की धूनी की भी व्यवस्था रखें।
जप के प्रारम्भ में यह संकल्प अवश्य लें कि आपका कार्य जब भी होगा, हनुमानजी के निमित्त नियमित कुछ भी करते रहेंगे। अब शुद्ध उच्चारण से हनुमान जी की छवि पर ध्यान केन्द्रित करके बजरंग बाण का जाप प्रारम्भ करें। “श्रीराम–” से लेकर “–सिद्ध करैं हनुमान” तक एक बैठक में ही इसकी एक माला जप करनी है।
गूगुल की सुगन्धि देकर जिस घर में बगरंग बाण का नियमित पाठ होता है, वहाँ दुर्भाग्य, दारिद्रय, भूत-प्रेत का प्रकोप और असाध्य शारीरिक कष्ट आ ही नहीं पाते। समयाभाव में जो व्यक्ति नित्य पाठ करने में असमर्थ हो, उन्हें कम से कम प्रत्येक मंगलवार को यह जप अवश्य करना चाहिए।

     
बजरंग बाण ध्यान
श्रीराम
अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं।
दनुज वन कृशानुं, ज्ञानिनामग्रगण्यम्।।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं।
रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि।।

दोहा
निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान।।



चौपाई
जय हनुमन्त सन्त हितकारी। सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।।
जन के काज विलम्ब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै।।
जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा। सुरसा बदन पैठि विस्तारा।।
आगे जाय लंकिनी रोका। मारेहु लात गई सुर लोका।।
जाय विभीषण को सुख दीन्हा। सीता निरखि परम पद लीन्हा।।
बाग उजारि सिन्धु मंह बोरा। अति आतुर यम कातर तोरा।।
अक्षय कुमार को मारि संहारा। लूम लपेटि लंक को जारा।।
लाह समान लंक जरि गई। जै जै धुनि सुर पुर में भई।।
अब विलंब केहि कारण स्वामी। कृपा करहु प्रभु अन्तर्यामी।।
जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता। आतुर होई दुख करहु निपाता।।
जै गिरधर जै जै सुख सागर। सुर समूह समरथ भट नागर।।
ॐ हनु-हनु-हनु हनुमंत हठीले। वैरहिं मारू बज्र सम कीलै।।
गदा बज्र तै बैरिहीं मारौ। महाराज निज दास उबारों।।
सुनि हंकार हुंकार दै धावो। बज्र गदा हनि विलम्ब न लावो।।
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीसा। ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीसा।।
सत्य होहु हरि सत्य पाय कै। राम दुत धरू मारू धाई कै।।
जै हनुमन्त अनन्त अगाधा। दुःख पावत जन केहि अपराधा।।
पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत है दास तुम्हारा।।
वन उपवन जल-थल गृह माहीं। तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं।।
पाँय परौं कर जोरि मनावौं। अपने काज लागि गुण गावौं।।
जै अंजनी कुमार बलवन्ता। शंकर स्वयं वीर हनुमंता।।
बदन कराल दनुज कुल घालक। भूत पिशाच प्रेत उर शालक।।
भूत प्रेत पिशाच निशाचर। अग्नि बैताल वीर मारी मर।।
इन्हहिं मारू, तोंहि शमथ रामकी। राखु नाथ मर्याद नाम की।।
जनक सुता पति दास कहाओ। ताकी शपथ विलम्ब न लाओ।।
जय जय जय ध्वनि होत अकाशा। सुमिरत होत सुसह दुःख नाशा।।
उठु-उठु चल तोहि राम दुहाई। पाँय परौं कर जोरि मनाई।।
ॐ चं चं चं चं चपल चलन्ता। ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता।।
ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल। ॐ सं सं सहमि पराने खल दल।।
अपने जन को कस न उबारौ। सुमिरत होत आनन्द हमारौ।।
ताते विनती करौं पुकारी। हरहु सकल दुःख विपति हमारी।।
ऐसौ बल प्रभाव प्रभु तोरा। कस न हरहु दुःख संकट मोरा।।
हे बजरंग, बाण सम धावौ। मेटि सकल दुःख दरस दिखावौ।।
हे कपिराज काज कब ऐहौ। अवसर चूकि अन्त पछतैहौ।।
जन की लाज जात ऐहि बारा। धावहु हे कपि पवन कुमारा।।
जयति जयति जै जै हनुमाना। जयति जयति गुण ज्ञान निधाना।।
जयति जयति जै जै कपिराई। जयति जयति जै जै सुखदाई।।
जयति जयति जै राम पियारे। जयति जयति जै सिया दुलारे।।
जयति जयति मुद मंगलदाता। जयति जयति त्रिभुवन विख्याता।।
ऐहि प्रकार गावत गुण शेषा। पावत पार नहीं लवलेषा।।
राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।।
विधि शारदा सहित दिनराती। गावत कपि के गुन बहु भाँति।।
तुम सम नहीं जगत बलवाना। करि विचार देखउं विधि नाना।।
यह जिय जानि शरण तब आई। ताते विनय करौं चित लाई।।
सुनि कपि आरत वचन हमारे। मेटहु सकल दुःख भ्रम भारे।।
एहि प्रकार विनती कपि केरी। जो जन करै लहै सुख ढेरी।।
याके पढ़त वीर हनुमाना। धावत बाण तुल्य बनवाना।।
मेटत आए दुःख क्षण माहिं। दै दर्शन रघुपति ढिग जाहीं।।
पाठ करै बजरंग बाण की। हनुमत रक्षा करै प्राण की।।
डीठ, मूठ, टोनादिक नासै। परकृत यंत्र मंत्र नहीं त्रासे।।
भैरवादि सुर करै मिताई। आयुस मानि करै सेवकाई।।
प्रण कर पाठ करें मन लाई। अल्प-मृत्यु ग्रह दोष नसाई।।
आवृत ग्यारह प्रतिदिन जापै। ताकी छाँह काल नहिं चापै।।
दै गूगुल की धूप हमेशा। करै पाठ तन मिटै कलेषा।।
यह बजरंग बाण जेहि मारे। ताहि कहौ फिर कौन उबारे।।
शत्रु समूह मिटै सब आपै। देखत ताहि सुरासुर काँपै।।
तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई। रहै सदा कपिराज सहाई।।
दोहा

प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।।
तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान।।

महासिद्ध गुरू मत्स्येन्द्रनाथ चालीसा

 
                  
गणपति गिरजा पुत्र को सुवरु बारम्बार
हाथ जोड़ विन ती करु शारदा नाम आधार
सत्य श्री आकाम नमः आदेश
माता पिता कुलगुरू देवता सत्संग को आदेश
आकाश चन्द्र सूरज पावन पाणी को आदेश
नव नाथ चौरासी सिद्ध अनन्त कोटी सिद्धो को आदेश
सकल लोक के सर्व सन्तो को सत-सत आदेश
सतगुरू मछेन्द्रनाथ को ह्रदय पुष्प अर्पित कर आदेश
                 नमः शिवाय
जय - जय गुरू मछेन्द्रनाथ अविनाशी   कृपा करो गुरूदेव प्रकाशी
जय - जय मछेन्द्रनाथ गुण ज्ञानी इच्छा रूप योगी वरदानी
 अलख निरंजन तुम्हारो नामा सदा करो भक्तन हित कामा
नाम तुम्हारा जो कोइ गावे जन्म जन्म के दु: मिट जावे
जो कोइ गुरू मछेन्द्र नाम सुनावे भूत पिशाच निक्ट नहीं आवे
ज्ञान तुम्हारा योग से पावे रूप तुम्हारा वर्णत जावे
निराकार तुम हो निर्वाणी महिमा तुम्हारी वेद ना जानी
घट - घट के तुम अन्तर्यामी सिद्ध चौरासी करे प्रणामी
भस्म अंग गल नाद विराजे जटा सीस अति सुन्दर साजे
तुम बिन देव और नहीं दूजा देव मुनि जन करते पूजा
चिदानन्द सन्तन हितकारी मंगल करण अमंगल हारी
पूर्ण ब्रह्म सकल घटवासी गुरू मछेन्द्र सकल प्रकाशी
गुरू मछेन्द्र-गुरू मछेन्द्र जो कोइ ध्यावे ब्रह्म रूप के दर्शन पावे
शंकर रूप धर डमरू बाजे कानन कुण्डल सुन्दर साजे
नित्यानन्द है नाम तुम्हारा असुर मार भक्तन रखवारा
अति विशाल है रूप तुम्हारा सुर नर मुनि जन पावे पारा
दीन बन्धु दीन हितकारी हरो पाप हम शरण तुम्हारी
योग युक्ति में हो प्रकाशा । सदा करो सन्तन तन वासा ॥
प्रातःकाल ले नाम  तुम्हारा  । सिद्धि बड़े अरू योग प्रचारा ॥
हठ-हठ-हठ गुरू मछेन्द्र हठीले । मार-मार बैरी के कीले ॥
चल-चल-चल गुरू मछेन्द्र विकराला । दुश्मन मार करो बेहाला ॥
जय-जय-जय गुरू मछेन्द्र अविनाशी । अपने जन की हरो चौरासी ॥
अचल अगम है गुरू मछेन्द्र योगी । सिद्धि देवो हरो रसभोगी ॥
काटो मार्ग यम को तुम आई । तुम बिन मेरा कौन साहाई ॥
अजर अमर है तुम्हारी देहा । सनकादिक सब जो रही नेहा ॥
कोटिन रवि सम तेज तुम्हारा । हे प्रसिद्ध जगत उजियारा ॥
योगी लिखे तुम्हारी माया । पार ब्रह्म से ध्यान लगाया ॥
ध्यान तुम्हारा जो कोइ लावे । अष्ट सिद्धि नव निधि धर पावे ॥
शिव मछेन्द्र है नाम तुम्हारा । पापी इष्ट अधम को तारा ॥
अगम अगोचर निर्भय नाथा । सदा रहो सन्तन के साथा ॥
शंकर रूप अवतार तुम्हारा । गोरख, गोपीचन्द्र भरथरी को तारा ॥
सुन लीजो प्रभु अरज हमारी । कृपा सिन्धु योगी चमत्कारी ॥
पूर्ण आस दास कीजे । सेवक जान ज्ञान को दीजे ॥
पतित पावन अधम अधारा । तिनके हेतु तुम लेत अवतारा ॥
अलख निरंजन नाम तुम्हारा । अगम पथ जिन योग प्रचारा ॥
जय-जय-जय गुरू मछेन्द्र भगवाना । सदा करो भक्तन कल्याना ॥
जय-जय-जय गुरू मछेन्द्र अविनाशी । सेवा करे सिद्ध चौरासी ॥
जो यह पढ़हि गुरू मछेन्द्र चालीसा । होय सिद्ध साक्षी जगदीशा ॥
हाथ जोड़कर ध्यान लगावे । और श्रद्धा से भेंट चढ़ावे ॥
बारह पाठ पढ़े नित जोई । मनोकामना पूर्ण होई ॥
  -दोहा-
सुने सुनावे प्रेम वश, पूजे अपने हाथ ।
मन इच्छा सब कामना, पूरे गुरू मछेन्द्रनाथ ॥
अगम अगोचर नाथ तुम, पार ब्रह्म अवतार ।
कानन कुंडल सिर जटा, अंविभूति अपार ।
सिद्ध पुरुष योगेश्वरी, दो मुझको उपदेश ॥
हर समय सेवा करू, सुबह शाम आदेश ॥

सांस्कृतिक धरोहर दूर बसे लोगों को आज भी आकर्षित करती हैं



सांस्कृतिक धरोहर दूर बसे लोगों को आज भी आकर्षित करती हैं

ऊँचे -ऊँचे चीड के पेड़ ,प्राकृतिक स्रोतों से बहता पानी .सीढीनुमा खेत और दूर तक जाती हुई पतली पगडंडियां। हाँ, कुछ ऐसा ही दृश्य हमारी आंखों के आगे छा जाता है जब हम उत्तरांचल का जिक्र करते हैं। उत्तरांचल ,एक ऐसा भूखंड है जो प्राकृतिक सौन्दर्य तथा अपने रीति-रिवाजों के लिए जाना जाता है। यहाँ की सांस्कृतिक धरोहर दूर बसे लोगों को आज भी आकर्षित करती हैं।

गीत-संगीत हो या फिर त्योहारों की रौनक उत्तरांचल की सभी परम्पराएँ बेजोड़ हैं इनमें से उत्तरांचल की होली, रामलीला , ऐपण ,रंगयाली पिछोड़ा, नथ, घुघूती का त्यौहार आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। यदि खान-पान की बात की जाए तो यहाँ के विशेष फल -काफल, हिशालू , किल्मौडा, पूलम हैं तथा पहाड़ी खीरा, माल्टाऔर नीबू का भी खासा नाम है। जीविका के लिए उत्तरांचल छोड़कर जो लोग शहरों में बस गए हैं, उन्हें यही परम्पराएं अपनी जड़ों से जोड़ने का काम   करती हैं साथ ही साथ उत्तरांचल वासी होने का एहसास उनमें सदा जीवंत रहता है।

ऐपण
उत्तरांचल में शुभावसरों पर बनायीं जाने वाली रंगोली को ऐपण कहते हैं। ऐपण कई तरह के डिजायनों से पूर्ण होता है। ऐपण के मुख्य डिजायन -चौखाने , चौपड़ , चाँद, सूरज , स्वस्तिक , गणेश ,फूल-पत्ती, बसंत्धारे तथा पो आदि हैं। ऐपण के कुछ डिजायन अवसरों के अनुसार भी होते हैं। ऐपण बनने के लिए गेरू तथा चावल के विस्वार का प्रयोग किया जाता है। आजकल ऐपण के रेडीमेड स्टीकर भी प्रचलन में हैं। 

घुघूती 
घुघूती उत्तरांचल का प्रसिद्द त्यौहार है। यह हर वर्ष 14-15 जनवरी को मकरसंक्रांति के दिन मनाया जाता है यह त्यौहार बहुत ही शुभ माना जाता है, साथ ही अन्य त्योहारों की तरह धूम धाम से मनाया जाता है। इसे घुघुते का त्यौहार भी कहते है। मकरसंक्रांति के दिन शाम को घुघुते बनाये जाते है और उन्हें माला में पिरोकर बच्चों  को पहनाया जाता है अगले दिन सुबह को ये घुघुते कौऔं को खिलाये जाते है। कौऔं को बुलाने के लिए विशेष शब्दों का प्रयोग करते है। "खाले खाले कौए खाले , पूस में माघ का खाले" ये त्यौहार सभी के लिए बहुत शुभ है क्योंकि इसी समय सूर्य दक्षिण से उत्तर में प्रवेश करते हैं।

रंगयाली पिछोड़ा 
उत्तरांचल में विवाह के आलावा अन्य अवसरों पर पहने जाने वाली चुनरी को रंगयाली पिछोड़ा कहते है। यह संयुक्त रूप से लाल तथा पीले रंग का होता है। ऐपण की तरह इसमें भी शंख, चक्र, स्वस्तिक, घंटा , बेल-पत्ती, फूल, आदि शुभ चिन्हों का प्रयोग होता है। पहले लोग घर पर ही कपड़ा रंग कर पिछोड़ा तैयार करते थे प्रचलित होने के कारन अब रंगयाली पिछोड़ा रेडीमेड भी आने लगे हैं। इन्हे और सुंदर बनाने के लिए इन पर लेस, गोटा, सितारे आदि लगाए जाते हैं। 

नथ 
उत्तरांचल के आभूषण भी अपनी पहचान  बनाने में कम नही हैं। उत्तरांचल की नथ (नाक में पहने जाने वाला गहना )अपने बड़े आकार के कारण प्रसिद्द है। यह आकार में बड़े गोलाकार की होती है और इसके ऊपर मोर आकृति आदि डिजायन बनाए जाते हैं। इन डिजायनों को बनाने के लिए नगों तथा मीनाकारी का प्रयोग जाता है। 

यूँ तो उत्तरांचल की सांस्कृतिक रूप को चंद लाइनों में नही समेटा जा सकता फिर भी इन मुख्य परम्पराओं से हमें उत्तरांचल के सांस्कृतिक पहलुओं की एक झलक देखने को मिलती है। अगर यह झलक हमारी परम्पराओं और संस्कृति को बचाए रखने के लिए प्रेरित करती है तो मेरा यह कदम सही है।

https://youtu.be/XfpY7YI9CHc

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